पाकिस्तान के हाथों से क्या अब तालिबान निकल चुका है?
अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका के समर्थन वाली सरकार को अपदस्थ कर तालिबान ने अपने हाथ में कमान लिया था तो पाकिस्तान में ख़ुशी दिखी थी. अब ऐसा लग रहा है कि पाकिस्तान के लिए तालिबान से तालमेल रखना आसान नहीं है.
चरमराती अर्थव्यवस्था और सिर उठाता चरमपंथ पाकिस्तान के लिए बड़ी चिंता का सबब बना हुआ है.
पाकिस्तान के सामने ये संकट इतना गंभीर हो चुका है कि इससे निपटने के रास्तों पर विचार करने के लिए राजधानी इस्लामाबाद में दो दिनों तक मंथन चला. ये मीटिंग थी पाकिस्तान की राष्ट्रीय सुरक्षा समिति की.
एनएससी पाकिस्तान में नागरिक और सैन्य मसलों पर विचार विमर्श के लिए सबसे बड़ा फोरम है. इसकी मीटिंग की अध्यक्षता प्रधानमंत्री शाहबाज़ शरीफ़ ने की, जिसमें वरिष्ठ कैबिनेट मंत्री और ख़ुफ़िया प्रमुख के साथ सेना प्रमुख सैयद असीम मुनीर भी शामिल हुए.
मीटिंग में चर्चा किस मसले पर हुई?
दो दिन के गहन विचार विमर्श के बाद एक विज्ञप्ति जारी की गई, जिसमें अफ़गानिस्तान का सीधा ज़िक्र तो नहीं था लेकिन इसमें परोक्ष रूप से अफ़गानिस्तान की तालिबान सरकार को एक चेतावनी ज़रूर थी.
पीएम ऑफिस की तरफ़ से जारी प्रेस रिलीज़ में ये साफ लिखा गया है कि पाकिस्तान किसी भी देश में आतंकवाद को पनाह देने, इसे सम्मानित करने का समर्थन नहीं करता. पाकिस्तान अपनी आवाम की सुरक्षा के लिए किसी भी हद तक क़दम उठाने के लिए स्वतंत्र है."
एनएससी ने पूरी ताक़त के साथ हिंसा भड़काने या इसका सहारा लेने वाली सभी संस्थाओं, व्यक्तियों से निपटने की अपनी प्रतिबद्धता दोहराई. फोरम में आतंकवाद के खिलाफ़ 'नेशनल एक्शन प्लान' को नए सिरे से तेज़ करने का फैसला किया गया. साथ ही इस बात पर जोर दिया गया केन्द्र से लेकर राज्य सरकारें ऐसे सभी क़दमों को लागू करने में अपनी भूमिका निभाएंगी.
इसके अलावा एनएससी ने देश की क़ानून व्यस्था संभालने वाली सभी एजेंसियों, ख़ासतौर पर काउंटर टेरेरिज़म डिपार्टमेंट की क्षमता बढ़ाने का फैसला किया. पाकिस्तान में आतंकवाद पर काबू करने के लिए बनाई गई ये संस्था सबसे ज्यादा आतंकी हमलों के निशाने पर रही है.
प्रेस रिलीज़ के एक बड़े हिस्से में देश की लगातार बिगड़ती आर्थिक हालत का ज़िक्र था. इसमें कहा गया था कि फोरम को अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं से चल रही बातचीत की जानकारी दी गई. पाकिस्तान फ़िलहाल अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के क्रार्यक्रम को पटरी पर लाने के लिए संघर्ष कर रहा है.
कुछ आर्थिक विशेषज्ञ ये आशंका जता रहे हैं कि अगर वक़्त रहते अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की मदद नहीं मिली, तो लगातार कम होते विदेशी मुद्रा भंडार और डॉलर की कमी की वजह से पाकिस्तान डिफॉल्टर बनने की कगार पर पहुंच जाएगा.
यहां गौर करने वाली बात है कि मदद हासिल करने के लिए अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष की कुछ आधार शर्ते होती हैं. मसलन सब्सिडी में कमी करना और पेट्रोलियम प्रोडक्ट्स की क़ीमते बढ़ाना. लेकिन जनता की नाराज़गी मोल लेने वाले इन क़दमों पर पहल करने से पाकिस्तान की मौजूदा पीडीएम गंठबंधन सरकार हिचक रही है.
