
Jayaprakash Narayan Jayanti: JP आंदोलन से राष्ट्रवाद का उत्थान तो समाजवाद का पतन क्यों हो गया?
Jayaprakash Narayan Jayanti: इंदिरा गांधी द्वारा लगाई गई इमरजेंसी के खिलाफ जनता के संघर्ष को दूसरी आजादी की लड़ाई कहा जाता है। इस दूसरी आजादी के नायक जयप्रकाश नारायण यानी जेपी थे। आज जेपी की 124वीं जयंती है।

वैसे तो जेपी हर साल किसी न किसी रूप में याद किये जाते हैं लेकिन जेपी इन दिनों उन्हीं समाजवादी चिंतकों के निशाने पर हैं जिस समाजवाद के स्वयं जेपी शीर्ष पुरुष थे। भारतीय राजनीति की पिछले आठ साल से प्रमुख धुरी बनी भारतीय जनता पार्टी के उभार के लिए समाजवादी चिंतक अपने ही पुरोधाओं लोहिया और जेपी को जिम्मेदार ठहराने लगे हैं।
समाजवादी धारा के बुद्धिजीवी अब खुलकर कहने लगे हैं कि अगर जेपी ने सत्तर के दशक में तत्कालीन जनसंघ और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का साथ नहीं लिया होता तो राष्ट्रवादी धारा की राजनीति अपने मौजूदा मुकाम पर नहीं होती।
इंदिरा गांधी की पराजय को आपातकाल के काले अध्याय की समाप्ति के रूप में भी याद किया जाता है। संविधान प्रदत्त नागरिक अधिकारों का आपातकाल के दिनों में बर्बरतापूर्वक खात्मा किया गया था। जिसमें एक लाख से ज्यादा निर्दोष लोगों को आधिकारिक रूप से जेलों में ठूंस दिया गया था। पुलिसवालों और प्रशासनिक तंत्र ने आंतरिक सुरक्षा कानून की आड़ में जो देशव्यापी तांडव चलाया था, वह स्वाधीन भारत के इतिहास की अंधी खोह है।
इस अंधेरी खोह के लिए प्रकाश की किरण जयप्रकाश का तेजोमय चुंबकीय व्यक्तित्व रहा। जिसकी छाया में समाजवाद के बिखरे खेमों के साथ ही जनसंघ और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने आंदोलन की राह चुनी।
आपातकाल के खात्मे के बाद उपजे अंतरर्विरोधों और अंदरूनी राजनीति की वजह से जनसंघ ने अपनी अलग राह चुन ली। हालांकि उसके नए अवतार भारतीय जनता पार्टी ने समाजवाद का साथ नहीं छोड़ा। भारतीय जनता पार्टी का घोषित दर्शन एकात्म मानववाद के साथ गांधीवादी समाजवाद भी रहा है।
समाजवादी चिंतकों का दर्द है कि जेपी का साथ पाकर हाशिए पर पड़ी राष्ट्रीय धारा की राजनीति नई ऊर्जा से भर उठी। जिसकी बुनियाद पर आगे बढ़ते-बढ़ते वह राष्ट्रीय राजनीति की ना सिर्फ धुरी बन गई है, बल्कि अखिल भारतीय स्वरूप के साथ देश की सबसे पुरानी और स्वाधीनता आंदोलन की अगुआ कांग्रेस पार्टी के स्वाभाविक विकल्प के तौर पर उभर गई है।
ऐसा आरोप लगाते वक्त समाजवादी चिंतक इस बिंदु पर विचार नहीं करते कि आखिर क्या वजह रही कि समाजवादी साथ पाकर जनसंघ या उसका नव अवतार भारतीय जनता पार्टी राजनीतिक क्षितिज का सितारा बन गई, जबकि समाजवादी आंदोलन बिखरता चला गया?
