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यूपी विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का प्रदर्शन क्यों खराब होता चला गया? मंडल-कमंडल के भंवर में कैसे डूबा हाथ

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लखनऊ, 24 नवंबर। उत्तर प्रदेश में पहला विधानसभा चुनाव 1951 में हुआ था जिसमें कांग्रेस ने 388 सीटों पर जीत हासिल की थी। 2017 में हुए यूपी चुनाव में कांग्रेस को मात्र 7 सीटें मिलीं। इन्हीं दो आंकड़ों से पता चलता है कि उत्तर प्रदेश के चुनाव में कांग्रेस ने अपना वजूद खो दिया। 2022 में कांग्रेस अपना वजूद तलाशने के लिए संघर्ष कर रही है और पार्टी की राष्ट्रीय महासचिव प्रियंका गांधी हर दांव आजमाने में लगी हैं। प्रदेश के चुनावी इतिहास में कांग्रेस की जीती हुई सीटों पर एक नजर डालें तो ये आंकड़े ही पार्टी के पतन की कहानी कहते हैं। कांग्रेस को 1951 के चुनाव में 388, 1957 में 286, 1962 में 249, 1967 में 199, 1969 में 211, 1974 में 215, 1977 में 47, 1980 में 309, 1985 में 269, 1989 में 94, 1991 में 46, 1993 में 28, 1996 में 33, 2002 में 25, 2007 में 22, 2012 में 28 और 2017 के चुनाव में 7 सीटें मिलीं। कांग्रेस की सीटों में दो बड़ी गिरावट 1974 और 1989 के बाद देख सकते हैं। ये दोनों गिरावट यूपी की राजनीति में दो बड़े बदलाव की कहानी कहते हैं। साथ ही 1967 के बाद कांग्रेस टूटती-फूटती चली गई जिसकी वजह से पार्टी पतन की ओर गई। आइए उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के चुनावी प्रदर्शन के बारे में विस्तार से जानते हैं।

पहले तीन चुनाव में कांग्रेस की सरकार

पहले तीन चुनाव में कांग्रेस की सरकार

1951 में उत्तर प्रदेश के पहले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 388 सीटें जीती थी और पंडित गोविंद वल्लभ पंत मुख्यमंत्री बने थे। पंडित गोविंद वल्लभ पंत को जब 1954 में केंद्रीय मंत्री बनाया गया था तो संपूर्णानंद उनकी जगह मुख्यमंत्री बने थे। 1957 के चुनाव में कांग्रेस को 286 सीटें मिली थी और संपूर्णानंद फिर से मुख्यमंत्री बने थे। 1960 में पहले चंद्र भानु गुप्ता और उनके बाद 1963 में सुचेता कृपलाणी मुख्यमंत्री बनी थीं। 1967 के चुनाव में कांग्रेस ने 199 सीटें हासिल की थी लेकिन इसके बाद पार्टी में टूट-फूट शुरू हुई जो आगे भी चलती रही। 1967 के चुनाव में भाजपा की मदर पार्टी भारतीय जन संघ ने 98 सीटें झटकी थीं। जाट नेता और छपरौली विधायक चौधरी चरण सिंह कांग्रेस से अलग हो गए और भारतीय क्रांति दल बना ली थी। चौधरी चरण सिंह ने समाजवादी, वामपंथी, निर्दलीय और भारतीय जनसंघ जैसे दक्षिणपंथ दल के सहयोग से यूपी में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनाई थी। संयुक्त विधायक दल के नाम से गठबंधन बना था जिसमें सीपीआई(एम), भारतीय जनसंघ, रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया, स्वतंत्र पार्टी, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और 22 निर्दलीय शामिल थे। संयुक्त विधायक दल की सरकार में चौधरी चरण सिंह मुख्यमंत्री बने थे। यह सरकार अंदरूनी कलह की वजह से टिक नहीं पाई थी और 1969 में फिर से यूपी में चुनाव हुए थे।