सरकार के मुताबिक़ देश में डॉलर की कमी की एक वजह है अफ़गानिस्तान के लिए अवैध फ्लाइट. इसे देखते हुए एनएससी ने अर्थव्यवस्था को स्थिर बनाने के लिए हवाला समेत अवैध मुद्रा के दूसरे सभी कारोबारों पर लगाम कसने का फ़ैसला किया है.
टीटीपी से कोई बातचीत नहीं.
पाकिस्तानी सुरक्षा एजेंसियों तक पहुँच रखने वाले कुछ पत्रकारों और विशेषज्ञों की मानें तो सरकार जल्द से जल्द आतंकी संगठनों के ख़िलाफ़ बड़ा ऑपरेशन करने पर विचार कर रही है. ख़ासतौर पर ख़ैबर पख्तुनख़्वा और बलूचिस्तान में सक्रिय आतंकी संगठनों को लेकर सरकार गंभीर है.
जबसे प्रतिबंधित तहरीक़-ए-तालिबान ने युद्धविराम ख़त्म करने की घोषणा की है, तब से पाकिस्तान में क़ानून व्यस्था संभालने वाली एजेंसियों पर आतंकी हमले तेज़ी से बढ़े हैं.
इसे देखते हुए पाकिस्तानी सेना ट्राइबल इलाक़ों में पहले से ही कई ऑपरेशन चला रही है. सुरक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि सरकार आने वाले दिनों में ऐसे और भी ऑपरेशन शुरू करने वाली है.
पिछले 15 सालों में टीटीपी पाकिस्तान के सबसे ख़तरनाक़ आतंकी संगठन के रूप में उभरा है. इस दौरान इसने हज़ारों आम लोगों के साथ सैनिकों को भी निशाना बनाया है.
पिछले साल पाकिस्तान सरकार ने टीटीपी के साथ अनौपचारिक बातचीत शुरु की थी. ये बातचीत अफ़गान तलिबान की मध्यस्थता में हो रही थी.
लेकिन पीटीटी की ग़ैर-वाजिब मांगों की वजह से बातचीत बीच में ही बिगड़ गई. इसके बाद पिछले दिसंबर में टीटीपी ने सरकार के साथ युद्धविराम ख़त्म करने और पूरे देश में आतंकी हमले शुरू करने का ऐलान कर दिया.
पाकिस्तान की आवाम पहले भी टीटीपी के साथ बातचीत के ख़िलाफ़ थी. अब गृहमंत्री राना सनानुल्लाह ने हालिया इंटरव्यू में ये माना कि 'टीटीपी ने बातचीत की पेशकश को सरकार की कमज़ोरी माना.
इस बात का एहसास सेना को भी हो चुका है. इसलिए सरकार अब ऐसी कोई भी पेशकश नहीं करने वाली. बल्कि हमारी तरफ से साफ बात ये है कि अब टीटीपी या किसी भी आतंकी संगठन से कोई बातचीत नहीं होगी.
एनएससी की बैठक के बाद पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ख्वाजा आसिफ़ ने भी एक इंटरव्यू में साफ कहा कि 'अफ़गानिस्तान की ज़मीन का इस्तेमाल पाकिस्तान के ख़िलाफ़ किया जा रहा है. पाकिस्तान की सरकार पहले से ही ये दावा करती रही है कि सरहद के पास अफ़गानिस्तान के इलाक़े टीटीपी के लिए सुरक्षित पनाहगाह बने हुए हैं. टीटीपी के आका अफ़ग़ानिस्तान में बैठ कर पाकिस्तान में हमलों की योजना बनाते हैं और वहीं से अंजाम देते हैं.'
पाकिस्तानी रक्षा मंत्री ने ये भी कहा कि सरकार अफ़ग़ानिस्तान की तालिबान सरकार के साथ बातचीत करेगी और उन्हें याद दिलाएगी कि दोहा समझौते में उन्होंने आतंकी संगठनों को अपनी ज़मीन का इस्तेमाल नहीं करने देने का जो वादा अंतरराष्ट्रीय समुदाय से किया था, उसका सख़्ती से पालन करे.
पाकिस्तान के गृह मंत्री ने इस बात के संकेत दिए कि अगर ज़रूरत पड़ी तो टीटीपी के आकाओं का पीछा अफगानिस्तान में घुसकर किया जाएगा.
सलीम सैफ़ी के मुताबिक़ अब 'अच्छे तालिबान' और 'बुरे तालिबान', या 'अफ़गान तालिबान' और 'पाकिस्तान तालिबान' के बीच फ़र्क़ करने का कोई तुक नहीं. ये सब बकवास साबित हो चुका है. उनकी नज़र में सरहद के आस पास सक्रिय दोनों तालिबान एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. दोनों एक ही विचारधारा में यक़ीन रखते हैं.
