“कौन कहता है तालिबान बदल गया ? मेरे दोस्तों के नाक, कान और उंगलियों को बेरहमी से काट लिया”
काबुल, 04 सितंबर। मेरा नाम मोहम्मद अजीम है। मैं काबुल में इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रह था। पढ़ाई महंगी थी इसलिए एक बेकरी में पार्टटाइम नौकरी कर ली। सब कुछ ठीक चल रहा था। लेकिन 15 अगस्त 2021 के बाद जिंदगी में जैसे जलजला सा आ गया। सब कुछ तबाह हो गया। मैं नसीब वाला था। सामने मौत खड़ी थी। लेकिन ऊपर वाले की करम से बच निकला।
जिंदगी और मौत के कश्मकश की कहानी रूह कंपा देने वाली है। कुछ लोग इस मुगालते में हैं कि तालिबान बदल गया है। लेकिन ये उनका वहम है। वह पहले की तरह बेरहम और वहशी है।
काबुल में इंजीनियरिंग की पढ़ाई
जब इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए मैं काबुल गया तो दिलोदिमाग में बड़े-बड़े सपने तैर रहे थे। बेकरी में पार्टटाइम नौकरी से किसी तरह पढ़ाई का खर्च चल पाता था। लेकिन पैसे की किल्लत बनी रहती। मैं अपने दो दोस्तों के साथ एक कमरे में रहता था। उस समय अफगानिस्तान में जनाब अशरफ गनी की सरकार थी। अफगानी फौज ने मुनादी कर रखी थी कि अगर कोई नागरिक तालिबान से जुड़े लोगों की जानकारी देगा तो उसे नकद इनाम दिया जाएगा। खबर देने वाले की पहचान को बिल्कुल गुप्ता रखा जाएगा। 2016 की बात है। बहुत समझदारी भी नहीं थी। पैसे की जरूरत ने हम दोस्तों को अफगानी सेना के इस ऑफर पर गौर करने के लिए मजबूर कर दिया। एक दिन हमने 20 अमेरिकी डॉलर पाने के लिए तालिबान के एक गुप्त ठिकाने का भेद बता दिया। बात आयी गयी हो गयी। हम तो यही सोचते रहे कि हमारे इस काम के बारे में किसी को कुछ खबर नहीं। हमने कभी सपने भी नहीं सोचा था कि एक दिन तालिबान की हुकूमत फिर लौटेगी। इसलिए बेखौफ पढ़ाई करते रहे।
तालिबान ने नाक, कान और उंगलियां काट लीं
लेकिन जब जुलाई- अगस्त 2021 में हालात बदलने लगे तो चिंता बढ़ने लगी। लेकिन मन में एक भरोसा था कि अमेरिका की मदद से अफगान फौज आने वाले खतरे को टाल देगी। लेकिन 15 अगस्त को उम्मीदों का ये चिराग बुझ गया। तालिबान ने अफगानिस्तान पर कब्जा जमा लिया। तालिबान के सैनिक हर इलाके में फैलने लगे। एक दिन उन्होंने हमारे कमरे को घेर लिया। हम भले इत्मिनान में थे लेकिन तालिबान के लोकल ऑपरेटर को हमारे भेदिया होने जानकरी पहले से थी। हथियारों से लैस तालिबान सैनिकों ने पहले मेरे दो दोस्तों को आगे खड़ा किया। फिऱ उनकी नाक और कान को काट लिया। इसके बाद हाथ और पैर की उंगलियां काट लीं। मैं यह सब देख कर सन्न रह गया। सामने मौत खड़ी थी। मेरे दोस्तों के चीखने-चिल्लाने से तालिबानी सैनिकों का सारा ध्यान उनकी तरफ चला गया। मैंने मौका ताड़ा और किसी तरह वहां से निकल भागा। 17 अगस्त को छिपछिपा कर काबुल से निकल गया। जेब में फूटी कौड़ी न थी। फिर भी किसी कीमत पर अफगानिस्तान से बाहर निकलना चाहता था।
