क्या पाकिस्तान को अमेरिकी सैन्य मदद ने बनाया था भारत को रूसी हथियारों का ख़रीदार?
पाकिस्तान के गठन के बाद ही अमेरिका ने उसकी सैन्य मदद शुरू कर दी थी. भारत ने इसे एशियाई मामलों में दखल बताया था. अमेरिका ने भारत को भी हथियार देने की पेशकश की थी जिसे नेहरू ने ठुकरा दिया था.
19 मई 1954 को कराची में संयुक्त राज्य अमेरिका और पाकिस्तान के बीच एक द्विपक्षीय रक्षा समझौते पर हस्ताक्षर किए गए जिसके अनुसार संयुक्त राज्य अमेरिका ने पाकिस्तानी सेना को सैन्य उपकरण और प्रशिक्षण देने पर सहमति जताई थी. समझौते के बाद दोनों सरकारों ने ऐलान किया की कि यह सैन्य गठबंधन नहीं है, न ही यह संयुक्त राज्य अमेरिका को सैन्य ठिकाने देने के लिए सहमति हुई है.
दोनों देशों के बीच समझौते पर हस्ताक्षर से पहले तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति आइजनहावर ने कहा था कि सैन्य उपकरणों के माध्यम से पाकिस्तान की मदद करने का फैसला मध्य-पूर्व रक्षा क्षमता को रणनीतिक मजबूती देने के मकसद से किया गया है. उन्होंने यह भी वादा किया कि सैन्य मदद के लिए भारत की तरफ से अनुरोध किया जाएगा तो भारत को भी इस तरह की मदद की जरूरत होने पर सहानुभूतिपूर्वक विचार किया जाएगा.
दोनों देशों के सैन्य प्रतिष्ठानों के बीच शुरुआती मतभेदों और गलतफहमियों के बाद अमेरिकी रक्षा विभाग ने आखिरकार 1955 में अमेरिकी हथियारों और सैन्य उपकरणों के साथ पाकिस्तानी सेना की चार इन्फैंट्री (पैदल सेना) और ढाई बख्तरबंद डिवीजनों (तोपखाने) को सुसज्जित किया, जिसके विवरण अमेरिका-पाकिस्तान रक्षा संबंधों और डीक्लासिफाइड सरकारी दस्तावेजों के आधार पर लिखी गई कई किताबों में दर्ज हैं.
पाकिस्तान के गठन के बाद राष्ट्रीय बलों को सैन्य उपकरणों और प्रशिक्षण की सख्त जरूरत थी. पैसे की कमी और सीमित वित्तीय संसाधनों के चलते पाकिस्तान की तत्कालीन सरकार अपनी सेना को हथियार और सैन्य उपकरण मुहैया कराने या ऐसी सैन्य जरूरतों को पूरा कर पाने की हालत में नहीं थी.
पाकिस्तान सेना के तत्कालीन कमांडर-इन-चीफ जनरल अयूब खान को संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ रक्षा संबंधों का शिल्पकार माना जाता है. अमेरिकी प्रशासन में सरकारी नौकरशाही की सुस्त रफ्तार की वजह से हथियारों की आपूर्ति में देरी जैसी समस्याओं का वह तेजी से समाधान कर निकाल लेते थे.
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अमेरिकी रक्षा विभाग द्वारा पाकिस्तानी सशस्त्र बलों को हथियारों और उपकरणों के लिए मुहैया कराई गई शुरुआती धनराशि पाकिस्तानी सरकार की अपेक्षाओं से बहुत कम थी.
"पाकिस्तान डिफेंस पॉलिसी" नाम की किताब के लेखक प्रो. परवेज इकबाल चीमा के मुताबिक जनरल अयूब खान सहित पाकिस्तानी सरकारी अधिकारियों ने वाशिंगटन द्वारा पेशकश की गई मामूली रकम पर खुले तौर पर चिंता जाहिर की थी.
अयूब खान द्वारा जोरदार और लगातार लॉबीइंग के चलते संयुक्त राज्य अमेरिका ने इस मकसद के लिए आवंटित धनराशि में बढ़ोत्तरी की. यह वो दौर था जब जनरल अयूब खान ने अभी मार्शल लॉ नहीं लगाया था.
