लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद क्या गहरे दबाव में हैं ममता बनर्जी?
नई दिल्ली। ममता बनर्जी भले ही चुनावी हार को बहुत महत्व न दे रही हों और टीएमसी के विधायकों के भाजपा में शामिल होने से पार्टी व सरकार के समक्ष कोई संकट न मान रही हों, लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि वह गहरे दबाव में हैं। इस आशंका को भी खारिज नहीं किया जा सकता कि उन्हें आगामी संकट का भी अंदेशा हो जिसका बहुत प्रचार किया जा रहा है। इसमें एक यह भी है कि पश्चिम बंगाल में टीएमसी की सरकार समय से पहले भी जा सकती है और विधानसभा चुनाव भी पहले हो सकते हैं। इस संकट के लक्षण लोकसभा चुनाव परिणामों के तुरंत बाद दिखाई देने लगे थे जब इस आशय की खबरें आई थीं कि ममता ने इस्तीफे की पेशकश की थी। हालांकि उन्होंने ऐसा नहीं किया और लगातार यह बताने की कोशिश करती रहीं कि टीएमसी के पास संख्या बल है और जनसमर्थन प्राप्त है। अब एक बार फिर ऐसे हालात उत्पन्न हो गए हैं जिससे ममता और उनकी पार्टी की वास्तविक स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है।
संकट के लक्षण लोकसभा चुनाव परिणामों के बाद दिखने लगा
हुआ यह कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में शामिल होने का न्यौता दिया गया था। इस न्यौते पर ममता बनर्जी की ओर हामी भी भर दी गई थी कि वे समारोह में शामिल होंगी। तब उनकी ओर से यह बताया गया था कि चूंकि यह एक संवैधानिक कार्यक्रम है, इसलिए वे इसका हिस्सा बनेंगी। ममता बनर्जी ने हामी भर कर एक अच्छा संदेश दिया था जिससे किसी को भी यह लगना स्वाभाविक है कि स्वस्थ राजनीति का यह तकाजा है कि चुनावों में भले ही अपने प्रतिद्वंद्वियों को लेकर कुछ भी कहा जाए, चुनाव परिणाम आ जाने के बाद सब सामान्य हो जाता है। हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था भी यही कहती है। इसीलिए इस परंपरा का निर्वाह भी किया जाता रहा है कि हारे हुए नेतागण भी ऐसे कार्यक्रमों में शिरकत करते रहे हैं। लेकिन ममता बनर्जी ने एक दिन पहले की गई हां के दूसरे दिन ही ना कर दिया। इससे राजनीतिक हलकों में तो खराब संदेश गया ही, भाजपा को भी उन्हें निशाने पर लेने का एक और मौका मिल गया। भाजपा ने ममता की ना पर उन्हें आड़े हाथों लिया है बल्कि यह भी कहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शपथ ग्रहण में शामिल होने से इनकार कर उनकी ओर से संघीय ढांचे का अपमान किया गया है।
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ममता ने की थी इस्तीफे की पेशकश
ममता के इस तरह के फैसले से राजनीतिक हलकों में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि उनकी जैसी नेता ने आखिर इस तरह का फैसला किन परिस्थितियों में किया जिसके लिए उन्हें आलोचना का शिकार होना पड़े। ममता बनर्जी की राजनीति को जानने वाले यह मानकर चलते हैं कि वह तुरंत फैसला लेने वाली नेता रही हैं और एक बार कोई फैसला ले लिया तो उससे आसानी से डिगती नहीं। लेकिन इस मामले में चीजें कुछ विपरीत नजर आ रही हैं। ममता की ओर से जब शपथ ग्रहण समारोह में शामिल होने की बात की गई थी तब यह भी पता चला था कि उन्होंने कुछ अन्य मुख्यमंत्रियों और नेताओं के साथ बातचीत की थी। अगर यह सही है तो इसका मतलब यह हुआ कि उन्होंने काफी सोच-विचार के बाद शपथ समारोह में शामिल होने के लिए हामी भरी थी। यह फैसला चाहे जिन भी वजहों से लिया गया था, कहा जा सकता है कि ऐसा ही होना चाहिए था और उन्हें समारोह में शामिल होना ही चाहिए था।