1969 में फिर हुई कांग्रेस में टूट, इंदिरा गांधी ने बनाई कांग्रेस (आर)

1969 में फिर हुई कांग्रेस में टूट, इंदिरा गांधी ने बनाई कांग्रेस (आर)

1969 के चुनाव में कांग्रेस ने 211 सीटों पर जीत हासिल की थी। चौधरी चरण सिंह की पार्टी भारतीय क्रांति दल को 98 सीटें और भारतीय जनसंघ को 49 सीटें मिली थी। कांग्रेस ने सरकार बनाई थी जिसके मुख्यमंत्री चंद्र भानु गुप्ता बने थे। लेकिन एक साल के अंदर ही कांग्रेस में बड़ी टूट हो गई थी। इंदिरा गांधी ने कांग्रेस (आर) के नाम से नई पार्टी बनाई थी जिसको न्यू कांग्रेस कहा गया। जो कांग्रेस बच गई, उसका नाम कांग्रेस (ओ) रखा गया था। कांग्रेस (आर) के सहयोग से भारतीय क्रांति दल ने सरकार बना ली और चौधरी चरण सिंह फिर से मुख्यमंत्री बने थे। दोनों पार्टियों का साथ ज्यादा समय तक नहीं चल पाया और राष्ट्रपति शासन लगने के बाद संयुक्त विधायक दल की सरकार बनी थी जिसमें कांग्रेस (ओ) शामिल थी। इस सरकार में मुख्यमंत्री त्रिभुवन नारायण सिंह बने थे। वे उपचुनाव जीत नहीं पाए थे और उनके इस्तीफे के बाद इंदिरा गांधी की कांग्रेस पार्टी के नेता कमलापति त्रिपाठी सीएम बने थे। जून 1973 में हुए पीएसी विद्रोह के बाद राष्ट्रपति शासन लगा और हटने के बाद नवंबर 1973 में कांग्रेस (इंदिरा) नेता हेमवती नंदन बहुगुणा सीएम बने थे।

1974 के चुनाव में फिर सत्ता में आई इंदिरा कांग्रेस

1974 के चुनाव में फिर सत्ता में आई इंदिरा कांग्रेस

कांग्रेस (ओ) पार्टी का विलय बाद में जनता पार्टी में हो गया था और इंदिरा के नेतृत्व में जो दल बचा वही कांग्रेस के नाम से जानी जाने लगी। 1974 के चुनाव में कांग्रेस ने 215 सीटों पर जीत हासिल की थी और हेमवती नंदन बहुगुणा फिर से सीएम बने थे। संजय गांधी से मतभेदों की वजह से उनको नवंबर 1975 में इस्तीफा देना पड़ा था। इसके बाद संजय गांधी के करीबी नारायण दत्त तिवारी मुख्यमंत्री बने थे। 1975 से 1977 के बीच ही जय प्रकाश नारायण के आंदोलन के बाद इंदिरा गांधी की सरकार ने आपातकाल लगाया था। आपातकाल का समय विरोधी दल के नेताओं के दमन, प्रेस पर प्रतिबंध समेत अन्य ज्यादतियों के लिए बदनाम हुआ और इंदिरा के नेतृत्व वाली कांग्रेस को आने वाले चुनाव में भारी नुकसान का सामना करना पड़ा। कांग्रेस के विरोध में खड़ी हुई जनता पार्टी ने आपातकाल के बाद हुए लोकसभा चुनाव में केंद्र में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनाई थी, मोरारजी देसाई पहले गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री बने थे।