पाकिस्तान को अमेरिकी सैन्य मदद के ऐलान से एक दिन पहले राष्ट्रपति आइजनहावर ने भारतीय प्रधानमंत्री नेहरू को एक खत भेजा, जिसमें नेहरू को भरोसा दिलाया गया था कि पाकिस्तान को सैन्य मदद भारत के खिलाफ नहीं है और अमेरिकी सैन्य मदद का इस्तेमाल करते हुए अगर पाकिस्तान ने हमला किया तो अमेरिका ऐसी किसी भी आक्रामकता को नाकाम करने के लिए तत्काल और उचित कार्रवाई करेगा.
बता दें कि इससे पहले प्रधानमंत्री नेहरू ने भारत को इसी तरह की सैन्य मदद की आइजनहावर की पेशकश को मना दिया था. नेहरू ने भारतीय संसद में अपने संबोधन में संयुक्त राज्य अमेरिका पर एशियाई मामलों में दखल देने का आरोप लगाया, लेकिन अपने भाषण में उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति की कड़ी आलोचना से परहेज किया और कहा कि, 'मुझे यकीन है कि आइजनहावर भारत को नुकसान नहीं पहुंचाना चाहते.'
बाद में, नई दिल्ली में अमेरिकी दूतावास के डीक्लासिफाइड किए गए केबल (राजनयिक पत्राचार) के अनुसार अमेरिकी राजदूत के साथ एक निजी बातचीत में नेहरू ने कहा था कि भारत में छोटी संख्या में चरमपंथी मुसलमान हैं, जिनको उम्मीद है कि (सैन्य) मदद से भारत पर फिर से कब्जा हासिल कर लेंगे.
नेहरू ने अमेरिकी राजदूत से यह भी कहा कि इस भावना ने असल में हिंदू उग्रवाद की आशंका को जन्म दिया है, जो उस समय हर तरह की सैन्य तैयारियों की मांग कर रहे थे. इन हालात ने न केवल भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव बढ़ा दिया था, बल्कि भारत के भीतर धार्मिक संगठन भी बढ़े, जिसका मतलब था कि इस सहायता कार्यक्रम (अमेरिकी नीति) के नतीजे में भारत की धर्मनिरपेक्षता की नीति भी प्रभावित हो रही थी.
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पाकिस्तान को सैन्य मदद 'फ्री लंच' नहीं था
अमेरिकी कूटनीति के एक प्रमुख इतिहासकार रॉबर्ट मैकमोहन ने अपनी किताब कोल्ड वॉर ऑन द पेरिफेरी में कोरियाई युद्ध के मद्देनजर मध्य-पूर्व में अमेरिकी सुरक्षा और विदेश नीति की समीक्षा करने का आह्वान किया था. और इस बदलाव का सबसे पहला फायदा पाकिस्तान को हुआ.
मैकमोहन ने अपनी किताब में लिखा है कि जब जून 1950 में उत्तर कोरिया ने दक्षिण कोरिया की 38वीं "पैरालेल" (दोनों देश के बीच की सरहद) को पार किया तो द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अंतरराष्ट्रीय संबंधों की प्रकृति को समझने में संयुक्त राज्य अमेरिका का नाटकीय बदलावों से सामना हुआ.
संयुक्त राज्य अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी दुनिया ने सोवियत संघ को एक 'आक्रामक' और 'अनियंत्रित सैन्य शक्ति' के रूप में देखना शुरू किया. यूरोप के अंदर अशांति थी जबकि पश्चिमी और पूर्वी यूरोप की सीमाओं पर अमेरिकी सैनिक सोवियत फौज के सामने डटे थे.
पूर्वी यूरोप में अमेरिकी मित्र राष्ट्रों की मजबूत सैन्य उपस्थिति थी, इसलिए अमेरिका के पश्चिमी यूरोपीय सहयोगियों के खिलाफ सोवियत हमले खतरा न के बराबर था. दक्षिण कोरिया में उत्तर कोरिया की आक्रामकता के नतीजे में सोवियत संघ के पूर्वी एशिया के लिए आसन्न खतरे को आधुनिकतम हथियारों से लैस अमेरिकी फौज के नेतृत्व ने खारिज कर दिया था.
