भारत अपने तीन ब्रह्मास्त्र से कैसे चीन को हरा सकता है? पूरी तरह से काबू में आ जाएगा ड्रैगन
भारत के पूर्व रॉ चीफ ने भी इस बात की वकालत की है और कहा है, कि भारत अगर तिब्बत की निर्वासित सरकार को मान्यता दे देता है और तिब्बत की आजादी की मांग का समर्थन कर देता है, तो फिर चीन में बवाल मच जाएगा
नई दिल्ली, सितंबर 18: विस्तारवाद का युग अब खत्म हो चुका है और अब दुनिया विकास के रास्ते पर आगे बढ़ रही है और विकासवाद की दुनिया का अगला नायक भारत है, इसमें कोई शक नहीं है। भारत उस कृष्ण को पूजता है, जो बांसुरी बजाते हैं, लेकिन भारत उस भगवान कृष्ण को भी पूजता है, जो अपने सुदर्शन चक्र से बुराइयों का संहार करते हैं और ये लाइन किसी और ने नहीं, बल्कि भारत के सबसे शक्तिशाली प्रधानमंत्रियों में से एक बन चुके नरेन्द्र मोदी के हैं, जो उन्होंनें गलवान घाटी में चीन के साथ हुए खूनी संघर्ष के बाद दिया था। हालांकि, पीएम मोदी ने अपने संदेश में किसी एक देश का नाम तो नहीं लिया था, लेकिन ये बच्चा-बच्चा जानता है, कि उनका इशारा विस्तारवादी ताकतों की तरफ था, जिनका अगुआ चीन है। लेकिन, क्या चीन के विस्तारवाद को भारत थाम सकता है और कैसे मोदी सरकार अपने तीन ब्रह्मास्त्र के जरिए ड्रैगन को पराजित कर कर सकती है, आइये समझते हैं।
क्या चीन का विस्तारवाद रूकेगा?
क्या चीन अपने विस्तारवाद की नीति से बाज आएगा, इस सवाल का सिर्फ एक जवाब है नहीं। तो फिर भारत चीन के इस विस्तारवाद को कैसे काउंटर कर सकता है, ये सबसे अहम सवाल है। लेकिन, अगर मोदी सरकार अपने तीन शस्त्रों का इस्तेमाल करे, तो यकीनन चीन काबू में आ सकता है और ये तीन कार्ड है, तिब्बत, ताइवान और वियतनाम। ऐसा माना जा रहा है, कि मोदी सरकार ने अपने एक शस्त्र ताइवान का इस्तेमाल भी करना शुरू कर दिया है और इस शस्त्र का कितना असर हुआ है, ये कुछ महीने बाद चीन की बौखलाहट से पता चलेगा। जब अमेरिका की स्पीकर नैन्सी पेलोसी ने ताइवान का दौरा किया और चीन ने ताइवान पर करीब करीब आक्रमण करने की पूरी तैयारी भी कर ली, फिर भी भारत की तरफ से 10 दिनों तक कोई प्रतिक्रिया नहीं दी गई। ये एक आश्चर्यजनक बात थी, लेकिन जब आप मोदी सरकार की प्लानिंग जानेंगे, तो फिर आप हैरान नहीं होंगे।
पहला ब्रह्मास्त्र- तिब्बत
भारत ने तिब्बत को लेकर अभी तक लगातार डिफेंसिव मोड में ही अपनी नीति बनाई है और तिब्बत को लेकर भारत की प्रतिक्रिया अभी तक सिर्फ दलाई लामा को जन्मदिन की शुभकामनाएं देकर या फिर उनसे कभी कभी मुलाकात कर ही खेली है, लेकिन सवाल ये है, कि क्या तिब्बत को लेकर भारत कभी आक्रामक रूख अपनाएगा। साल 1950 में चीन ने तिब्बत पर कब्जा किया था और उसके बाद से तिब्बत की सीमा ही भारत और चीन की सीमा हो गई। सबसे खतरनाक बात ये थी, कि नेहरू सरकार ने तिब्बत को चीन के हिस्से के तौर पर मान्यता भी दे दी थी, लेकिन अब क्या मोदी सरकार तिब्बत को चीन के खिलाफ एक शस्त्र के तौर पर इस्तेमा करेगी? कई एक्सपर्ट्स ने कहना शुरू कर दिया है, कि अब वक्त आ गया है, कि भारत को तिब्बत की पूर्ण आजादी का समर्थन करना चाहिए और तिब्बती लोगों की चीन से आजादी की मांग का खुला समर्थन करना चाहिए और भारत को तिब्बत की निर्वासित सरकार को मान्यता देनी चाहिए। हालांकि, साल 1965 में पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने तिब्बत की निर्वासित सरकार को मान्यता देने की बात कही थी, लेकिन इससे पहले की वो इसके लिए कदम आगे बढ़ाते, उनकी संदिग्ध मृत्यु हो गई और फिर उसके बाद किसी भी भारतीय सरकार ने ऐसी बात नहीं की।
भारत बदलेगा तिब्बत को लेकर अपनी नीति?