दोनों ने ही अफ़गानिस्तान में अमेरिकी हमले के ख़िलाफ़ जंग छेड़ी. आतंकवाद के ख़िलाफ़ इस जंग में पाकिस्तान अमेरिका का साझीदार बना तो इस बात से नाराज टीटीपी ने पाकिस्तान में आतंकी हमलों को अंजाम देना शुरू कर दिया.'
इसलिए सलीम सैफी को ऐसा क़तई नहीं लगता कि पाकिस्तानी तालिबान को काबू करने के लिए अफगान तालिबान से मदद लेना फ़ायदेमंद होगा. उनका मानना है कि अफ़ाग़ान तालिबान कभी भी टीटीपी के खिलाफ़ कार्रवाई नहीं करेगा.
एनएससी के फैसलों पर प्रतिक्रिया.
अमेरिका ने एनएससी के फ़ैसलों का पुरज़ोर समर्थन किया है. अपने साप्ताहिक मीडिया ब्रीफिंग में अमेरिकी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता नेड प्राइस ने कहा कि 'पाकिस्तान को पूरा हक़ है, खुद को आतंकवाद से बचाने का.'
नेड प्राइस ने आगे कहा "पाकिस्तान की जनता आतंकी हमलों से बुरी तरह प्रभावित हुई है. अफ़गानिस्तान की तालिबान सरकार को आतंकवाद के लिए अपनी ज़मीन नहीं इस्तेमाल होने देने का वादा निभाना चाहिए. लेकिन तालिबान सरकार या तो ऐसा करना नहीं चाहती या फिर कर नहीं पा रही."
उधर तालिबान के रक्षा मंत्री ने राना सनाउल्लाह के उस बयान पर कड़ा ऐतराज़ जताया जिसमें उन्होंने टीटीपी के ख़िलाफ़ अफ़गानिस्तान में घुसकर कार्रवाई की बात कही थी. तालिबानी रक्षा मंत्री ने कहा कि 'इससे दोनों देशों के रिश्ते ख़राब होंगे. टीटीपी के आतंकी अड्डे अफगानिस्तान में नहीं, बल्कि पाकिस्तान में ही हैं.'
तालिबान सरकार के प्रवक्ता जबिउल्लाह मुजाहिद ने भी पाकिस्तान सरकार से अपील की कि वो ऐसे बिना किसी आधार वाले भड़काऊ बयानों से बचे.
उन्होंने पाकिस्तान के मंत्रियों के बयानों को 'अफ़सोसनाक' क़रार देते हुए कहा कि उनकी सरकार पूरी कोशिश कर रही है कि अफ़गानिस्तान की ज़मीन का इस्तेमाल पाकिस्तान या किसी दूसरे देश के ख़िलाफ़ न हो.
विशेषज्ञों का मानना है कि टीटीपी पर कार्रवाई को लेकर मतभेद का असर पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान के संबंधों पर साफ़ दिखने लगा है. ये ऐसा रिश्ता है जिससे कमज़ोर करना दोनों में से किसी के हित में नहीं.
सलीम सैफ़ी के मुताबिक़ तालिबान सरकार भी बड़ी मुश्किल में फंसी हुई है. 'उन्हें पता है पूरी दुनिया में अगर कोई अफगानिस्तान के साथ खड़ा रहने वाला देश था, वो पाकिस्तान था. खाने पीने की चीज़ों से लेकर इलाज के लिए दवाइयों की सप्लाई के मामले में वो इस्लामाबाद की राह देखते रहे हैं. इसे वो तोड़ना नहीं चाहेंगे. लेकिन उनकी हरक़तों से ऐसा भी नहीं लगता कि टीटीपी के आतंकियों को पकड़ने में वो पाकिस्तान का साथ देंगे.'
सीनियर जर्नलिस्ट जाहिद हुसैन की नज़र में आतंकवादियों के ख़िलाफ़ त्वरित सैन्य करवाई से भले ही इनकार नहीं किया जा सकता, लेकिन ये इस जटिल समस्या का स्थायी समाधान नहीं हो सकता.
जाहिद कहते हैं "अब भी मसले की तह तक जाने की बजाय पूरा ज़ोर सिर्फ़ सतह पर लगी आग को बुझाने में लगाया जा रहा है. आज की तारीख में हमें अपनी आतंकवाद विरोधी रणनीति की गंभीर समीक्षा की ज़रूरत है, जो अब तक अपने मक़सद को हासिल करने में नाकाम साबित हुई है."