1977 में कांग्रेस को जनता पार्टी की सरकार ने दी पटखनी

1977 में कांग्रेस को जनता पार्टी की सरकार ने दी पटखनी

केंद्र की जनता पार्टी की सरकार ने उत्तर प्रदेश की कांग्रेस सरकार को बर्खास्त कर दिया था। राष्ट्रपति शासन लगने के बाद 1977 में हुए यूपी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 47 सीटों पर सिमट गई थी और जनता पार्टी ने 352 सीटें जीतकर प्रचंड बहुमत हासिल की थी। लेकिन जनता पार्टी के नेता मुख्यमंत्री पद को लेकर भिड़ गए और आखिरकार रामनरेश यादव मुख्यमंत्री बने थे। इसी सरकार में भारतीय जनसंघ नेता कल्याण सिंह कैबिनेट मंत्री थे। मुलायम सिंह यादव भी इसी सरकार में सहकारिता मंत्री थे। रामनरेश यादव के विश्वास मत खोने के बाद बनारसी दास नए सीएम बने थे। 1980 में हुए देवरिया नारायणपुर में पुलिसिया जुल्म के बाद केंद्र की सत्ता में लौटी इंदिरा सरकार ने यूपी की जनता सरकार को बर्खास्त कर दिया था। केंद्र में इंदिरा सरकार की वापसी के बाद 1980 में हुए यूपी विधानसभा चुनाव में फिर से कांग्रेस 309 सीट लेकर आई थी और वीपी सिंह मुख्यमंत्री बने थे।

1980 के चुनाव में कांग्रेस को प्रचंड बहुमत

1980 के चुनाव में कांग्रेस को प्रचंड बहुमत

1980 के यूपी विधानसभा चुनाव में 309 सीटें लाकर कांग्रेस ने वीपी सिंह की सरकार बनाई थी। वीपी सिंह मुख्यमंत्री पद पर फर्जी मुठभेड़ और कानून-व्यवस्था के खराब होने की वजह ज्यादा समय तक नहीं टिक पाए थे। उनके कार्यकाल में ही 1981 में डकैत फूलन देवी ने बेहमई में 20 राजपूतों की हत्या की थी। 1982 में डकैतों ने वीपी सिंह के बड़े भाई जस्टिस चंद्रशेखर प्रताप सिंह की भी हत्या कर दी जिसके बाद वीपी सिंह ने इस्तीफा दिया था। उनकी जगह श्रीपति मिश्रा मुख्यमंत्री बने थे। 1984 में श्रीपति मिश्रा को हटाकर कांग्रेस ने नारायण दत्त तिवारी को फिर से मुख्यमंत्री बनाया था। 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए 1985 के चुनाव में कांग्रेस 269 सीटों पर जीती थी। नारायण दत्त तिवारी फिर से सीएम बने थे लेकिन कुछ महीने बाद ही राजीव गांधी ने उनको हटाकर ठाकुर वीर बहादुर सिंह को मुख्यमंत्री बनाया था। वीर बहादुर सिंह ही वह सीएम थे जिन्होंने वीएचपी की मांग पर बाबरी मस्जिद के गेट का ताला खुलवाया था और इस एक फैसले को आगे आने वाले चुनावों में कांग्रेस की सीटों में गिरावट के लिए बड़ी वजह माना जाता है। जून 1988 में फिर एनडी तिवारी मुख्यमंत्री बनाए गए तो उन्होंने 1989 में विश्व हिंदू परिषद को विवादित बाबरी मस्जिद परिसर में राम मंदिर के लिए शिलान्यास कार्यक्रम करने की अनुमति दे दी थी। जिस हिंदू वोट के लिए कांग्रेस के हाईकमान ने यह सब किया था, वही कुछ सालों बाद कांग्रेस को भारी पड़ गया। वहीं कांग्रेस से बगावत कर पहले जन मोर्चा और बाद में जनता दल बनाने वाले वीपी सिंह ने 1989 में केंद्र में सरकार बनाई थी। 1989 में हुए यूपी विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस ने खराब प्रदर्शन किया और 94 सीटें जीती जबकि जनता दल ने 208 सीटें हासिल की थी। भाजपा को इस चुनाव में 57 सीटें मिली थीं।

