यूक्रेन युद्ध: क्या पुतिन के हाथ से क्या निकल रही है बाज़ी? दुनिया जहां
यूक्रेन की सेना ने हालिया महीनों में ज़ोरदार जवाबी हमला किया है और पश्चिमी देशों को लगता है कि राष्ट्रपति पुतिन ने एक ऐसी जंग छेड़ दी है जिसमें वो टिक नहीं पाएंगे.
रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के लिए क्राइमिया से रूस को जोड़ने वाला कर्च ब्रिज जीत का बुलंद प्रतीक है. ये उनकी ताक़त की कहानी सुनाता है.
रूस ने साल 2014 में क्राइमिया पर कब्ज़ा किया लेकिन यूक्रेन और अंतरराष्ट्रीय बिरादरी ने इसे मान्यता नहीं दी और अब महीनों से जारी जंग के बीच जब एक धमाके में कर्च ब्रिज को बड़ा नुक़सान हुआ तो पुतिन ने 'आतंकवादी कार्रवाई' का आरोप लगाया.
इसकी वजह ये भी समझी जा रही है कि कर्च पुल रूस के नियंत्रण वाले इलाके में है और इस पर विस्फोट रूस के सैन्य अभियान पर सवालिया निशान लगाता है.
रूस ने जवाबी कार्रवाई की और यूक्रेन के कई शहरों पर हमला किया. इनमें कई आम नागरिकों की भी मौत हुई.
इसके बीच सवाल पूछा जा रहा है कि यूक्रेन युद्ध में क्या राष्ट्रपति पुतिन के हाथ से बाजी निकलती जा रही है?
बीबीसी ने इसका जवाब पाने के लिए चार एक्सपर्ट से बात की.
युद्ध कला
क्राइमिया पर कब्ज़े के आठ साल बाद फ़रवरी 2022 में रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने यूक्रेन के ख़िलाफ़ खुली जंग छेड़ दी.
उन्हें उम्मीद थी कि रूस की सेनाएं कुछ ही दिनों में यूक्रेन की राजधानी कीएव पर कब्ज़ा कर लेंगी.
लेकिन जैसे जैसे वक़्त बीता ये साफ़ होने लगा कि पुतिन आकलन में ग़लती कर बैठे हैं.
यूएस स्पेशल फ़ोर्सेज़ के पूर्व अधिकारी और मैडिसन पॉलिसी फ़ोरम के एक्ज़ीक्यूटिव डायरेक्टर लियम कॉलिन्स कहते हैं, " उन्हें लगा कि यूक्रेन कमज़ोर है. उन्होंने सोचा कि पश्चिमी देश कमज़ोर हैं. उन्होंने देखा था कि अमेरिका किस तरह अफ़ग़ानिस्तान से वापस लौटा और उन्हें लगा कि राष्ट्रपति बाइडन कमज़ोर हैं. 2014 और 2015 में जब उन्होंने क्राइमिया और डोनबास की घेरेबंदी की थी, तब पश्चिमी देशों की प्रतिक्रिया लगभग नज़रअंदाज़ करने वाली थी. उनके पास ये सोचने की वजह नहीं थी कि इस बार चीजें अलग होंगी."
जून की शुरुआत में यूक्रेन के राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की कह रहे थे कि रूस ने उनके देश के करीब 20 प्रतिशत हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया है.
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लेकिन युद्ध शुरु होने के छह महीने बाद यानी सितंबर में यूक्रेन की सेनाओं ने ज़ोरदार जवाबी हमला बोला और कुछ ही हफ़्तों में रूस के कब्ज़े से अपनी ज़मीन का बड़ा हिस्सा हासिल कर लिया.
ये रूस के लिए शर्मिंदगी की बात थी. राष्ट्रपति पुतिन ने अपने अभियान में तेज़ी लाने का फ़ैसला किया और दूसरे विश्व युद्ध के बाद से रूस की सेना में सबसे बड़ी लामबंदी की गई.
यूक्रेन की सेना को कामयाबी मिल रही है लेकिन लियम की राय है कि जल्दी ही उनका जोश ठंडा पड़ सकता है.
