चिकनकारी लखनऊ की शान है, फिर भी महिला कारीगर क्यों परेशान
आख़िर क्यों सरकार की तमाम योजनाओं के बाद चिकनकारी करने वाली महिला कारीगर बुरे हालात झेल रही हैं. कारीगरों का कहना है कि हर चीज़ की महंगाई बढ़ गई, लेकिन इस चिकन के काम के पैसे नहीं बढ़े.
गोमती नदी के किनारे बसा ऐतिहासिक शहर लखनऊ अपनी तहज़ीब के लिए दुनिया भर में मशहूर है. इसलिए इस शहर को 'शहर-ए-अदब' भी कहते हैं.
अपने स्मारकों, संस्कृति और लज़ीज़ व्यंजनों के अलावा उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ की एक ख़ास बात है - चिकन.
लखनऊ की चिकनकारी भारत ही नहीं दुनिया भर में मशहूर है. लखनऊ आने वाले लोग या यहां से गुज़रने वाले लोग चिकन कढ़ाई की साड़ी, कुर्ता या कुर्ती यहां से ले जाना नहीं भूलते.
चिकनकारी लखनऊ की शान है. लेकिन चिकनकारी करने वाली कारीगर परेशान हैं.
लखनऊ के गढ़ी कनौरा में रहने वाली रुकसाना पिछले 12 साल से चिकनकारी का काम कर रही हैं. जब हम उनसे मिलने पहुंचे तो वो सूट के साढ़े-पांच मीटर कपड़े पर चिनक कढ़ाई का बारीक़ काम कर रही थीं.
उन्होंने कहा कि वो दिन-रात करके एक महीने में इसका काम पूरा कर देंगी. लेकिन जितनी मेहनत इस पर लगाएंगी, उस हिसाब से उन्हें इसका मेहनताना नहीं मिलेगा.
उनके नज़दीक ही बैठीं ज़रीना ख़ानूत भी अपनी चिकन कढ़ाई के काम में व्यस्त थीं. लेकिन वो अपने लिए ही कढ़ाई कर रही थीं.
उन्होंने बताया कि वो 22 साल से ये काम कर रही थीं और अब उनकी आंखों की रौशनी ने साथ छोड़ दिया है.
नूरजहां के दौर में लखनऊ पहुंचा चिकन
ज़रीना ख़ानूत ने बताया कि वो कपड़े पर 'बखिया, फंदा और घास पत्ती' का डिज़ाइन बना रही हैं.
चिकनकारी का कॉन्सेप्ट दरअसल कुदरत से आया है. 'चिकन' लफ़्ज़ तुर्की शब्द चिख़ से आया है. चिख़ यानी जाली, जिससे रौशनी और हवा का गुज़र हो सके.
कहते हैं कि चिकन की ये विधा, ये कशीदाकारी मुगल बादशाह जहांगीर की बेगम नूरजहां के दौर में भारत आई और परवान चढ़ी.
ये भी कहा जाता है कि नूरजहां की एक कनीज़ अवध में आ बसी और उन्होंने ये कारीगरी चंद औरतों को सिखा दी.
कढ़ाई नाज़ुक थी, देखने में खूबसूरत, इसलिए जो देखता सीखने बैठ जाता. कल का ये शौक आज हज़ारों की रोज़ी-रोटी है.
ये हाल सिर्फ लखनऊ शहर का नहीं है बल्कि लखनऊ के आसपास के कई गांव में यही काम होता है.
'नहीं मिलता वाजिब मेहनताना'
रुकसाना बताती हैं कि दुपट्टे समेत साढ़े पांच मीटर सूट की बारीक़ कढ़ाई का उन्हें 1500 रुपये तक मिल जाएगा. उनके मुताबिक़ जितनी मेहनत वो इसके लिए करेंगी, उस हिसाब से ये पैसा नाकाफ़ी है.
मेरे चिकन के कुर्ते को देखकर इन कारीगरों ने बताया कि जिस कुर्ते को मैंने दो हज़ार रुपये में ख़रीदा है, उसपर दिख रही चिकन की कढ़ाई के लिए उन्हें महज़ 100 से 150 रुपये मिलते हैं.
चिकन अब फैशन का हिस्सा बन चुका है. आम लोग ही नहीं बल्कि बड़े-बड़े फैशन शो में और बड़े-बड़े सेलेब्रिटी चिकन कढ़ाई के कपड़ों में आए दिन देखे जाते हैं. चिकन कढ़ाई किए हुए कपड़े किसी की भी शख़्सियत में चार-चांद लगा देते हैं.