1989 के बाद मंडल-कमंडल राजनीति के बीच डूब गई कांग्रेस

1989 के बाद मंडल-कमंडल राजनीति के बीच डूब गई कांग्रेस

1989 के यूपी चुनाव में जीत हासिल कर भाजपा के समर्थन से बनी जनता दल की सरकार में मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बने थे। जब लाल कृष्ण आडवाणी की राम रथ यात्रा को बिहार के समस्तीपुर में अक्टूबर 1990 को तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने रोक दिया था तब भाजपा ने केंद्र की वीपी सिंह सरकार और यूपी की मुलायम सरकार से समर्थन वापस ले लिया था। दोनों सरकारें गिर गई थीं और जनता दल टूट गई थी। चंद्रशेखर ने जनता दल (सोशलिस्ट) बनाया था और कांग्रेस की मदद से केंद्र में प्रधानमंत्री बन गए थे। उत्तर प्रदेश में तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव भी जनता दल (एस) के साथ चले गए और यहां भी कांग्रेस की मदद से सरकार बनाई थी। केंद्र में चंद्रशेखर और कांग्रेस का साथ ज्यादा समय तक नहीं चला था। कुछ महीनों बाद कांग्रेस ने केंद्र की चंद्रशेखर सरकार से समर्थन वापस ले लिया था। इधर उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस समर्थन वापस लेने ही वाली थी कि इससे पहले ही मुलायम सिंह यादव ने राज्यपाल को इस्तीफा सौंप दिया था। मुलायम के कार्यकाल में ही अयोध्या में जमा हुए कारसेवकों पर पुलिस ने गोली चलाई थी। 1991 में हुए चुनाव में राम मंदिर आंदोलन की लहर पर सवार होकर ओबीसी कास्ट के नेता कल्याण सिंह के नेतृत्व में भाजपा ने 425 में से 221 सीटों पर जीत हासिल की थी। इस चुनाव में कांग्रेस को सिर्फ 46 सीटें मिली थी।

फिर कभी यूपी की राजनीति में उभर नहीं पाई कांग्रेस

फिर कभी यूपी की राजनीति में उभर नहीं पाई कांग्रेस

1991 के चुनाव में कांग्रेस को 46 सीटें, 1993 चुनाव में 28, 1996 में 33, 2002 में 25, 2007 में 22, 2012 में 28 और 2017 के चुनाव में 7 सीटें मिली। मंडल-कमंडल राजनीति के भंवर में फंसी कांग्रेस अपने लिए कोई रास्ता नहीं निकाल पाई और यूपी की राजनीति में अपना वजूद खो बैठी। 1991 के बाद उत्तर प्रदेश की चुनावी राजनीति में भाजपा, सपा और बसपा का उभार हुआ। कल्याण सिंह, मायावती और मुलायम सिंह यादव 1991 के बाद यूपी की राजनीति के सितारे बन गए। इस राजनीतिक प्रतिस्पर्द्धा में कांग्रेस कहीं टिक नहीं पाई। 1991 के बाद के चुनावों में ओबीसी, दलित और मुस्लिमों के समीकरण से भाजपा को भी नुकसान हुआ था। 1991 से 2017 के बीच की राजनीति पर विस्तार से आलेख (यूपी चुनाव में 1991-2012 तक कैसे हुआ भाजपा की सीटों का पतन, क्यों नहीं चल पाया राम मंदिर और हिंदुत्व कार्ड) में पढ़ सकते हैं। बहरहाल, 2022 के चुनावों में कांग्रेस में फिर से जान फूंकने के लिए प्रियंका गांधी जोर लगा रही हैं। 2022 का चुनावी मुकाबला भी भाजपा और सपा के बीच माना जा रहा है। कांग्रेस का भविष्य आगे क्या होगा, इस बारे में अभी कुछ कहा नहीं जा सकता है।

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English summary
History of Congress party performance in Uttar Pradesh election
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