लियम कॉलिन्स कहते हैं, " साजोसामान, योजना बनाने और उस पर अमल के लिहाज से ये एक अहम अभियान है. इस पैमाने पर जवाबी हमला करने पर संसाधन ख़त्म हो सकते हैं. उन्हें रुकना पड़ सकता है ताकि वो दोबारा ताक़त जुटाएं और फिर अगली बार अहम जवाबी हमला करें."
यूक्रेन की सेना आकार में रूस की सेना से बहुत छोटी है लेकिन लियम कहते हैं कि साल 2014 में रूस के हमले के बाद से इसने ख़ुद को काफी बेहतर बना लिया है.
यूक्रेन के हक़ में एक और बात है. पश्चिमी देश उसे हथियार मुहैया करा रहे हैं. लियम कहते हैं कि यूक्रेन की सेना ने हथियारों का इस्तेमाल भी कुशलता से किया है.
लियम कॉलिन्स कहते हैं, "अगर हमने ये हथियार रूस को दिए होते तो वो ज़्यादा फर्क पैदा नहीं कर पाते. रूस के पास इन्हें प्रभावी तरीके से इस्तेमाल करने की क्षमता नहीं है. यूक्रेन के पास ज़्यादा प्रोफ़ेशनल सेना है. वो नई ताक़त को प्रभावी तरीके से आजमा सकते हैं."
यूक्रेन के मुक़ाबले रूस के पास लड़ाकू विमानों की संख्या काफी ज़्यादा है लेकिन वो उन्हें 'गंवाने का जोखिम' नहीं ले रहे हैं. रूस की सेना की नाकामी को लेकर भी लगातार सवाल उठ रहे हैं.
लियम कॉलिन्स कहते हैं, " उनके पास प्रोफ़ेशनल सेना नहीं है. निचले स्तर पर ऐसे अधिकारी भी नहीं हैं जिनके पास फ़ैसले लेने का अधिकार हो. इसके मायने ये हैं कि अगर जनरल ही सारे फैसले करेंगे और जंग के मैदान पर कोई पहल करने वाला नहीं होगा तो उनका प्रदर्शन खराब ही रहेगा. 21 शताब्दी में जंग की रफ़्तार बहुत तेज़ हो चुकी है और आपके पास ऐसे सैनिक हैं जो युद्ध के लिए प्रतिबद्ध नहीं हैं."
सोशल मीडिया में ऐसी कई पोस्ट नज़र आई हैं जहां रूस के सैनिकों ने सप्लाई की कमी और गिरते मनोबल को लेकर शिकायत की है.
पश्चिमी देशों को अब लगने लगा है कि राष्ट्रपति पुतिन ने ग़लत सलाह के भरोसे एक ऐसी जंग शुरू कर दी है जिसमें वो टिक नहीं पाएंगे.
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युद्ध का बोझ
लंदन स्थित चैटम हाउस में यूक्रेन फ़ोरम की प्रमुख ओरीसिया लुत्सेविच कहती हैं, "जंग छिड़ने के पहले ही हम जानते थे कि रूस की अर्थव्यवस्था थम सी गई है. रूस ने अब तक जो कीमत चुकाई है वो बहुत ज़्यादा है. उनकी जीडीपी में करीब 11 फ़ीसदी की गिरावट हो चुकी है. आयात और निर्यात में 30 प्रतिशत गिरावट हुई है. महंगाई बढ़ रही है. मॉस्को स्टॉक एक्सचेंज लगभग तबाह हो चुका है."
यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद से करीब तीस देशों ने रूस को सबक सिखाने के लिए उसके साथ कारोबार सीमित कर दिया है.
यूरोप के देश रूस से कम से कम एनर्जी लेना चाहते हैं ताकि पुतिन के पास जंग जारी रखने के लिए रकम न हो. ओरीसिया कहती हैं कि ये रणनीति काम कर रही है.
