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यूपी चुनाव 2022: अखिलेश यादव नहीं दोहरा रहे 2017 वाली गलतियां, BJP के सामने खड़ी की हैं बड़ी चुनौतियां

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लखनऊ, 20 जनवरी: पांच वर्ष तक सत्ता से दूर रहकर समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने इस चुनाव के लिए अभी तक जिस तरह से बिसात बिछाई है, उससे लगता है कि अब वह अपने पिता की राजनीतिक विरासत की छांव से आगे निकल चुके हैं। उन्होंने अपने दम पर कई ठोस फैसले लिए हैं। बहुत ही सोच-समझकर चुनावी रणनीतियां तैयार की हैं। वह जिस तरह की योजनाओं पर काम कर रहे हैं, उससे लगता है कि उन्होंने 2017 की गलतियों से जरूर सबक ली है और उसे फिर से नहीं दोहराने की ठान ली है।

परिवारवाद के आरोपों से पीछा छुड़ाने की पहल

परिवारवाद के आरोपों से पीछा छुड़ाने की पहल

अखिलेश यादव की भाभी अपर्णा यादव बीजेपी में गई हैं तो इससे सपा को परिवारवाद के आरोपों से छुटकारा पाने का भी मौका मिला है। अपर्णा पिछला चुनाव हार गई थीं। जानकारी के मुताबिक वह फिर से लखनऊ कैंट से दावेदारी जता रही थीं। कहा जा रहा है कि अखिलेश तैयार नहीं हुए तो अपर्णा ने बीजेपी का रुख कर लिया। सपा ने अभी तक जितने भी टिकट बांटे हैं, उसमें मुलायम के परिवार का कोई सदस्य शामिल नहीं है। पहले की तरह सार्वजनिक सभाओं या प्रेस कांफ्रेंस में भी अखिलेश के साथ उनका कोई चाचा या भाई-भतीजा नजर नहीं आता। जानकार बताते हैं कि शिवपाल यादव तो किसी भी तरह से सपा के साथ आने के लिए छटपटा रहे थे। लेकिन, सपा अध्यक्ष जानते थे कि विलय का मतलब है कि चाचा शिवपाल और उनके बेटे आदित्य यादव को सपा से टिकट देने का दबाव। इसलिए उन्होंने गठबंधन करने में ही भलाई समझी।

सिर्फ यादवों की पार्टी वाली छवि बदलने की कोशिश

सिर्फ यादवों की पार्टी वाली छवि बदलने की कोशिश

समाजवादी पार्टी नेतृत्व को यह अंदाजा हो चुका है कि भाजपा की मजबूती का बहुत बड़ा कारण गैर-यादव पिछड़ी जातियों में उसके पीछे गोलबंदी है। क्योंकि, पिछले चुनाव तक सपा का चुनावी पैटर्न एमवाई (माय) समीकरण (मुस्लिम-यादव) पर आधारित होता था। लेकिन, बाकी पिछड़ी जातियों को अपने साथ करके बीजेपी ने इनकी राजनीति की दशा और दशा बिगाड़ दी है। इसलिए अखिलेश यादव ने पहले छोटी-छोटी जाति आधारित नेताओं की पार्टी के साथ गठबंधन किया, फिर बीजेपी और बसपा से कई दिग्गज गैर-यादव ओबीसी चेहरों को अपने साथ जोड़ा। आज की तारीख में समाजवादी पार्टी के पास सिर्फ यादव चेहरों की जगह गैर-यादव पिछड़े चेहरों की भी बहुतायत हो चुकी है।