लेकिन जिस हुनर को देखकर लोग हैरान रह जाते हैं और जिसे चिकन कढ़ाई को बनाने में कारीगर बहुत मेहनत करते हैं. उनका कहना है कि वो बेहाल हैं और उन्हें मेहनत के लिए चंद रुपये मिलते हैं, जबकि व्यापारी करोड़ों रुपये में खेल रहे हैं.
कारीगर बताती हैं कि किसी कुर्ते पर बारीक़ से बारीक़ काम करने के उन्हें ज़्यादा से ज़्यादा 300 रुपये मिलते हैं.
'सरकारें बदलीं, पर हालात नहीं'
ज़रीना ख़ानूत कहती हैं कि साल बीते और सरकारें बदली लेकिन उन्हें मिलने वाले मेहनताने में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई.
कारीगर बताती हैं कि कोरोना के दौर के बाद हालात ऐसे हैं कि वो कम से कम पैसे में भी काम करने पर राज़ी हो जाती हैं.
उम्मतुन्निसा के मुताबिक़, "अब तो हालात और भी ख़राब हो गए हैं. चालू काम 100-50 रुपये लेकर बनाना पड़ता है. फैंसी काम में 250-300 रुपये मिल पाता है. इससे आगे नहीं मिल पाता है."
रुकसाना कहती हैं कि हर चीज़ की महंगाई बढ़ गई, लेकिन इस चिकन के काम के पैसे नहीं बढ़े.
कई औरतों का कहना है कि वो कोरोना लॉकडाउन के बाद बेरोज़गार हो गईं.
सरकार इन कारीगरों के लिए क्या कर रही?
यूपी सरकार के ओडीओपी कार्यक्रम के एडिशनल चीफ़ सेकेट्री नवनीत सहगल ने बीबीसी हिंदी कहा कि चिकन कारीगरों को सरकार की तरफ़ से कई तरह की सुविधाएं दी जाती हैं.
उनका कहना है, सरकार की तरफ से वक़्त-वक़्त पर एक हज़ार महिलाओं को ट्रेनिंग दी जाती है और काम बढ़ाने के लिए ऋण भी दिया जाता है.
उन्होंने बताया कि ट्रेनिंग के बाद कारीगरों को सेंटर्स से भी जोड़ा जाता है, "लेकिन सभी कारीगरों को अभी इनका लाभ नहीं मिल सका है. आने वाले वक़्त में अधिक से अधिक कारीगरों को ये लाभ देने की कोशिश होगी."
अधिकारी नवनीत सहगल मानते हैं कि जागरूकता की कमी की वजह से सरकार की स्कीम का लाभ कारीगरों तक नहीं पहुँच पाता है.
मेहनताना बढ़ाने के सवाल पर वो कहते हैं कि "क्योंकि ये असंगठित क्षेत्र है, कारीगर किसी और के लिए काम कर रहे होते हैं, ऐसे में न्यूनतम मेहनताना तय करना मुश्किल होता है."
उनका कहना है कि जहां तक कारीगरों की आंखों की रोशनी की समस्या का सवाल है, उन्हें आयुष्मान कार्ड बनवाना चाहिए, जिससे उन्हें मुफ़्त इलाज मिल सके.
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ओडीओपी क्या है?
ओडीओपी कार्यक्रम को उत्तर प्रदेश सरकार ने 2018 में शुरू किया था.
इस महत्त्वाकांक्षी "एक जनपद - एक उत्पाद" कार्यक्रम का मक़सद है कि उत्तर प्रदेश की उन विशिष्ट शिल्प कलाओं और उत्पादों को प्रोत्साहित किया जाए जो देश में कहीं और उपलब्ध नहीं हैं, जैसे प्राचीन और पौष्टिक काला नमक चावल, दुर्लभ और अकल्पनीय गेहूं डंठल शिल्प, विश्व प्रसिद्ध चिकनकारी, कपड़ों पर ज़री-जरदोज़ी का काम, मृत पशु से मिले सींगों और हड्डियों से जटिल शिल्प का काम.
इनमें से बहुत से उत्पाद जी.आई. टैग यानी भौगोलिक पहचान पट्टिका धारक हैं. ये वे उत्पाद हैं जिनसे किसी जगह की पहचान होती है.
हालांकि, कारीगरों के हक़ों की बात करने वालीं हीना कौसर कहती हैं कि सेंटर खोले तो जाते हैं लेकिन कई बार एक महीने के अंदर ही बंद हो जाते हैं और इससे कारीगरों को कोई फायदा नहीं मिलता.
उनका कहना है कि मेहनताने का मुद्दा कई बार उठाया गया, 'फिर भी स्थिति नहीं सुधरी, बल्कि सारा फायदा बीच वाले ले जाते हैं.'