ओरीसिया लुत्सेविच बताती हैं, "प्रतिबंध लागू होने से उन्हें टैंक में लगाने के लिए माइक्रोचिप्स नहीं मिल पा रही हैं. इस तरह की ख़बरें भी हैं कि कुछ टैंक फैक्ट्री पुर्जे नहीं होने की वजह से बंद हो गई हैं. कुछ को वॉशिंग मशीन में से माइक्रोचिप्स लगानी पड़ रही हैं."
इस बीच पश्चिमी देशों की कई कंपनियों ने रूस में कारोबार बंद कर दिया है. ओरीसिया कहती हैं कि ऐसी कंपनियां पुतिन की कोई मदद नहीं करना चाहतीं. इससे नौकरियां और रूस की कमाई दोनों घटी हैं.
ओरीसिया लुत्सेविच कहती हैं, "सही कहें तो उन्होंने ये उम्मीद नहीं की होगी कि रूस के ख़िलाफ़ ऐसी चौतरफ़ा जंग छिड़ जाएगी. या शायद उन्होंने उम्मीद की हो और अपनी क्षमताओं को बढ़ा चढ़ाकर आंक लिया हो. इसकी वजह चीन और एशिया के साथ उनके आर्थिक रिश्ते रहे होंगे. लेकिन हम देख रहे हैं कि चीन पर ज़रूरत से ज़्यादा निर्भरता रूस के लिए काम नहीं कर रही है. "
आर्थिक मोर्चे पर एक और झटका लगने वाला है. सितंबर में राष्ट्रपति पुतिन ने तीन लाख आम नागरिकों को सेना के साथ जोड़ने का एलान किया. ऐसा होने पर वो देश के लिए कमाई करने वाली व्यवस्था से अलग हो जाएंगे.
ओरीसिया लुत्सेविच कहती हैं, "इससे रूस की अर्थव्यवस्था में लगी वर्कफ़ोर्स घट जाएगी. अलग अलग स्रोतों से मिली जानकारी के मुताबिक जंग में मरने वालों और घायलों की संख्या 50 हज़ार के करीब है. सोवियत सेना ने अफ़ग़ानिस्तान में 10 साल तक चली जंग में जितने लोगों को गंवाया था, ये संख्या उससे दो से तीन गुना है."
इन तमाम बातों का असर रूस के लोगों पर हो रहा है और वो सवाल कर रहे हैं. विरोध करने वाले सिर्फ़ राजधानी मॉस्को में ही नहीं बल्कि सुदूर इलाकों में भी हैं.
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घर में विरोध
रूस के यूक्रेन पर हमला करने के कुछ ही दिन बाद पूरे देश में विरोध प्रदर्शन होने लगे. ये रिपोर्टें सामने आईं कि हज़ारों प्रदर्शनकारी हिरासत में ले लिए गए.
लातविया की राजधानी रीगा में रहने वाले रूस के स्वतंत्र पत्रकार लियोनिड रैगोज़िन कहते हैं कि रूस के राष्ट्रपति देश के लोगों को आगाह करते रहे हैं कि वो राजनीति से दूर रहें.
लियोनिड बताते हैं, "पुतिन रूस के लोगों से कहते रहे हैं कि लोकतंत्र का मतलब है उपद्रव. लोकतंत्र के मायने हैं युद्ध. सिर्फ़ लोकतंत्र ही नहीं पश्चिमी देशों का प्रभाव या पश्चिमी देशों के करीब होना भी दिक्कत की बात है. हमें पश्चिम के प्रभाव से दूर रहना है. लोकतंत्र और विपक्ष के साथ पींगें मत बढ़ाओ. ये आपकी सेहत के लिए अच्छा रहेगा."
लोग अगर लोकतंत्र की बात करते हैं तो ख़तरा ये भी होगा कि वो देश पर पुतिन की एकछत्र पकड़ को कमज़ोर करेंगे.
पश्चिमी देशों जैसी राजनीतिक व्यवस्था के प्रति यूक्रेन का रुझान भी रूस को कभी रास नहीं आया.