संयुक्त राज्य अमेरिका ने अंदाजा लगाया कि सोवियत सीमा के पास सबसे खतरनाक मोर्चा मध्य-पूर्व है, जो सोवियत आक्रामकता के चलते सुरक्षित नहीं है. मध्य-पूर्व के अरब देश विकासशील देश थे, जिनके पास सोवियत संघ के हमले से बचाव के लिए हथियार और सेना नहीं थी.
मध्य-पूर्व के अरब देश सोवियत संघ के खिलाफ एक भरोसेमंद सैन्य शक्ति नहीं हो सकते थे. इन हालात में अमेरिकी सेना और युद्ध रणनीतिकारों की निगाहें पाकिस्तान पर टिकीं जो दक्षिण एशिया में एक उभरता हुआ मुस्लिम राष्ट्र था, जहां के लोगों में युद्ध में शौर्य की परंपरा थी और जो सोवियत संघ के इतना पास भी था कि जहां से सोवियत सीमा के अंदर बमबारी की जा सकती थी, और निगरानी के लिए की जासूसी की गतिविधियां भी मुमकिन थीं.
तत्कालीन अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन फोस्टर डलेस पाकिस्तानी सेना के नौजवान अफसरों से बहुत प्रभावित थे. बाद में उन्होंने अमेरिकी कांग्रेस कमेटी के सामने गवाही में कहा था कि वह पाकिस्तानी सेना के अफसरों को 'अविश्वसनीय अरबों' के बिल्कुल उलट मानते थे.
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अमेरिकी सैन्य विदेश नीति के रणनीतिकारों ने मध्य-पूर्व रक्षा ढांचे में पाकिस्तान को स्थायी जगह देने पर सोचना शुरू कर दिया. और फिर पाकिस्तानी सेना को हथियारों से लैस करने लगे.
उस समय प्रधानमंत्री लियाकत अली खान सहित पाकिस्तानी नागरिक नेतृत्व, वाशिंगटन में होने वाली बहसों और इस तथ्य से अच्छी तरह परिचित थे कि अमेरिकी नीति-नियंता दायरे में पाकिस्तान को मध्य-पूर्व में सोवियत आक्रमण के खिलाफ "प्रथम रक्षा पंक्ति" के रूप में देखा जा रहा है.
अमेरिकी सैन्य रणनीतिकारों का मानना था कि पाकिस्तानी सेना सोवियत सैन्य आक्रमण को धीमा कर सकती है और इस बीच संयुक्त राज्य अमेरिका और उसके पश्चिमी सहयोगियों को मध्य-पूर्व में एक निर्णायक सैन्य कार्रवाई का फैसला करने का समय मिल जाएगा, जैसा कि उन्होंने कोरिया की राजधानी में किया था.
ऐसा व्यापक रूप से माना जाता है कि उन दिनों पाकिस्तानी सेना ने पश्चिमी सैन्य शक्तियों के साथ संयुक्त सैन्य अभ्यास भी किया था, जिनमें मध्य-पूर्व के तेल के कुओं या प्रतिष्ठानों को सोवियत कब्जे से वापस छीनने की मॉक ड्रिल की गई थी.
1950 में मध्य-पूर्व रक्षा ढांचे में पाकिस्तान को शामिल करने की अमेरिकी कोशिशें "कागजी कवायद" रहीं. वह पाकिस्तान के सैन्य बल को "स्वतंत्र विश्व" के खिलाफ सिर्फ सोवियत हस्तक्षेप को रोकने के साधन के रूप में देखते रहे. चीन और सोवियत संघ की मदद से उत्तर कोरिया के दक्षिण कोरिया पर हमले के बाद सोवियत दखल का खतरा कई गुना बढ़ गया था. फिर भी अमेरिकियों को लगता था कि कश्मीर विवाद को हल किए बिना भारत को एक सैन्य खतरे के रूप में न्यूट्रलाइज (बेअसर) कर पाकिस्तान से मध्य-पूर्व के तेल प्रतिष्ठानों की रक्षा करवाई जा सकती है.
इस पूरी अवधि में अमेरिकी खुलेआम पाकिस्तान को धन दे रहे थे और पाकिस्तानी सशस्त्र बलों को हथियार भी दे रहे थे और वे यह सब मध्य-पूर्व की सुरक्षा को ध्यान में रखकर किया जा रहा था.