सुधरो या टूट जाओ
समाजवाद के क्रांतिदूत राम मनोहर लोहिया ने समाजवादियों से कहा था कि सुधरो या टूट जाओ। लेकिन समाजवादियों ने सुधरनेवाली बात नही सुनी। उन्होंने टूटने वाला सिद्धांत अपनाया।
समाजवादी चिंतकों को आज इस पर कहीं ज्यादा गंभीरता से विचार करना चाहिए कि आखिर समाजवादियों ने लोहिया की एक ही सीख को क्यों स्वीकार किया? समाजवादी राजनीति में इतना बिखराव हुआ है कि उसकी अभिव्यक्ति के लिए एक हिंदी फिल्मी गीत का सहारा लिया जाने लगा, "इस दिल के टुकड़े हजार हुए, कोई यहां गिरा, कोई वहां गिरा।"
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समाजवादी राजनीति के जो गुटके नुमा धड़े बने, आखिर क्या वजह रही कि उनके अगुआओं ने उन्हें अपनी प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बना ली? समाजवादी चिंतकों को यह भी सोचना चाहिए कि भारतीय जनता पार्टी के उभार के पीछे समाजवादी धड़ों में पैठे परिवारवाद ने कितनी गहरी भूमिका निभाई है।
मानव स्वभाव है कि वह अपनी असफलताओं के लिए नीर-क्षीर मीमांसा करने की बजाय दूसरों को जिम्मेदार बताने लगता है। समाजवादी चिंतनधारा भी इसी सहज मानवीय स्वभाव को ही अभिव्यक्त कर रही है।
हकीकत तो यह है कि राष्ट्रीय धारा की राजनीति ने समाजवादी धारा से बहुत कुछ सीखा है। राष्ट्रीय धारा की राजनीति ने अपने प्रेरणा पुरूष दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद या अंत्योदय से ही प्रेरणा नहीं हासिल की है, बल्कि उसने गांधी, लोहिया और जेपी के परिवारवाद विरोधी दर्शन को भी आत्मसात किया है।
समाजवाद की प्राइवेट लिमिटेड कंपनियां
राष्ट्रीय धारा की राजनीति कम से कम पारिवारिक कंपनी के रूप में सीमित नहीं हुई है। उसके यहां अब भी संगठन है। हो सकता है कि वह संगठन कभी व्यक्ति केंद्रित हो जाए। लेकिन उसके मूल में व्यक्ति केंद्रित होना नहीं है।
उसका ढांचा ही ऐसा है कि उसे लोकोन्मुखी, विचारोन्मुखी और सैद्धांतिक बने रहना पड़ेगा। अगर वह इससे विचलित होती है तो उसका कैडर तमाम अनुशासनों को किनारे रखते हुए विरोध में खड़ा नजर आएगा।
इस धारा की राजनीति के कैडर के आत्मानुशासन की बुनियाद भी सांगठनिक सैद्धांतिकी पर ही केंद्रित है। इसकी तुलना में जयप्रकाश और लोहिया को जिम्मेदार ठहराने वाली समाजवादी सैद्धांतिकी और कैडर पर ध्यान दीजिए।
समाजवादी धारा में राष्ट्रीय धारा की तुलना में खुलापन ज्यादा है। लेकिन वह सिर्फ वैचारिकी और व्यापक सैद्धांतिक आधार वाले संगठन के बिखराव पर ज्यादा फोकस रहा। जबकि समाजवाद के प्राइवेट लिमिटेड गढ़ों के खिलाफ उसका सारा खुलापन पता नहीं कहां काफूर हो जाता है।
समाजवादी धारा की राजनीति के केंद्र में देश की करीब साठ प्रतिशत पिछड़ी और दलित आबादी रही है। लोहिया ने जब नारा दिया था, पिछड़े पावें सौ में साठ, तब जयप्रकाश सक्रिय राजनीति से दूर सर्वोदय और रचनात्मक आंदोलनों में सक्रिय थे। जबकि राष्ट्रीय धारा की राजनीति को मुख्य: शहर केंद्रित माना जाता था।
इसलिए जनसंघ और बाद में भाजपा को भी हाल के दिनों तक ब्राह्मण-बनिया की पार्टी कहा जाता था। यह बात और है कि कांग्रेस के पराभव के दिनों को छोड़ दें तो ब्राह्मण समुदाय का एकमुश्त समर्थन उसे ही हासिल होता था।
समाजवाद का प्रतिनिधित्व करता राष्ट्रवाद
आप कह सकते हैं कि राष्ट्रीय धारा की राजनीति में समाजवादी धारा की राजनीति से पिछड़ावाद की बुनियाद मजबूत करने की कोशिश की। इस पूरी प्रक्रिया में उसने अपने सवर्ण आधार को भी बनाए रखा और मध्यवर्ग प्रधान शहरी समाज को भी बचाए रखने की कोशिश की। उसने अपने सैद्धांतिक आधार के इस तरह मजबूत किया।
अपने अनुशासनबद्ध कैडर और ठोस सैद्धांतिकी की बुनियाद पर समाजवादी दर्शन का सहयोग लेकर जो राजनीतिक जमीन तैयार की, वह इतनी मजबूत हो चुकी है कि उसे चुनौती मिलती नहीं दिख रही। इसके लिए जयप्रकाश से ज्यादा उनके समाजवादी अनुयायी जिम्मेदार हैं।
हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की बुनियाद पर राष्ट्रीय धारा की राजनीति ने पिछड़े समाज में जबरदस्त पैठ बनाई है। वनवासी और मूल निवासी भी उसके बृहत्तर हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के दायरे में सहजता से समा चुके हैं।
परिवारवाद, वंशवाद और प्राइवेट लिमिटेडवाद की बजाय सामूहिकता और सांगठनिक अनुशासन के गोंद से राष्ट्रीय धारा की राजनीति ने जो ठोस राजनीतिक मिश्रण तैयार किया है, उससे समाजवादियों को सीख लेने की जरूरत है।
बेहतर होता कि जेपी को कोसने की बजाय वे इस तरह सोचते और कार्यक्रम बनाते। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या वे इस तरह सोचने की क्षमता भी रखते हैं?
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(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)