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फ़लस्तीनी और यहूदियों को क्यों है भारत से इतना प्रेम?

इसराइल में मौजूद हैं महात्मा गांधी से लेकर बॉलीावुड तक के चाहने वाले. ज़ुबैर अहमद का ब्लॉग.

By BBC News हिन्दी
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यरूशलम
AFP
यरूशलम

अगर आपसे दो व्यक्ति एक ही तरह से प्यार करें तो आप किसे चुनेंगे? किसकी तरफ़ आपका झुकाव अधिक होगा?

ये एक कठिन सवाल है जिसका प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सामना कर रहे हैं. भारत की विदेश नीति बनाने वालों को भी ये मुद्दा सता रहा है.

पिछले दिनों मैंने भी इसराइल में इस सवाल को महसूस किया. वहां 10 दिनों तक रहने के बाद अहसास हुआ कि फ़लस्तीनी अरब भी उतने ही भारत प्रेमी हैं, जितने यहूदी.

जैसे ही लोगों को पता चलता कि मैं और मेरे सहयोगी दीपक जसरोटिया भारत से आए हैं तो लोगों की प्रतिक्रिया बदल जाती. उनके चेहरे पर मुस्कराहट छा जाती, रवैया नरम हो जाता और अंदाज़ दोस्ताना.

इसराइल
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भारत से है प्रेम

कुछ ऐसे अंदाज़ आपके लिए पेश-ए ख़िदमत हैं.

हम दोनों एक प्राथमिक विद्यालय में गए, जहाँ 10 साल से कम उम्र के छात्रों को जब पता चला कि हम दोनों भारत से आए हैं तो एक लड़की ने बार-बार शाहरुख ख़ान कहना शुरू कर दिया. दूसरे ने बॉलीवुड की कुछ फिल्मों के नामों को गिनाना शुरू कर दिया. वो सभी बच्चे फ़लस्तीनी थे.

यरूशलम के जिस होटल में हमारा पड़ाव था, उसका मालिक यहूदी था लेकिन मैनेजर और वेटर इत्यादि फ़लस्तीनी.

एक दिन मैनेजर ने भारत के बारे में बात छेड़ दी. उसने कहा कि भारत से उसे बेहद प्रेम है. मैंने पूछा आप भारत हो आए? उसने कहा- कई बार. वे ताजमहल से लेकर मनाली और गोआ तक जा चुके थे.

एक दूसरे फ़लस्तीनी मिले, जो बॉलीवुड के दीवाने निकले. उन्होंने राज कपूर से लेकर रणबीर कपूर तक सभी की जानकारी दे दी. उन्हें हिंदी गानों का भी बेहद शौक़ था.

फलस्तीनी
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फलस्तीनी

बॉलीवुड की वजह से भारत लोकप्रिय?

मैंने महसूस किया कि फ़लस्तीनी अरबों में भारत की लोकप्रियता का राज़ बॉलीवुड की फ़िल्में थीं.

लेकिन अगर आप 50 साल से अधिक उम्र के लोगों से बातें करें तो महात्मा गाँधी का नाम चर्चा में ज़रूर शामिल होता है. जहां आए दिन इतनी हिंसा होती रहती है.

वहां अहिंसा का प्रचारक इतना लोकप्रिय कैसे? मुझसे एक प्रोफेसर ने कहा कि इस देश में गाँधी जी और उनके सिद्धांतों की ज़रूरत है.

ये तो बात हुई फ़लस्तीनी अरबों की. इसराइली यहूदी भी भारत से कम प्यार नहीं करते. पहले तो उन्हें जब पता चलता कि हम भारतीय हैं तो दोनों हाथ जोड़ कर नमस्ते करते.

हमें इसका अहसास बार-बार हुआ कि यहूदियों की नज़र में भारत एक महान देश है और वो इसलिए भारत को अज़ीम नहीं मानते क्यूंकि उनके प्रधानमंत्री बेंजमिन नेतन्याहू ऐसा कहते हैं.

