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तिब्बत में 60 वर्षों में भी बौद्ध धर्म पर कम्युनिस्ट विचारधारा क्यों नहीं थोप पाया चीन

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नई दिल्ली- बीते करीब 60 वर्षों से तिब्बत चीन के अवैध कब्जे में है। लेकिन, बावजूद इसके वहां रह रहे तिब्बतियों ने अपनी आस्था और अपनी संस्कृति को साम्यवादियों की गंदी नजर के असर से अबतक बचाकर रखा है। लेकिन, इसबार शी जिनपिंग ने तिब्बतियों की इस धार्मिक आस्था और संस्कृति पर कब्जा करने की साजिश रची है। ऐसे में सवाल है कि क्या इसबार कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना अपनी इस नापाक मंसूबें में कामयाब हो जाएगी? शी जिनपिंग की सरकार ने इस भरोसे के साथ तिब्बतियों को तोड़ने की नई रणनीति बनाई है, क्योंकि वो उइगर मुसलमानों और क्रिश्चियनों के मामले में काफी हद तक सफल हो गई है। उनसे उनकी धार्मिक आजादी छीनी जा चुकी है।

तिब्बत की धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान मिटाने की साजिश

तिब्बत की धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान मिटाने की साजिश

चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने हाल ही में तिब्बत को लेकर एक नई नीति का ऐलान किया है। उनका मंसूबा तिब्बत को 'एक नया आधुनिक समाजवादी' क्षेत्र बनाने का है। जिनपिंग को इस बात का एहसास है कि आज ना कल तिब्बत में भी आजादी की अलख उठने वाली है। इसीलिए नई नीति में तिब्बत में वो पहले से ही अलगाववाद के खिलाफ एक 'अभेद्य दीवार' का निर्माण कर लेना चाहते हैं। लेकिन, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना की सरकार का सबसे खौफनाक इरादा तिब्बती बौद्ध धर्म के 'सिनीकरण' के ऐलान से जाहिर होता है। क्योंकि, तथ्य ये है कि चीन की साम्यवादी सरकार में जिनपिंग का प्रभाव बढ़ने के बाद से शिंजियांग प्रांत में उइगर मुसलमानों का वजूद लगभग खत्म होने के कगार पर है। करीब साढ़े सात करोड़ आबादी के बावजूद क्रिश्चियनों के चर्चों से क्रॉस के निशान जबरन हटवाए जाने की रिपोर्ट हैं। प्रभु ईशु की जगह जबरिया जिनपिंग और कम्युनिस्ट पार्टी के दूसरे नेताओं की तस्वीरें लगाने की सूचनाएं हैं। ऐसे में अब उनकी कोशिश तिब्बत के उस धार्मिक और सांस्कृतिक वजूद ही खत्म कर देने की है, जिसकी वजह से तिब्बत की अलग पहचान है।

तिब्बत में 60 वर्षों का अपना इतिहास ना भूले चीन

तिब्बत में 60 वर्षों का अपना इतिहास ना भूले चीन

सवाल है कि क्या चीन के लिए तिब्बतियों को बौद्ध धर्म से दूर करना क्या इतना आसान होने वाला है। क्या माओत्से तुंग से लेकर अबतक के बीते 60 वर्षों में उसने इसके प्रयास नहीं किए हैं? लेकिन, तिब्बतियों के लिए भगवान बुद्ध और उनकी अपनी संस्कृति से बढ़कर कभी कुछ हो ही नहीं सकता। चीन की इस कोशिशों के बारे में सेंट्रल तिब्तियन एडमिनिस्ट्रेशन के प्रेसिडेंट लोबसांग सांगे ने ईटी को बताया है, कि 'तिब्बतियों के लिए साम्यवाद से बौध धर्म कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है। उनपर उनकी आस्था से ज्यादा साम्यवाद को अहमियत देने के लिए दबाव डालना अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता का ही उल्लंघन नहीं है, बल्कि बहुत ही ज्यादा गुमराह करने वाला है। तिब्बती बौद्ध धर्म का सिनीकरण कभी काम करने वाला नहीं है। तिब्बत में 60 वर्षों का चीनी शासन इस तथ्य का साक्षी है।'

