पश्चिम बंगाल में जमीन खिसकने के पीछे क्या खुद कम्युनिस्ट जिम्मेदार नहीं
नई दिल्ली। पश्चिम बंगाल को लेकर इस समय दो घटनाक्रम एक साथ चल रहे हैं। एक अंतिम चरण के पहले कोलकाता में हुई व्यापक हिंसक वारदातों के बाद चुनाव आयोग की कार्रवाई और सब कुछ दो पार्टियों टीएमसी व भाजपा के इर्दगिर्द केंद्रित हो जाना। दूसरा यह कि पश्चिम बंगाल में भाजपा को राजनीतिक जमीन वह माकपा प्रदान कर रही है जिसके नेतृत्व में इस राज्य में तीन दशक से ज्यादा तक सरकार रही है। अब इस चुनाव में यह आम चर्चा है कि माकपा के वोट भाजपा को ट्रांसफर हो रहे हैं और इसी से भाजपा को मजबूती मिल रही है। इसी के आधार पर यह दावे किए जा रहे हैं कि राज्य में इस लोकसभा चुनाव में भाजपा अब तक का अपना सर्वाधिक बेहतर प्रदर्शन करने जा रही है। वैसे ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि भाजपा की पूरी ताकत ही माकपा के मतदाता और समर्थक ही हैं।
भाजपा इस राज्य में लंबे समय से खुद को खड़ा करने की कोशिश में रही है। यह अलग बात है कि अभी तक उसे सफलता नहीं मिल सकी थी। लेकिन केंद्र में सरकार बनने के बाद से उसने अपना पूरा ध्यान पश्चिम बंगाल पर लगा रखा था। त्रिपुरा में भाजपा ने पिछले चुनाव में ही कम्युनिस्टों का गढ़ ध्वस्त कर दिया था। चुनाव करीब आते-आते कुछ ज्यादा ही इस राज्य पर केंद्रित कर दिया गया क्योंकि यहां से उसे कुछ ज्यादा आस इसलिए भी रही है कि उत्तर प्रदेश से होने वाले संभावित नुकसान की भरपाई पश्चिम बंगाल से की जा सकती है। इसीलिए बीते करीब तीन सालों में भाजपा ने वहां आक्रामक राजनीति करनी शुरू कर दी थी। इसका उसे कुछ लाभ भी मिला था पंचायत चुनावों में जब वह एक तरह से दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी। बीते लोकसभा और विधानसभा चुनावों में भी सीटें भले नहीं मिल पाई थीं, लेकिन उसका मत प्रतिशत बढ़ता रहा है। इसी आधार पर वह मानकर चल रही है और जो स्वाभाविक भी है कि इस लोकसभा में वह ममता बनर्जी को कड़ी टक्कर दे सकती है और ज्यादा सीटें जीत सकती है।
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ध्रुवीकरण दो पार्टियों भाजपा और टीएमसी के बीच
माकपा और अन्य कम्युनिस्ट दल इस दौरान लगातार कमजोर ही होते गए हैं। 2014 लोकसभा चुनाव में माकपा को पूरे देश में कुल नौ और पश्चिम बंगाल में मात्र दो सीटें मिल पाई थीं। इस चुनाव में हालांकि माकपा महासचिव सीताराम येचुरी का अपना दावा है कि उनकी पार्टी अच्छा प्रदर्शन करने जा रहा है, लेकिन राजनीतिक हालात यह बताते लगते हैं कि वहां पूरा ध्रुवीकरण दो पार्टियों भाजपा और टीएमसी के बीच ही है। हालांकि इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि राज्य में अभी भी टीएमसी और ममता बनर्जी बड़ी ताकत इसलिए मानी जाती हैं कि वह लगातार जीत कर आ रही हैं। लेकिन इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि ममता से नाराज भी एक अच्छा खासा हिस्सा है जिसे विकल्प की तलाश है और जो उसे कहीं मिलता नजर नहीं आ रहा था। इसलिए उसे भाजपा में संभावना दिखना स्वाभाविक है। जब विरोध की भावना को कम्युनिस्ट या कांग्रेस आवाज नहीं दे रहे हैं, तो उसका भाजपा की ओर जाना भी स्वाभाविक माना जा सकता है। आखिर उन्हें भी तो सुरक्षा और संरक्षा आदि चाहिए ही जो न कांग्रेस प्रदान कर पा रही है और न माकपा। तो विकल्प क्या बचता है। जहां इसका अवसर मिलेगा वहां ही कोई भी जाना चाहेगा।