मोदी के शपथ समारोह में ममता बनर्जी ने किया शामिल होने से इंकार
लेकिन अब जबकि उनकी ओर से ना कर दी गई है तो इसके लिए बाकायदा उन्होंने कारण का भी उल्लेख किया है। इसमें उनकी ओर से न केवल भाजपा को घेरने की राजनीतिक कोशिश की गई है बल्कि भाजपा की ओर से लगाए जा रहे सियासी हत्याओं के आरोपों को भी गलत बताया है। यह भी कहा है कि इस वजह से उन्हें अपना फैसला बदलने के लिए मजबूर होना पड़ा है। दरअसल भाजपा की ओर से इस आशय का आरोप लगाया जा रहा है कि उनकी पार्टी के अनेक कार्यकर्ताओं की राजनीतिक कारणों से हत्या की जा चुकी है। आरोपों में यह भी शामिल है कि यह हत्याएं टीएमसी कार्यकर्ताओं द्वारा की गई हैं। इस पर ममता की ओर से यह बताया गया है कि भाजपा के आरोप गलत है और हत्याओं के पीछे आपसी दुश्मनी से लेकर तमाम अन्य कारण रहे हैं। यह आरोप-प्रत्यारोप तो अपनी जगह है। यह भी देखने की बात है कि क्या यह कोई नई बात है। भाजपा की ओर से पहले भी इस आशय के आरोप लगाए जाते रहे हैं। चुनावों के दौरान भी इसे मुद्दा बनाया गया था। इसी के आधार पर यह कहा जा रहा है कि इस मुद्दे को शपथ ग्रहण समारोह से जोड़ना कुछ समीचीन नहीं लग रहा है। इसके अलावा यह भी कहा जा रहा है कि शायद ममता बनर्जी समारोह में न शामिल होने के लिए कोई बहाना खोज रही थीं और इसी कोशिश में उन्होंने इसे मुद्दा बना लिया और यह ऐलान कर दिया कि वह शपथ समारोह में शामिल नहीं होंगी।
टीएमसी विधायकों के भाजपा में शामिल होने की शुरुआत भी हो चुकी है
इससे एक संकेत यह भी निकल कर आ रहा है कि पश्चिम बंगाल में आने वाले दिनों में किस तरह के राजनीतिक संघर्ष सामने आ सकते हैं। एक तो पश्चिम बंगाल के अपने किले को अभेद्य मानने वाली ममता बनर्जी के लिए यह किसी बड़े झटके से कम नहीं माना जा सकता कि वहां से भाजपा को 18 सीटों पर जीत मिल जाए। ऐसा तब हुआ जबकि इससे पहले के लोकसभा चुनाव में राज्य से भाजपा के पास मात्र दो सीटें थीं। इस बार भी ममता को यह विश्वास था कि भाजपा कुछ खास नहीं कर पाएगी। लेकिन परिणाम कुछ उस तरह के आए जैसा भाजपा की ओर से दावे किए जा रहे थे। अब भाजपा की ओर से दावा किया जा रहा है आने वाले दिनों में कई चरणों में टीएमसी के विधायक भाजपा में शामिल होंगे और आने वाले विधानसभा चुनाव के बाद राज्य में भाजपा की सरकार बनेगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी अपने चुनावी अभियान के दौरान इस आशय के दावे किए थे कि टीएमसी के 40 विधायक भाजपा के संपर्क में हैं। लोकसभा चुनाव परिणामों की घोषणा के बाद टीएमसी विधायकों के भाजपा में शामिल होने की शुरुआत भी हो चुकी है और विधानसभा चुनावों तक की भाजपा की तैयारियों के दावे भी किए जा रहे हैं। ऐसे में स्वाभाविक है कि ममता को यह समझ में आ रहा हो कि आने वाले दिन उनके व उनकी पार्टी के लिए बड़े संकट वाले हो सकते हैं। इसीलिए उन्होंने अंतिम समय में समारोह में न शामिल होने का फैसला लिया हो। बहरहाल कारण चाहे जो हों, ममता की कभी हां और कभी ना ने राजनीतिक हलकों में नई बहस को तो जन्म दे ही दिया है।
(इस लेख में व्यक्त विचार, लेखक के निजी विचार हैं. आलेख में दी गई किसी भी सूचना की तथ्यात्मकता, सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं।)
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