1950 के दशक में अमेरिकी सैन्य योजनाकारों के दिमाग में पाकिस्तान की भौगोलिक स्थिति ही सबसे ऊपर थी. उस समय के अमेरिकी पॉलिसी दस्तावेजों से पता चलता है कि अमेरिकियों का मानना था कि कराची और लाहौर में मौजूद अमेरिकी बमवर्षक मध्य-पूर्व की तेल सुविधाओं और सोवियत संघ तक आसानी से पहुंच सकते हैं.
उस दौर में आम सोच यह थी कि इस इलाके में किसी भी सैन्य कार्रवाई या सैन्य संघर्ष में पाकिस्तान को शामिल करने की कीमत बहुत ज्यादा होगी. पाकिस्तान 1950 में जब सोवियत संघ के खिलाफ अमेरिकी सैन्य सहयोगी बन गया तो उस समय यह बहुत बड़ी बात थी. संयुक्त राज्य अमेरिका से हथियार लेने के बाद भारत के साथ संबंध बेहतर होने की संभावनाएं पूरी खत्म हो गई थीं. इलाके में तनाव में जबरदस्त बढ़ोत्तरी हो गई और कश्मीर मुद्दा कभी न सुलझने वाली समस्या बन गया.
इस रक्षा समझौते को पाकिस्तान किस तरह देखता है?
पाकिस्तान के तमाम राजनेताओं और आला सैन्य अफसरों ने संयुक्त राज्य अमेरिका से सैन्य मदद हासिल करने के लिए कड़ी मेहनत की थी.
प्रोफेसर चीमा जैसे विश्लेषकों का मानना है कि मीडिया और जनता की राय पूर्वी सीमा से पैदा खतरों पर एकमत थी और पाकिस्तान को सुरक्षित बनाने के लिए विदेशों से सैन्य सहायता हासिल करने के पक्ष में थी, और अयूब खान संयुक्त राज्य अमेरिका से सैन्य हथियार हासिल करने के सबसे बड़े समर्थक थे. वह संयुक्त राज्य अमेरिका से सैन्य मदद हासिल करने की राजनयिक कोशिशों में सबसे आगे थे.
पाकिस्तान का सैन्य और राजनीतिक नेतृत्व जल्दबाजी में था और बड़े पैमाने पर हथियारों को जल्द हासिल करना चाहता था. रक्षा समझौते पर दस्तखत करने से ठीक पहले अयूब खान ने वाशिंगटन का दौरा किया और अमेरिकी सैन्य प्रशासन के साथ बातचीत की. पाकिस्तानी शासक वर्ग भी अमेरिकी सरकार की सुस्त रफ्तार से बेचैन था.
पाकिस्तानी अधिकारी खासतौर से पेंटागन की नौकरशाही की सुस्त रफ्तार को लेकर फिक्रमंद थे. इसके मद्देनजर अमेरिकी प्रशासन को पाकिस्तानी सेना को हथियारों की आपूर्ति करने की पाकिस्तान की इच्छा के बारे में बताया कि वह चाहता है कि पाकिस्तानी सेना को उसी तेजी के साथ हथियार उपलब्ध कराए जाएं जैसे कि एक अन्य मुस्लिम देश, तुर्की के मामले में किया गया था. उन दिनों अमेरिका की तरफ से तुर्की को भी सैन्य मदद उपलब्ध कराई जा रही थी.
प्रोफेसर चीमा ने अपनी किताब में लिखा है कि जब संयुक्त राज्य अमेरिका ने 1954 में पाकिस्तान के सशस्त्र बलों के लिए शुरुआती तौर पर 2.95 करोड़ डॉलर की रकम का ऐलान किया तो अयूब खान बेहद परेशान थे. इस रकम में सेना के लिए 1.65 करोड़, नौसेना के लिए 50 और वायु सेना के लिए 80 लाख डॉलर शामिल थे.
प्रो. परवेज इकबाल चीमा की किताब 'पाकिस्तान डिफेंस पॉलिसी' के अनुसार पाकिस्तान में अमेरिकी सैन्य प्रतिनिधियों के साथ विस्तृत चर्चा के बाद अयूब खान बहुत निराश और दुखी थे. प्रोफेसर चीमा के मुताबिक अयूब खान ने तत्कालीन प्रधानमंत्री को सूचित किया कि अगर पाकिस्तान को और पैसा नहीं मिलता है, जैसा कि सैक्सन (अमेरिकी सैन्य प्रतिनिधि) ने संकेत दिया था, तो पाकिस्तान को संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ हरगिज रक्षा समझौता नहीं करना चाहिए.