लियोनिड रैगोज़िन कहते हैं, "पुतिन ने यूक्रेन में युद्ध शुरू करके रूस के लोगों के लिए हौवा खड़ा कर दिया है. ये एक तरह की चेतावनी है कि अगर रूस के लोगों ने यूक्रेन के लोगों की तरह बर्ताव शुरू किया तो उनके साथ क्या हो सकता है."
रूस में बड़ी संख्या में ऐसे लोग है जो मानते हैं कि युद्ध का उन पर कोई सीधा असर नहीं हुआ है. लियोनिड के मुताबिक रूस के समाज में लोग एक दूसरे पर भरोसा नहीं करते हैं. उनमें किसी भी तरह का राजनीतिक अभियान शुरू करने को लेकर उदासीनता दिखती है.
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हालांकि, हाल में रूस में प्रदर्शन हुए. लेकिन इसकी वजह लोगों को सेना में लामबंद किया जाना था. प्रदर्शनकारियों ने दावा किया कि रूसी नस्ल के लोगों के बजाए ग़रीब इलाक़ों से अल्पसंख्यकों को सरहद पर भेजा जा रहा है.
यानी ये विरोध प्रदर्शन युद्ध के ख़िलाफ़ नहीं था.
पुतिन के नेतृत्व को चुनौती उन लोगों से मिल रही है जो यूक्रेन पर हमला करने के समर्थन में थे और अब सेना की नाकामी से ख़फा हैं
लियोनिड रैगोज़िन कहते हैं, "रूस के सैन्य नेतृत्व की काफी आलोचना हुई है. ऐसा करने वाले धुर राष्ट्रवादी हैं. वो ही चाहते थे कि ये जंग हो. पुतिन बहुसंख्यक आबादी के बजाए इस सीमित समूह तक ही अपनी बातें पहुंचाने की कोशिश में रहते हैं. ये अल्पसंख्यक समूह कभी उनके पारंपरिक समर्थकों में नहीं रहा है. अगर पुतिन को यूक्रेन में नाकामी मिलती रही तो इन लोगों का बर्ताव कैसा रहेगा, ये एक बड़ा सवाल है."
लियोनिड बताते हैं कि रूसी मीडिया में हाल में ख़बरें छपीं कि रूस के कई आला अधिकारी हालिया घटनाक्रम से परेशान हैं. लेकिन वो पुतिन के ख़िलाफ़ बगावती तेवर नहीं अपनाना चाहते.
लेकिन सेना में लामबंदी को लेकर चिंता है और ये बात एक सर्वे से पुष्ट हुई है.
लियोनिड रैगोज़िन कहते हैं, "पुतिन ने रूस के बहुसंख्यक लोगों के साथ लंबे समय से चले आ रहे सोशल कॉन्ट्रेक्ट को तोड़ दिया है. पुतिन की जोखिम भरी विदेश नीति के नतीजे उनके दरवाजे तक पहुंच गए हैं. रूस के लाखों परिवार इसकी तपिश महसूस कर रहे हैं."
रूस के हज़ारों लोग सेना में शामिल किए जाने से बचने के लिए दूसरे देशों में चले गए हैं. लियोनिड के मुताबिक ये भी एक तरह का विरोध ही है.
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क्या बंद होगी जंग?
युद्ध पर कई अध्ययन हुए हैं जिनमें ये पता किया जाता है कि संघर्ष कैसे शुरू हुए. लेकिन हमारे चौथे एक्सपर्ट हायन हूमन्स कहते हैं कि ज़्यादा अहम ये समझना है कि संघर्ष को ख़त्म कैसे किया जा सकता है.
हायन मानते हैं कि शांति तभी स्थापित हो सकती है जब दुश्मनों की अपेक्षाएं पूरी होने की संभावना दिखे. यहां रूस पस्त है और यूक्रेन का हौसला बुलंद हुआ है.
हायन हूमन्स कहते हैं, "यहां एक बात ध्यान में रखनी होगी कि रूस और अधिक निराशावादी हो गया. वहीं यूक्रेन अधिक आशावादी हो गया. ऐसे में ज़रूरी नहीं है कि दोनों पक्षों की मांग के बीच का अंतर कम हो जाए."