वो बताती हैं कि अगर कोई काम 200 का है तो बिचौलिये 100 रुपये ले लेते हैं, जबकि कारीगर को महज़ 80 रुपये ही दिए जाते हैं.
उनका कहना है कि आवाज़ उठाने के बाद कारीगरों को सुविधाएं देने की बात तो हुई, लेकिन बात ज़मीन पर कभी नहीं उतरी.
वो बताती हैं कि कहा भी गया था कि कारीगरों का कार्ड बनाया जाएगा और कारीगर के तौर पर इनकी पहचान होगी और कई योजनाओं का लाभ मिलेगा.
लेकिन उनके मुताबिक़, "उसके बाद भी इन्हें किसी तरह का कोई लाभ आज-तक नहीं मिला."
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कोरोना लॉकडाउन में रोज़ी-रोटी का संकट
लॉकडाउन के वक़्त काम ना मिलने की वजह से कारीगरों पर रोज़ी-रोटी का संकट खड़ा हो गया था.
कई महिला कारीगर बताती हैं कि मजबूरी में घर-घर जाकर काम तक करना पड़ा.
ममता शर्मा का छोटा सा बच्चा है, जिसे गोद में लेकर वो चिकन का काम करती रहती हैं, लेकिन कहती हैं कि उन्हें मुश्किल से 50-100-150 रुपये मिल पाते हैं. क्योंकि वो इन चार पैसों की कमाई भी खोना नहीं चाहतीं, इसलिए ये काम नहीं छोड़ रहीं.
कुछ वक़्त पहले ख़बर आई थी कि 2020 में पीक सीज़न के दौरान चिकन व्यापारियों को 2000 करोड़ रुपये का नुक़सान हुआ. उस वक़्त ये चंद सौ रुपये कमाने वाली कारीगरों की हालत बद से बदतर हो गई थी.
रुकसाना कहती हैं "बच्चे पालना भी मुश्किल था. चिंता रहती थी कि आज बच्चों के खाने का इंतज़ाम कैसे करेंगे. सरकारी राशन ज़रूर मिला, लेकिन कभी राशन था तो पकाने के लिए ईंधन नहीं, तो कभी गैस था तो चावल नहीं."
चिकन कारीगरों के चुनावी मुद्दे
कारीगरों की मांग है कि उनके लिए बेहतर योजना बने और ऐसे सेंटर बनाया जाए जहां स्थायी काम मिले और वाजिब मेहनताना भी.
पश्चिम बंगाल और बिहार जैसे विधान सभा चुनाव ने बताया कि महिलाओं का वोट कितनी अहमियत रखता है. उत्तर प्रदेश में भी 2017 और उससे पहले 2012 में महिलाएं पुरुषों से भी ज़्यादा तादात में वोट देने घरों से निकली.
चिकनकारी की बात करें तो दस्तकारी के काम में औरतों का प्रतिशत ज़्यादा है, वहीं सिर्फ कुर्तों की सिलाई कड़ाई और डिज़ाइन के छापे का काम मर्दों का है.
लेकिन चिकन कारीगर राधा कहती हैं कि उन्हें किसी नेता से उम्मीद नहीं है. वो कहती हैं कि नेता चुनाव जीतने के बाद उनके जैसे कारीगरों को भूल जाते हैं.
हीना कौसर भी कहती हैं कि चुनावी मैदान में उतरने वाले उम्मीदवार तमाम दावे तो करते हैं लेकिन सरकार में आने के बाद उन्हें पूरा नहीं करते.
वो कहती हैं, "सरकार बनने के बाद वही नेता कहते हैं कि अभी क़ानून बन रहा है, अभी आदेश होगा. लेकिन वो आदेश आते-आते दूसरा चुनाव आ जाता है. फिर दोबारा वही वादे. लेकिन आज तक किसी सरकार ने कारीगरों के लिए, चाहे वो चिनक के कारीगर हों या ज़री ज़रदोज़ी के कारीगर, किसी के लिए किसी सरकार ने ऐसी कोई योजना नहीं बनाई जिसके तहत कारीगरों का हेल्थ कार्ड बन जाए, उनका बीमा बन जाए, उनकी ख़त्म होती आंख की रोशनी के लिए स्वास्थ्य सुविधा मिले, लेकिन ऐसा आज तक कोई फायदा नहीं हुआ है."
चिकनकारी का इतिहास दो सौ साल से भी पुराना है. उत्तर प्रदेश में लखनऊ चिकनकारी कशीदाकारी का केंद्र रहा.
चिकनकारी क्योंकि शुरु से असंगठित क्षेत्र तक सीमित रहा, इसलिए इसमें शुरू से ही शोषण की गुंजाइश बनी रही. लेकिन बावजूद इसके ये कला ख़त्म नहीं हुई.
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