बल्कि इसलिए कि वो भारत के लोकतंत्र की क़दर करते हैं. इसके बहुसंस्कृति वाले समाज को सलाम करते हैं. हां एक व्यक्ति ऐसा भी मिला, जिसने पिछले कुछ सालों में भीड़ के बेक़सूर नागरिकों को पीट-पीट कर मार देने वाली वारदातों का ज़िक्र करके अफ़सोस किया.

फ़लीस्तीनी महिला
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फ़लीस्तीनी महिला

घर जैसा लगा भारत

व्यापार के सिलसिले में सालों से भारत आने वाली एक महिला ने कहा, 'मुझे भारत से इतना लगाव है कि इसमें मुझे कोई बुराई नज़र आती ही नहीं.'

मैंने कहा ये तो कुछ ज़्यादा हो गया. हम तो अपने देश में काफ़ी कमियां देखते आ रहे हैं- जैसे कि अमीर-ग़रीब में बढ़ते फ़ासले, हिंसा, बलात्कार, भ्रष्टाचार और जातिवाद. वो महिला तो भारत की कुछ बुराई सुनने को तैयार नहीं थीं. उनके पास सभी मुद्दों का अपना तर्क था .

इससे भी बढ़कर हमारी मुलाक़ात एक बुद्धिमान यहूदी महिला से हुई, जिन्होंने भारत के यहूदियों पर एक किताब लिखी है.

उनका कहना था कि सालों पहले जब वो पहली बार भारत आईं थीं तो उन्हें महसूस ही नहीं हुआ कि वो किसी नए देश में हैं. उन्होंने कहा, "मुझे लगा मैं अपने घर आ गई हूँ." उनके अनुसार, भारत के बारे में उन्होंने इतना पढ़ रखा था कि उन्हें सभी कुछ जाना-पहचाना सा लगा.

मोदी के किस फैसले से फ़लस्तीनी हुए मायूस?

यहूदी और अरब के इस सच्चे प्रेम ने भारत को धर्म संकट में ज़रूर डाल दिया है. भारत की विदेश नीति में इसका इज़हार भी होता है. पिछले साल जुलाई में जब प्रधानमंत्री मोदी इसराइल गए तो वो फ़लस्तीनी राष्ट्रपति महमूद अब्बास से मिलने नहीं गए. फ़लस्तीनी उस समय इस फैसले से मायूस हुए.

दूसरी तरफ़ पिछले महीने जब भारत ने यरूशलम को लेकर संयुक्त राष्ट्र के एक वोट में फ़लस्तीनियों का साथ दिया तो उन सब का सीना "56 इंच" का हो गया. लेकिन इससे इसराइल में काफ़ी मायूसी हुई. एक पत्रिका ने लिखा कि भारत इसराइल का एक भरोसेमंद दोस्त नहीं हो सकता, लेकिन ये नाराज़गी वक़्ती साबित हुई

भारत को आज़ादी 1947 में मिली और इसराइल का जन्म उसके एक साल बाद हुआ. इन दो आधुनिक देशों की उम्र एक है और मसले भी मिलते जुलते हैं.

आज़ादी के बाद भारत का अगले कई सालों तक झुकाव फ़लस्तीनियों की तरफ़ था. लेकिन 1992 में जब इसराइल और भारत के बीच औपचारिक तरीक़े से रिश्ते बने तो भारत ने दोनों पक्षों के बीच अपनी पॉलिसी में एक संतुलन लाने की कोशिश की.

भारत के रवैये से लगता है कि यहूदियों और अरबों का प्यार बटोरो, मगर फ़ैसले अपने हित को सामने रख कर करो. पिछले साल पीएम मोदी इसराइल गए थे. मुझे पता चला है कि इस साल वो फ़लस्तीन जा सकते हैं.

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