भारत के पूर्व रॉ चीफ ने भी इस बात की वकालत की है और कहा है, कि भारत अगर तिब्बत की निर्वासित सरकार को मान्यता दे देता है और तिब्बत की आजादी की मांग का समर्थन कर देता है, तो फिर चीन में बवाल मच जाएगा और फिर भारत एक ऐसे पॉजीशन पर पहुंच जाएगा, जहां से वो चीन के साथ कई और मुद्दों पर बराबरी की बातचीत कर सकता है। एक्सपर्ट्स का कहना है, कि नई दिल्ली को फौरन तिब्बत को लेकर अपनी कनफ्यूज नीति बदलनी चाहिए और सारी हिचकिचाहट को साइड में रखकर तिब्बत की आजादी की बात करनी चाहिए और ऐसा करने से चीन फौरन बैकफुट पर आ जाएगा। तिब्बत का खुलेआम समर्थन करने से भारत अंतर्राष्ट्रीय मंच पर अपनी शांति और स्वतंत्रता की नीति का ही प्रचार करेगा, जो भारत की सदियों की नीति रही है और ऐसा करके भारत चीन की आक्रामकता पर सीधा प्रहार कर सकता है। इसके साथ ही एक्सपर्ट्स ये भी मांग करते हैं, कि भारत को दलाई लामा को भारत रत्न जैसा सम्मान देना चाहिए और तिब्बत के नये जेनरेशन के साथ सीधा संवाद स्थापित करना चाहिए, जो तिब्बत के प्रतिरोध का नया चेहरा बन सकें। लेकिन, सवाल ये है, कि चीन के हितों की हमेशा से सम्मान करने वाला भारत, क्या अपनी तिब्बत नीति में बदलाव लाएगा, फिलहाल कहना मुश्किल है।
दूसरा ब्रह्मास्त्र- ताइवान
तिब्बत की ही तरफ भारत ने हमेशा से 'वन चायना पॉलिसी' के तहत ताइवान को चीन का हिस्सा माना है, लिहाजा एक्सपर्ट्स का कहना है, कि भारत को चाणक्य की 'दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है' नीति का पालन करना चाहिए और ताइवान के साथ पार्टनरशिप को तेजी से बढ़ाना चाहिए। हाल ही में कांग्रेस के सांसद शशि थरूर ने भी कहा है, कि अगर चीन भारत के साथ 'गंदा गेम' खेलता है, तो भारत को भी तिब्बत कार्ड एक्टिव कर देना चाहिए। वहीं, एक्सपर्ट्स का कहना है, कि चीन की आक्रामकता के जबाव में भारत ताइवान के साथ डिप्लोमेटिक संबंध स्थापित कर सकता है और अपने डिप्लोमेट्स ताइवान में भेज सकता है। और भारत अगर ऐसा करता है, तो वो चीन को मुंहतोड़ जवाब होगा, क्योंकि चीन भी भारत के पड़ोसी देशों में एंटी इंडिया कार्ड खेल रहा है और नेपाल, श्रीलंका, पाकिस्तान, बांग्लादेश, मालवीद और म्यांमार जैसे पड़ोसी देशों में भारत के खिलाफ विचारधारा को बढ़ाने के लिए बेतहाशा पैसे खर्च कर रहा है, लिहाजा ताइवान कार्ड खेलकर भारत ड्रैगन को जोर का झटका दे सकता है।
सावधानी से इस्तेमाल करना होगा ताइवान कार्ड?