पुतिन के बारे में कहा जाता है कि वो इस तरह के नेता हैं जो कदम पीछे खींचने में यकीन नहीं करते हैं. हायन की राय है कि पुतिन का शासन लोकतंत्र और तानाशाही के बीच की स्थिति वाला है.
ऐसी स्थिति में मामूली हार होने पर भी लगता है कि मानो सबकुछ गंवा दिया. वो जानते हैं कि अगर हार कर घर लौटे तो उन्हें सत्ता से हटाया जा सकता है. उनके सामने लड़ाई जारी रखने के अलावा कोई चारा नहीं है.
वो ये भी कहते हैं कि अगर पुतिन शांति की बात करें तो ये ज़रूरी नहीं कि यूक्रेन बातचीत की मेज पर आ ही जाए.
हायन हूमन्स कहते हैं, "पुतिन समझौते की शर्तें तय नहीं कर सकते क्योंकि उन्होंने पहले के समझौतों का उल्लंघन किया है. यूक्रेन का नेतृत्व जानता है कि अगर वो अभी कोई डील करते हैं तो भी पुतिन अपनी सेना को दोबारा एकजुट कर पांच साल बाद युद्ध शुरू कर सकते हैं."
कुछ ऐसे भी लोग हैं जो मानते हैं कि अगर व्लादिमीर पुतिन को पद से हटा दिया जाए तो संघर्ष ख़त्म होने की उम्मीद बन सकती है.
लेकिन हायन हूमन्स ऐसा नहीं सोचते हैं.
वो कहते हैं, "मुझे नहीं लगता कि पुतिन को हटाने से समस्या खत्म हो जाएगी. हो सकता है कि उनकी जगह लेने वाले नेता पुतिन से भी ज़्यादा कट्टर हों और वो लड़ाई जारी रखना चाहें, क्योंकि वो भी सत्ता का हिस्सा रहे होंगे और उन्हें डर होगा कि कहीं पूरी सत्ता को ही पलट न दिया जाए."
हायन का यूक्रेन और पश्चिमी देशों के लिए जो संदेश है, उसका मतलब ये नज़र आता है कि सिर्फ़ पुतिन ही नहीं बल्कि उनके करीबी सहयोगियों पर भी ख़तरा है.
हायन हूमन्स कहते हैं, "यूक्रेन के लिए अच्छा ये होगा कि वो लड़ाई जारी रखें, पश्चिमी देशों के लिए भी यही अच्छा होगा. अगर रूस को जीत मिलती है तो पुतिन फिर से ऐसा ही करेंगे. वो जगह कोई और हो सकती है. मसलन बाल्टिक या फिर पोलैंड."
लौटते हैं उसी सवाल पर कि यूक्रेन युद्ध में क्या बाजी पुतिन से हाथ निकलती जा रही है?
ये साफ है कि रूस ने यूक्रेन युद्ध को लेकर सैन्य और आर्थिक चुनौतियों का सही तरह से आकलन नहीं किया. उसके अनुमान पूरी तरह ग़लत रहे.
लेकिन नाकामी के बाद भी रूस में युद्ध ख़त्म करने की मांग पुरज़ोर तरीके से नहीं उठ रही है. वहीं अति राष्ट्रवादी पुतिन से सैन्य कार्रवाई को तेज़ करने की मांग कर रहे हैं.
पुतिन ने संकेत दिया है कि वो परमाणु हथियार का इस्तेमाल कर सकते हैं. इसे लेकर पश्चिमी देश फिक्रमंद हैं.
ये लगता है कि पुतिन कदम पीछे नहीं खीचेंगे. जानकारों की राय में वो ऐसा कर भी नहीं सकते हैं.
फिलहाल किसी तरह से शांति समझौते की भी कल्पना नहीं की जा सकती है. दूसरा पक्ष उन पर भरोसा नहीं करता है. इस बीच सेना में मौजूद भ्रष्टाचार और सेना की कमजोरी भी पुतिन की परेशानी बढ़ा रही है.
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