तिब्बतियों का अपनी आस्था पर अटूट विश्वास है

तिब्बतियों का अपनी आस्था पर अटूट विश्वास है

तिब्बतियों पर अपनी विचारधारा थोपने के लिए चीनी सरकारों ने बीते 60 वर्षों में क्या-क्या कुकर्म नहीं किए। दुनिया के सबसे बड़े दो बौद्ध संस्थानों लारुंग गार और यारचेन गार को चीनी शासकों ने तबाह कर दिए। 60 वर्षों से तिब्बत में बच गए तिब्तियों को किस-किस तरह की प्रताड़ना नहीं सहनी पड़ रही है, लेकिन यह बात तो कभी निकलकर बाहर भी नहीं आती। लोकतंत्र के हितों के लिए काम कर रहे अमेरिकी एनजीओ फ्रीडम हाउस ने तिब्बत को सीरिया के बाद लगातार पांचवें वर्ष सबसे कम आजाद क्षेत्र की सूची में रखा है। लेकिन, बावजूद इसके तिब्बतियों का ना तो अपने धर्म के प्रति विश्वास डोला है और ना ही अपने आध्यात्मिक गुरु दलाई लामा के प्रति भरोसे में कोई कमी आई है। जबकि, उन्होंने लगभग अपनी पूरी जिंदगी निर्वासित के रूप में तिब्बत से दूर भारत में गुजार दी है।

खुद ज्वालामुखी की ढेर पर बैठा है

खुद ज्वालामुखी की ढेर पर बैठा है

जाहिर है कि चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने तिब्बतियों और उनके बौद्ध दर्म पर जो 'सिनीकरण' की नीति थोपने की नीति बनाई है, उसके जरिए वो उनकी धार्मिक आस्था और अवतार वाली व्यवस्था को नियंत्रित करने की एक सोची-समझी साजिश है। चीन के सत्ताधारी नेताओं को नहीं भूलना चाहिए के 150 से ज्यादा तिब्बती चीनी नीतियों के विरोध में आत्मदाह भी कर चुके हैं, लेकिन झुकना मंजूर नहीं किया है। कहीं ऐसा ना हो कि तिब्बत के लोगों की धार्मिक भावनाओं से खेलने की कोशिश में वहीं से चीन से आजादी की मुहिम ना शुरू हो जाए। क्योंकि, सच्चाई ये है कि चीन एक ऐसी ज्वालामुखी पर बैठा है, जिसे सिर्फ फटने भर की देर है। अभी तो हथियारों के दम पर वहां की जनता को चुप कराकर रखा जाता है।

इसलिए तिब्बत की किलेबंदी करना चाहता है चीन

इसलिए तिब्बत की किलेबंदी करना चाहता है चीन

असल में चीन को भी पता है कि उसकी स्थिरता और सुरक्षा तिब्बत के ही भरोसे है। इसीलिए वह लगातार वहां सैन्य गतिविधियां बढ़ा रहा है। लेकिन, यही भारत और एशिया की सुरक्षा के लिए बहुत बड़ी चुनौती बन चुका है। लेकिन, तिब्बत की आस्था के साथ खिलवाड़ करना चीन का अपनी सुरक्षा के लिए उसका आखिरी दांव साबित हो सकता है। क्योंकि, जिस दिन तिब्बत का किला ढह गया, फिर इस इलाके से चीन का दबदबा मिटते देर नहीं लगेगी।

इसे भी पढ़ें- लद्दाख में चीन का 'दोहरा' रवैया बहुत बड़े खतरे का संकेत है, शी जिनपिंग की रणनीति में साजिश हैइसे भी पढ़ें- लद्दाख में चीन का 'दोहरा' रवैया बहुत बड़े खतरे का संकेत है, शी जिनपिंग की रणनीति में साजिश है

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English summary
Why did China not impose communist ideology on Buddhism even in 60 years in Tibet
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