हालांकि, एक्सपर्ट्स का कहना है, कि भारत को हड़बड़ी में ताइवान कार्ड्स का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए और खुद शशि थरूर भी कहते हैं, कि जल्दबाजी में और बिना प्लानिंग के अगर ताइवान कार्ड इस्तेमाल किया जाता है, तो वो खुद अपने लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है। लिहाजा, एक्सपर्ट्स कहते हैं, कि ताइवान को डिप्लोमेटिक मान्यता देने से पहले भारत को ताइवान के साथ अपने व्यापारिक संबंधों को विस्तार देना चाहिए और टेक्नोलॉजिकल मदद देनी चाहिए। इसके साथ ही भारत को अलग अलग तरह से ताइवान की मदद करनी चाहिए, जो दोनों के लिए एक पॉजिटिव रास्ता बनाए और इसमें सेमीकंडक्टर काफी प्रमुख भूमिका निभा सकता है। ताइवान सेमीकंडक्टर का सबसे मुख्य उत्पादक है, लिहाजा भारत को इसका फायदा उठाना चाहिए और उस वक्त से पहले फायदा उठा लेना चाहिए, जब चीन ताइवान पर आने वाले वक्त में हमला कर उसकी चिप इंडस्ट्री पर कब्जा करेगा। लिहादा, अमेरिका ने ताइवान की मुख्य सेमीकंडक्टर उत्पादक कंपनी TSMC को अपने यहां शिफ्ट होने का ऑफर दिया है, क्योंकि अमेरिका जानता है, कि जिस दिन चीन ताइवान पर आक्रमण करेगा, वो सबसे पहले चिप इंडस्ट्री पर कब्जा कर पूरी दुनिया को ब्लैकमेल करेगा, खासकर मिलिट्री को चॉक कर सकता है, लिहाजा एक्सपर्ट्स का कहना है, कि अगर भारत अमेरिका और ताइवान के साथ कोलेबोरेट करता है, तो वो वक्त रहते बड़ी मुसीबत से बाहर आ सकता है।
भारत को लेकर उत्साहित ताइवान
ताइवान हमेशा से भारत से संबंध विस्तार को लेकर उत्साहित रहा है और पिछले साल विश्व में 65 प्रतिशत सेमीकंडक्टर की सप्लाई करने वाली ताइवान की TSMC कंपनी ने भारत में अपना ब्रांच खोलने का ऑफर भी दिया था और भारत से पहले सिर्फ अमेरिका में ही इस कंपनी का ब्रांच है, लिहाजा एक्सपर्ट्स का कहना है, कि भारत को दोनों हाथों से इस मौके को भुनाना चाहिए, क्योंकि सिर्फ ताइवान की इस कंपनी के भारत में ब्रांच खुल जाने से कई वैश्विक टेक्नोलॉजिकल कंपनियां भारत आ सकती हैं और इससे टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में भारत को चीन के ऊपर बड़ी बढ़त मिल सकती है। वहीं, अमेरिका ने पिछले दिनों चीन की चिप इंडस्ट्री पर कई बड़े प्रतिबंध लगाए हैं, जिससे चीन की चिप इंडस्ट्री को तगड़ा झटका लगना तय है, लिहाजा भारत को इसका फायदा उठाने की तरफ ध्यान देना चाहिए। क्योंकि आने वाले वक्त में जिस भी देश के पास चिप इंडस्ट्री है, दुनिया पर उसी का वर्चस्व होगा और अमेरिका ने जुलाई महीने में अपनी सेमीकंडक्टर इंडस्ट्री को बढ़ावा देने के लिए 400 अरब डॉलर का पैकेज दिया है, वहीं भारत के गुजरात में भी पहली सेमीकंडक्टर इंडस्ट्री वेंदांता ग्रुप खोलने जा रहा है, लिहाजा भारत को अब इस उभरते हुए इंडस्ट्री की तरफ पूरी ताकत झोंक देनी चाहिए और अगर भारत ऐसा करता है, तो जाहिर है, चीन इससे बौखलाएगा, क्योंकि एक तो उसका बड़ा बाजार खत्म होगा और दूसरा भविष्य के लिए उसकी योजनाएं चौपट हो जाएंगी।
