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क्या यूपी में इस बार दलित वोटरों के पास है सत्ता की चाबी ? जानिए कैसे बदल गया है चुनावी समीकरण

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लखनऊ, 18 जनवरी: यूपी में पिछले तीन विधानसभा चुनावों से सरकार उसी पार्टी की बन रही है, जो सुरक्षित सीटों पर बढ़त बना लेती है। इस बार भी ऐसा नहीं होगा, इसकी कोई संभावना नहीं दिख रही है। लेकिन, उत्तर प्रदेश में इस बार दलित मतदाताओं के वोटिंग पैटर्न बदलने की संभावनाएं जरूर पैदा हो रही हैं। इसलिए, बाजी उसी के हाथ में जा सकती है, जिसके पक्ष में दलित वोटर जाएंगे। हम यहां सिर्फ आंकड़ों की जुबानी यह बात रखने की कोशिश कर रहे हैं कि इस बार यूपी चुनाव में दलित मतदाताओं की वजह से चुनावी समीकरण किस तरह से बन सकता है।

यूपी में दलित वोटरों के पास क्या है विकल्प ?

यूपी में दलित वोटरों के पास क्या है विकल्प ?

उत्तर प्रदेश में इस बार के चुनाव में निर्विवाद रूप से अभी तक बसपा सुप्रीमो मायावती बहुत ही कम सक्रिय नजर आ रही हैं। कभी उन्होंने फंडिंग की कमी की बात कही तो बाद में कोविड प्रोटोकॉल की वजह से रैलियों पर रोक लग गई। उनकी जगह पार्टी महासचिव और ब्राह्मण चेहरा सतीश चंद्र मिश्र ही सार्वजनिक तौर पर ज्यादा दिखाई पड़े हैं। वजह जो भी है, लेकिन यह साफ है कि प्रदेश में दलितों वोटों की जादूगर मानी जाती रहीं, बीएसपी अध्यक्ष अभी तक चुनाव में गंभीरता नहीं दिखा रही हैं। ऐसे में सवाल है कि अगर बीएसपी का कोर वोटर इस वजह से कोई नया विकल्प तलाशेगा वह किस ओर रुख करेगा ?

यूपी में दलितों की आबादी

यूपी में दलितों की आबादी

आगे बढ़ने से पहले प्रदेश में दलित वोटों का समीकरण देख लेते हैं। यूपी में दलितों का वोट 21% से अधिक है। इनमें से सबसे ज्यादा यानी 55% अकेले जाटव हैं। मायावती इसी समाज की हैं और अबतक जाटव वोटर उन्हीं के नाम पर मतदान करता आया है। इसके बाद पासी और कन्नौजिया, धोबी समाज की आबादी है। ये दोनों ही लगभग-16-16% हैं। फिर कोल 4.5%, धानुक 1.5%, वाल्मीकि 1.3%, खटिक 1.2% और बाकी दूसरी दलित जातियों की जनसंख्या करीब 4.5% आती है।

किस ओर रहा है दलित वोटरों का झुकाव ?

किस ओर रहा है दलित वोटरों का झुकाव ?

पिछले कुछ चुनावों से जो ट्रेंड देखा जा रहा है उसके हिसाब से जाटव वोट अगर बीएसपी को जाते रहे हैं तो पासी-धोबी और वाल्मीकियों का झुकाव बीजेपी की ओर रहा है। खटिकों के बारे में कहा जाता है कि वो या तो भाजपा के साथ जाते हैं, या फिर अपनी जाति के उम्मीदवारों के लिए ही वोट करते हैं। कन्नौजिया, कोल और धानुकों का वोट कई दलों में विभाजित होता रहा है। आमतौर पर मुस्लिम-यादव समीकरण के भरोसे चुनाव लड़ने वाली समाजवादी पार्टी इस बार दलित वोटों पर भी नजरें गड़ाए हुए है। उसे लगता है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा से गठबंधन करके सीटों में भले ही उसे फायदा नहीं मिला हो, लेकिन दलित वोटरों के मन में उसके खिलाफ पहले वाली भावना नहीं बची है। दलितों की दूरी मिटाने के लिए उसने हाल ही में पासी समाज के नेताओं जैसे कि इंद्रजीत सरोज और आरके चौधरी को भी साइकिल थमा दी है।

जाटव वोटर किसके पक्ष में झुकेंगे ?

जाटव वोटर किसके पक्ष में झुकेंगे ?

बीएसपी में पार्टी सुप्रीमो मायावती की सक्रियता कम दिखाई पड़ने की वजह से दलित वोटरों खासकर जाटवों ने अगर दूसरी पार्टी में विकल्प चुना तो प्रदेश का पूरा चुनावी समीकरण ही इधर से उधर हो सकता है। क्योंकि, अकेले जाटव वोटर ही 11% के आसपास हैं। इस वोट बैंक पर बीजेपी की नजर बहुत पहले से लगी हुई है। उत्तराखंड की पूर्व राज्यपाल बेबी रानी मौर्य को पार्टी ने यूपी की सक्रिय राजनीति में वापस उतारा है तो उसने पूरी रणनीति तैयार कर रखी है। बेबी रानी मौर्य भी उसी जाटव समाज से हैं, जिससे मायावती हैं। वह 1995 में आगरा की मेयर भी रह चुकी हैं। बीजेपी ने यूपी में जो पहली 107 उम्मीदवारों की लिस्ट जारी की है, उनमें पार्टी की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बेबी रानी मौर्य समेत कुल चार जाटव प्रत्याशी हैं। मौर्य आगरा (सुरक्षित) सीट से चुनाव लड़ रही हैं तो बाकी तीन जाटव प्रत्याशी उसके सीटिंग विधायक हैं। ये हैं- आगरा कैंट से जीएस धर्मेश, मथुरा की बलदेव से पूरन प्रकाश जाटव और अलीगढ़ की इगलास सीट से राज कुमार सहयोगी।

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यूपी में इस बार दलित वोटरों के पास है सत्ता की चाबी ?

यूपी में इस बार दलित वोटरों के पास है सत्ता की चाबी ?

अब एक नजर इन आंकड़ों पर डालते हैं कि यूपी में पिछले तीन विधानसभा चुनावों में दलित सीटों ने किस पार्टी का समर्थन किया है। 2007 में प्रदेश में कुल 89 सुरक्षित सीटें थीं, जिसमें से बीएसपी को 61, सपा को 13, बीजेपी को 7, कांग्रेस को 5 सीटें मिली थीं और बाकी अन्य दलों और निर्दलीयों ने जीती थी। 2012 में सिर्फ 85 सुरक्षित सीटों के लिए चुनाव हुए, जिसमें सपा को 59, बसपा को 14, कांग्रेस को 4, बीजेपी-आरएलडी को 3-3 और दो निर्दलीयों को मिले। वहीं 2017 के चुनाव में 84 सुरक्षित सीटों सीटों में से बीजेपी 71 जीत गई और उसकी सहयोगी अपना दल (सोनेलाल) को एक सीट और तबकी सहयोगी सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी को तीन सीटें मिलीं, तो सपा को 6 और बीएसपी को 2 सीटें मिलीं और 1 पर निर्दलीय प्रत्याशी जीता। साफ है कि यूपी में पिछले तीन चुनावों का ट्रेंड यही बताता है कि जिस पार्टी ने भी सुरक्षित सीटों पर बाजी मारी है, लखनऊ की सत्ता की चाबी उसे ही मिलती है।

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English summary
In the Uttar Pradesh elections 2022, only the Dalit voters may hold the key to power, the one who won the reserved seats in the last three elections, formed the government in Lucknow
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