माकपा कहीं भी हस्तक्षेपकारी भूमिका में भी नहीं
पश्चिम बंगाल में आज जो कुछ हो रहा है उसमें माकपा कहीं भी हस्तक्षेपकारी भूमिका में भी नहीं नजर नहीं आ रही है। इसके बजाय उसकी भूमिका समर्पणकारी की ज्यादा नजर आ रही है। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि जो पार्टी अपनी सरकार नहीं बचा सकी और जो अपने कार्यकर्ताओं को राजनीतिक रूप से सक्रिय नहीं रख सकी वह कैसे राजनीतिक रूप से लड़ सकेगी। इसके पीछे स्वाभाविक रूप से मजबूत कारण भी हैं। अगर इसकी पड़ताल की जाए तो इसके सूत्र काफी पहले से पकड़े जा सकते हैं। अब से कोई ढाई साल पहले माकपा की एक राजनीतिक थ्योरी आई थी जिसमें पार्टी के पूर्व महासचिव प्रकाश करात की ओर से कहा गया था कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा के केंद्र की सत्ता में आने मात्र से देश में फासीवाद आ गया है ऐसा नहीं है। करात ने तो यहां तक कह दिया था कि भाजपा फासीवादी पार्टी नहीं है। यह विचार उस बहस के बीच आया था जब इस चर्चा चल रही थी कि माकपा को कांग्रेस के साथ गठबंधन में जाना चाहिए।
हालांकि पार्टी के महासचिव सीताराम येचुरी के इस विचार के समर्थक नहीं थे, लेकिन पार्टी के भीतर यह भ्रम जरूर उत्पन्न हुआ। परिणाम भी यह हुआ कि पश्चिम बंगाल में माकपा का कांग्रेस के साथ गठबंधन नहीं हुआ। वहां माकपा ने अपना नंबर वन दुश्मन टीएमसी और ममता बनर्जी को ही घोषित कर रखा है जबकि कहा जा रहा था कि इन चुनावों में भाजपा के खिलाफ मोर्चा बनना चाहिए वह कांग्रेस और माकपा के बीच बन सकता है। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इसका परिणाम यह हुआ कि माकपा कार्यकर्ताओं और समर्थकों को यह समझ में ही नहीं आया कि वे क्या करें। ऐसे में इसे स्वाभाविक ही कहा जा सकता है कि ममता विरोधी होने के नाते वे भाजपा के करीब चले जाएं क्योंकि उन्हें इसकी भी संभावना शायद नहीं लग रही है कि माकपा इस चुनाव में कुछ अच्छा करने जा रही है। माकपा तो इस चुनाव को मजबूती के साथ लड़ती भी नहीं नजर आ रही है।
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अभी जो घटनाक्रम पश्चिम बंगाल में चल रहा है उसके खिलाफ भी माकपा की ओर से कोई सशक्त विरोध नहीं दिखाई पड़ रहा है। हालांकि पार्टी की ओर से हिंसा की निंदा की गई है और चुनाव आयोग की कार्रवाइयों का विरोध किया गया है। लेकिन ऐसा कुछ हस्तक्षेपकारी नहीं किया गया है जिससे लगे कि वहां लोकतंत्र को किसी तरह का संकट खड़ा हो रहा है। ईश्वरचंद्र विद्यासागर की प्रतिमा तोड़े जाने का भी विरोध किया गया लेकिन वह प्रतीकात्मक ही ज्यादा नजर आया। ऐसा लगता है कि या तो माकपा यह मानकर चल रही है कि तृणमूल विरोधी वोट उसे अपने आप ही मिल जाएंगे या उसे यह आभास हो गया है कि वह कुछ नहीं कर सकती और सब कुछ हालात पर छोड़ दिया है। संभवतः इसीलिए राजनीतिक हलकों में यहां तक कहा जाने लगा है कि अगर पश्चिम बंगाल में भाजपा को ज्यादा सीटें मिल जाती हैं अथवा वोट प्रतिशत बढ़ जाता है तो इसके लिए माकपा भी कम जिम्मेदार नहीं होगी।
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