अयूब खान की लगातार पैरवी ने वाशिंगटन की तरफ से पाकिस्तान को साढ़े तीन साल की अवधि में 17.1 करोड़ डॉलर की मदद देना मुमकिन बनाया.
प्रोफेसर चीमा के मुताबिक नई अमेरिकी सरकार के तहत अमेरिकी रक्षा विभाग ने पाकिस्तानी सेना की चार इन्फैंट्री और डेढ़ बख्तरबंद डिवीजनों को आधुनिकतम हथियारों से लैस किया है. 12 जहाजों में विध्वंसक युद्धपोत, बारूदी सुरंग हटाने वाले जहाज, युद्धपोत को रास्ते में तबाह करने वाले स्क्वाड्रन, एक हल्की बमबारी करने वाली स्क्वाड्रन और एक परिवहन स्क्वाड्रन शामिल थे. सुविधाओं के निर्माण के लिए बजट बढ़ाया गया. 40,000 सैनिकों के दस्तों पर आने वाला खर्च भी इसमें शामिल था, जो नए हथियारों के लिए जरूरी थे.
हवाई अड्डों और कराची बंदरगाह में सुधार भी इसका हिस्सा थे. अमेरिका के इस नए वादे के बावजूद पाकिस्तानी सेना को हथियारों और उपकरणों की आपूर्ति की प्रक्रिया धीमी रही. अयूब खान अपने अमेरिकी दोस्तों से शिकायत करते रहते थे और अक्सर वे (अमेरिकी) उसकी बात मान लेते थे.
प्रोफेसर चीमा के अनुसार 1955 के मध्य में पेंटागन ने अनुमान लगाया कि प्रारंभिक आकलन के अनुसार पाकिस्तान को अमेरिकी सैन्य कार्यक्रम की कुल लागत 17.1 करोड़ डॉलर नहीं बल्कि 30 करोड़ डॉलर होगी. अयूब खान की कोशिशों और लॉबीइंग के बाद, अमेरिकी सैन्य सहायता कार्यक्रम को 45 करोड़ डॉलर तक बढ़ा दिया गया.
हथियारों की आपूर्ति के बाद पाबंदी
उस दौर में आम सोच यह थी कि इस इलाके में किसी भी सैन्य कार्रवाई या सैन्य संघर्ष में पाकिस्तान को शामिल करने की लागत बहुत ज्यादा होगी. 1950 में जब पाकिस्तान सोवियत संघ के खिलाफ अमेरिकी सैन्य भागीदार बन गया, तो यही बहुत बड़ी बात थी. संयुक्त राज्य अमेरिका से हथियार लेने के बाद भारत के साथ संबंधों में सुधार की संभावनाएं पूरी तरह खत्म हो गईं, क्षेत्र में तनाव बहुत ज्यादा बढ़ गया है और कश्मीर मुद्दा कभी न सुलझे वाली समस्या बन गया है.
पाकिस्तानी शासक वर्ग इस बात पर एकराय नहीं था कि अमेरिकी सैन्य मदद से पाकिस्तान को क्या फायदा होगा. एक बड़े सैन्य प्रतिष्ठान को चलाना और अमेरिकी सैन्य मदद हासिल करने के लिए जरूरी खर्च को बनाए रखना पाकिस्तानी सरकार के लिए बर्दाश्त से बाहर था. तत्कालीन विदेश मंत्री चौधरी मुहम्मद अली ने अमेरिकी अधिकारियों के साथ बैठक में इस पहलू पर रौशनी डाली और अपनी चिंता उनके सामने रखी थी.
सैन्य हथियारों और युद्ध सामग्री की गुणवत्ता के मामले में पाकिस्तान को निश्चित रूप से भारत से बढ़त मिली थी, लेकिन केवल थोड़े समय के लिए. प्रधानमंत्री नेहरू के नेतृत्व में भारत सरकार ने हथियारों की आपूर्ति के लिए तुरंत रूस से संपर्क किया. जैसे ही 1965 का युद्ध शुरू हुआ संयुक्त राज्य अमेरिका ने पाकिस्तान पर पाबंदियां लगा दीं.
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