दो दिन- तीन रात तक भागता रहा
मैं अपने पिता से मिला। मुल्क में मची सियासी उथल पुथल के बीच उनके पास भी पैसे नहीं थे। लेकिन उन्होंने मेरी जिंदगी बचाने के लिए पड़ोसियों से कर्ज लिया। कुछ पैसे लेकर पाकिस्तान जाने के ख्याल से आगे चल पड़ा। मैं ताजिक समुदाय का अफगानी हूं। अफगानिस्तान कई नस्लीय और जनजातीय कबीलों का मिलाजुला देश है। देश की कुल आबादी के 42 फीसदी नागरिक पख्तून समुदाय से ताल्लुक रखते हैं। ताजिक समुदाय के लोगों की आबादी 27 फीसदी है। मेरा समुदाय अफगानिस्तान में दूसरा सबसे बड़ा नस्लीय समूह । लेकिन अफगानिस्तान के शासन में हमारी हिस्सेदारी बहुत कम है। तालिबान तो पख्तूनों की ही जमात है। कुछ उज्बेक और ताजिक लोग भी इस संगठन में हैं लेकिन उनकी कोई हैसियत नहीं। दो दिन और तीन रात में लगातार पैदल चलता रहा। हर वक्त डर बना रहता कि तालिबान का कोई सैनिक पकड़ न ले। इस खौफ के बीच में बिना रुके चलता रहा। जो मेरे हाथ में था, वो मैं कर रहा था।
पाकिस्तानी गार्डों से मांगी रहम की भीख
पैदल चलते-चलते थक कर चूर हो गया था। आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा। लेकिन जीने की तमन्ना में पैर खींचे जा रहा था। आखिरकार में कंधार राज्य के स्पिन बोल्डक शहर पहुंच गया। स्पिन बोल्डक की सीमा पाकिस्तान के बलूचिस्तान से मिलती है। इस पार अफगानिस्तान स्पिन बोल्डक और उस पार बलूचिस्तान का चमन शहर। सीमा पर पाकिस्तान के सुरक्षा गार्ड मौजूद थे। मेरे पास न तो कॉलेज का पहचान पत्र था और न ही शरण लेने के लिए कोई वाजिब दस्तावेज। इसके बाद भी उनसे पाकिस्तान में जाने देने की मिन्नते कीं। लेकिन पाकिस्तानी गार्डों ने इंकार कर दिया। पीठ पर लटक रहे झोले में एक मेडिकल पर्ची थी। मैंने इसे दिखाया और कहा मेरी जिंदगी खतरे में है। तालिबान के सैनिक मेरे पीछे हैं। मुझ पर रहम खाइए। मेरी हालत देख कर शायद उन्हें तरस आ गयी। मेरी इल्तजा उन्होंने मंजूर कर ली। इस इनायत के लिए मैंने उनको तहे दिल से शुक्रिया किया। अब मैं पाकिस्तन के चमन शहर में दाखिल हो चुका था।
क्या सोचा था और क्या हो गया
मैं एक अंजान देश के अंजान शहर में था। कुछ मालूम न था कि कहां जाना है और किससे मदद मांगनी है। मुझे यहां की बलूची भाषा भी नहीं आती थी। कुछ और न सूझा तो बस स्टैंड के नजदीक एक मस्जिद के बाहर रात में सो गया। फिर में कराची आ गया। यहां एक रिक्शेवाले ने मुझे एक रिफ्यूजी कैंप के बारे बताया। उसने बताया कि अफगनिस्तान से आने वाले रिफ्यूजी पहले से ही यहां रह रहे हैं। अपनी हालत देख कर मेरा दिल बैठा जा रहा था। अब कुछ ही दिन तो रह गये थे। कहां तो मैं इंजीनियर बनने वाला था। न जाने कितने ख्वाब पाल रखे थे। लेकिन किस्मत ने दर-दर की ठोकरें खाने पर मजबूर कर दिया। फिर दिल को हौसला देने के लिए अपने आप से कहा, मौत के जबड़े से जिंदगी छीन लाये, ये क्या कम है ?