मुसलमानों के प्रति रणनीति में भी बदलाव

मुसलमानों के प्रति रणनीति में भी बदलाव

2013 का मुजफ्फरनगर दंगा समाजवादी पार्टी को सियासी तौर पर बहुत ही ज्यादा महंगा पड़ चुका है। आज सपा-रालोद के गठबंधन ने मुजफ्फरनगर से एक भी मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट देने से कन्नी काट लिया है। इसको लेकर मुस्लिमों के एक वर्ग में नाराजगी भी है, लेकिन अखिलेश यादव ने बहुत ही ज्यादा राजनीतिक साहस दिखाने का काम किया है। सपा में मुस्लिमों को लेकर बदली रनणीति का सबसे बेहतरीन उदाहरण पश्चिमी यूपी के कद्दावर लेकिन विवादित नेता इमरान मसूद हैं। जिन्हें अखिलेश ने कांग्रेस से सपा में स्वागत तो किया, लेकिन टिकट देने से मना कर दिया। बाद में उनका एक वीडियो वायरल हुआ, जिसमें वह अपनी नाराजगी जाहिर करते सुनाई पड़ रहे थे। यानी सिर्फ मुसलमान होना अभी सपा में अखिलेश का आशीर्वाद पाने की गारंटी नहीं है।

वापस पिछड़ों की राजनीति पर फोकस

वापस पिछड़ों की राजनीति पर फोकस

अखिलेश यादव ने इस चुनाव में न सिर्फ गैर-यादव ओबीसी चेहरों को तरजीह दी है, बल्कि पिछड़ों को गोलबंद करने की भी हर संभव कोशिश की है। वह बार-बार सरकार बनने पर जाति आधारित जनगणना की बात कह रहे हैं। इसकी आधिकारिक स्थिति चाहे जो भी हो, उनका संदेश साफ है कि वह मंडल युग वाली राजनीति की भावना को उभारने के प्रयास में जुटे हैं। उनके सहयोगी सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के ओमप्रकाश राजभर सामाजिक न्याय की धुन बजा रहे हैं तो अभी-अभी मंत्री पद छोड़कर बीजेपी से सपा में आए स्वामी प्रसाद मौर्य 85 बनाम 15 और 15 में भी हमारी जैसे नारे उछाल कर बीजेपी के सबसे मजबूत किले को ध्वस्त करना चाह रहे हैं।

भरोसेमंद उम्मीदवारों पर ही दांव

भरोसेमंद उम्मीदवारों पर ही दांव

इस बार के चुनाव में अखिलेश यादव ने शुरू से टिकट देने के लिए उम्मीदवारों के जीतने के पैमाने को अहमियत देने की रणनीति अपनाई है। जानकारी के मुताबिक उन्होंने काफी पहले से पार्टी के संभावित उम्मीदवारों की लोकप्रियता का सर्वे भी करवा कर रखा है। यानी सिर्फ यादव और मुस्लिम होना सपा में टिकट की गारंटी अब नहीं है। जाति और धर्म की प्रोफाइल के अलावा प्रत्याशियों की उस क्षेत्र से चुनाव जीतने की क्षमता को भी तबज्जो दी जा रही है।

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सुरक्षित सीटों पर भी खास फोकस

सुरक्षित सीटों पर भी खास फोकस

सपा उत्तर प्रदेश में पहले सुरक्षित सीटों पर खास फोकस नहीं करती थी। लेकिन, 2022 में उसने अपनी इस गलती को सुधारने की कोशिश की है। पिछले कुछ महीनों में अखिलेश यादव ने बसपा के नेताओं को सपा में लाने की जो लाइन लगाई है, उसका मकसद सुरक्षित सीटों पर पार्टी का जनाधार मजबूत करना है। इन सीटों पर बीएसपी से आए नेताओं पर दांव लगाकर पार्टी बाजी पलटने की कोशिश में है। क्योंकि, पिछले तीन चुनावों में उसी पार्टी की सरकार बनी है, जो सबसे ज्यादा सुरक्षित सीटें जीतने में सफल रही हैं।

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English summary
UP Election 2022: Akhilesh Yadav has prepared strategies this time by learning from the 2017 elections, Samajwadi Party has gone far beyond thinking of Yadav-Muslim equation alone
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