टीटीपी का बढ़ता ख़तरा.
सबसे बड़ा ख़तरा तो पाकिस्तान की मौजूदा सरकार के ऊपर ही मंडरा रहा है. टीटीपी ने हालिया धमकी में ये साफ़ कर दिया है कि वो अब तक आम लोगों और सेना के जवानों को निशाना बना रहे थे. अब सरकार में शामिल पाकिस्तान मुस्लिम लीग (एन) और पाकिस्तान पीपल्स पार्टी के नेताओं पर हमले तेज़ करेंगे.
टीटीपी ने ये भी कहा है कि अगर ये दोनों पार्टियां उनके संगठन के ख़िलाफ़ बनी रहीं, तो उनके नेताओं को नहीं छोड़ेंगे. इन्होंने आम लोगों को भी चेतावनी दी है कि वो इन नेताओं के ईर्द-गिर्द न जाएं. टीटीपी ने ख़ासतौर पर विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो ज़रदारी और शहबाज़ शरीफ़ का नाम लया है.
आर्थिक मोर्चे पर क्या होगा?
एनएससी की बैठक के बाद जारी विज्ञप्ति में देश को आर्थिक संकट से बाहर निकालने वाले किसी रोड मैप पर गहन विचार का जिक्र नहीं है. लेकिन एक बात पर सहमति ज़रूर दिखी- आईएमएफ के कार्यक्रम को वापस पर पटरी पर लाने के लिए सभी लोग मिल जुलकर काम करें.
जानकारों की मानें तो अगर बैठक में इस तरह की सहमति बनी है तो इसका मतलब साफ़ है कि पीडीएम की अगुवाई वाली गठबंधन सरकार जल्द ही कुछ सख्त फैसले ले सकती है, जो अब तक वो लोगों का समर्थन खोने के डर से नहीं ले रही थी.
12 पार्टियों की गठबंधन सरकार के लिए इमरान ख़ान की बढ़ती लोकप्रियता पहले से ही चुनौती बनी हुई है. ये बात सभी सर्वेक्षणों में साफ तौर पर कही जा रही है कि अगले आम चुनाव में इमरान खान की जीत तय है. लेकिन एनएससी की बैठक में ये बात साफ कर दी गई कि सरकार के पास अब तेजी से फैसले लेने के सिवा कोई चारा नहीं.
सीनियर जर्नलिस्ट सैयद तलत हुसैन भी मानते है कि 'सरकार की निर्णय लेने में अक्षमता देश को डिफॉल्ट जैसी स्थिति में धकेल रही है. इन्हें अब सोचना होगा कि अब ये ज़्यादा दिनों तक चीज़ों को टाल नहीं सकते. आईएमएफ़ प्रोग्राम को जारी रखने के लिए सरकार को उनकी शर्तें माननी ही होंगी.'
हालांकि सरकार ने इस दिशा में प्रयास किए. जैसे कि बिजली बचाने के लिए बाज़ारों को रात के 8.30 बजे तक और शादी घरों को रात 10 बजे तक बंद करना फैसला. लेकिन सरकार के इन आदेशों का कारोबारी लोगों ने कड़ा विरोध किया. ख़ासतौर पर पंजाब और खैबर पख्तुनवा प्रांत में जहां विपक्षी तहरीक़-ए-इंसाफ़ पार्टी की सरकार है. मीडिया में भी सरकार की इन नीतियों का मज़ाक उड़ा गया.
देश के जाने माने बिजनेस संवाददाता शाहबाज़ राना ने 'एक्सप्रेस ट्रिब्यून' में अपनी छपी रिपोर्ट में ये दावा किया कि आईएमएफ़ प्रोग्राम बहाल करने के लिए बिजली और गैस की क़ीमतों में वृद्धि और दूसरे टैक्सों में बढ़ोतरी में आशंका की वजह से महंगाई दर 24.5 फ़ीसदी तक पहुंच गई.
इस दिशा में पाकिस्तान की वित्त राज्य मंत्री डॉक्टर आयशा पाशा की तरफ़ से संकेत ये है कि आईएमएफ के साथ जो बातचीत नवंबर में टल गई थी वो अब जेनेवा में नौ जनवरी को हो सकती है. इसका मतलब ये है कि बैठक के बाद करेंसी एक्सचेंज रेट को लेकर कुछ कड़े फैसले लिए जा सकते हैं.
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