तीसरा ब्रह्मास्त्र- वियतनाम
भारत ने चीन के खिलाफ अपने तीसरे महाअस्त्र का इस्तेमाल आज तक सही तरीके से नहीं किया है, ठीक वैसे ही, जैसे भारत ने ना तो तिब्बत कार्ड खेला और ना ही ताइवान कार्ड। भारत के नीति निर्माता वियतनाम को लेकर एक अलग नीति बनाने और चीन के खिलाफ उसका इस्तेमाल करने को लेकर कंजूस ही रहे हैं। हालांकि, भारत और वियतनाम की दोस्ती नेहरू के जमाने से ही रही है, लेकिन आज के जमाने में भारत और वियतनाम, दोनों के सामने चीन सबसे बड़ी चुनौती है, लिहाजा अगर भारत और वियतनाम एक साथ आते हैं, तो कई मोर्चों पर चीन की आक्रामकता को चुनौती दी जा सकती है और इस लिहाज से पहला पार्टनरशिप डिफेंस को लेकर होना चाहिए और मोदी सरकार ने ऐसा करना शुरू कर भी दिया है। पिछले महीने भारतीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने वियतनाम का दौरा किया था, जहां दोनों देशों के बीच रक्षा क्षेत्र को लेकर अहम समझौते हुए हैं। जिसमें सबसे खास ये थी, कि भारत और वियतनाम अब एक दूसरे के मिलिट्री बेस का इस्तेमाल लॉजिस्टिक सप्लाई के लिए कर पाएंगे। ये भारत के लिए काफी अहम है, क्योंकि अब भारत काफी आसानी से चीन के प्रभुत्व वाले दक्षिण चीन सागर में चीन को चुनौती दे सकता है। वियतनाम ने भारत से पहले ये समझौता किसी भी और देश के साथ नहीं किया है।
वियतनाम को मदद
राजनाथ सिंह ने अपने दौरे के दौरान वियतनाम के साथ 500 मिलियन डॉलर की डिफेंस लाइन ऑफ क्रेडिट भी साइन की है और इससे पहले भारत ने इतना विशालकाय डील किसी भी देश के साथ साइन नहीं किया था। इस डील के तहत अब वियतनाम भारत से ब्रह्मोस सुपसोनिक मिसाइल और आकाश एयर डिफेंस सिस्टम खरीद सकता है। वियतनाम के साथ हुए इस समझौते से ना सिर्फ वियतनाम की सेना मजबूत होगी, बल्कि भारत के मेक इन इंडिया कार्यक्रम को भी बहुत बड़ा बूस्ट मिला है।
वियतनाम से ट्रेड
वहीं, भारत और वियतनाम के बीच ट्रेड और कॉमर्शियल स्थिति को देखें, तो भारत और वियतनाम के बीच फिलहाल करीब 14 अरब डॉलर का कारोबार हो रहा है और भारत वियतनाम के टॉप-10 ट्रेडिंग पार्टनर्स में से एक है, लेकिन इसके बाद भी दोनों देशों ने अभी तक मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर को एक्सप्लोर नहीं किया है। वियतनाम पूरी दुनिया के लिए मैन्यूफैक्चरिंग हब है और भारत अपने इस खास दोस्त का मदद नहीं ले पाया है, लिहाजा भारत के लिए ये एक गोल्डेन मौका हो सकता है और ऐसा करने से ना सिर्फ मेक इन इंडिया को पंख लगेंगे, बल्कि हम आपे चलकर चीन पर अपनी निर्भरता को भी काफी कम कर सकते हैं। हालांकि, पिछले दिनों इसमें एक बड़ी सफलता भी मिली है, जब एप्पल कंपनी ने आईफोन 13, 14 और आईपैड का उत्पादन चीन में नहीं करके वियतनाम और भारत में किया है, लिहाजा भारत इस फ्रंट पर काम करके चीन को कड़ी चुनौती दे सकता है।
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