वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण का दूसरा बजट लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था को सहारा देगा?
ये साफ़ है कि अर्थव्यवस्था को संभालने के लिए मोदी सरकार को कठोर कदम उठाने की ज़रूरत है.शनिवार 11 बजे सुबह भारत की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण अपना दूसरा बजट पेश करेंगी. ये ऐसा समय होता है जब पूरे देश की नज़रें उन पर रहेंगी. पिछले साल वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अपने बजट भाषण में कहा था, "आने वाले कुछ सालों में हमारी क्षमता पांच खरब की अर्थव्यवस्था बनने की है."
शनिवार 11 बजे सुबह भारत की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण अपना दूसरा बजट पेश करेंगी. ये ऐसा समय होता है जब पूरे देश की नज़रें उन पर रहेंगी.
सिर्फ़ इसलिए नहीं क्योंकि वित्त मंत्री आने वाले साल के लिए सरकार की वित्तीय प्राथमिकताओं की रूपरेखा देश के सामने रखेंगी बल्कि इसलिए भी क्योंकि अब ये साफ़ है कि लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था को संभालने के लिए मोदी सरकार को कठोर कदम उठाने की ज़रूरत है.
पिछले साल वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अपने बजट भाषण में कहा था, "आने वाले कुछ सालों में हमारी क्षमता पांच खरब की अर्थव्यवस्था बनने की है."
अब दिक्कत ये है कि सरकार ने साल 2020 के वित्तीय वर्ष के लिए पांच फ़ीसदी विकास दर का लक्ष्य रखा है. पिछले छह साल के आंकड़ों के लिहाज से ये सबसे निचला स्तर है. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने इस पांच फ़ीसदी के विकास दर की लक्ष्य पर कैंची चलाते हुए 4.8 फीसदी का अनुमान रखा है.
ऐसे में सवाल उठता है कि इस साल का बजट किस तरह से अर्थव्यवस्था का कायापलट करने में मददगार साबित होगा. इसके लिए हम पिछले साल के बजट की कुछ प्रमुख घोषणाओं और इस साल के बजट से आम लोग क्या उम्मीद रखते हैं, जैसे पहलुओं पर नज़र डालते हैं.
पिछला बजट किसी लिहाज से लोकलुभावन तो नहीं कहा जा सकता था लेकिन फिर भी इसमें आम आदमी के लिए कुछ रियायतें दी गई थीं.
ईंधन की उपलब्धता
पिछले साल जुलाई वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अपने बजट भाषण में साल 2022 तक ग्रामीण भारत में बिजली और स्वच्छ रसोई ईंधन मुहैया कराने का वादा किया था. उन्होंने ग्रामीण इलाकों में परिवहन और आवास के लिए बुनियादी ढांचे के विकास की घोषणा भी की थी.
वित्त मंत्री ने कहा था, "गांव, ग़रीब और किसान हमारी सरकार की नीतियों के केंद्र में है."
लेकिन इस साल के बजट के ठीक पहले की ज़मीनी स्थिति कुछ और ही कहानी कहती है. सरकार की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक़ प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना के तहत गैस की सालाना औसत खपत में कमी आई है.
मार्च 2018 तक प्रत्येक परिवार में औसतन 3.66 सिलिंडर की सालाना खपत हो रही थी जबकि दिसंबर, 2018 में ये खपत गिरकर 3.21 सिलिंडर हो गई लेकिन साल 2019 के सितंबर तक ये आंकड़ा गिरकर 3.08 सिलिंडर रह गया.
नियंत्रक और महालेखापरीक्षक की हाल में जारी रिपोर्ट में भी खपत में कमी और सिलिंडर के वितरण में देरी जैसे मुद्दों को लेकर प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना के प्रदर्शन पर चिंता जताई गई है.
कंसल्टेंसी फर्म 'केयर रेटिंग्स' की सीनियर इकॉनॉमिस्ट कविता चाको कहती हैं, "ये सच है कि शुरू में लोगों ने उज्ज्वला स्कीम का विकल्प चुना लेकिन अब आंकड़ों से ये पता चलता है कि वे गैस सिलिंडर दोबारा नहीं ले पा रहे हैं. देश के कई इलाकों में अभी भी बहुत से लोग ईंधन के लिए लकड़ियां जला रहे हैं."
कविता आगे कहती हैं, "देश के सुदूर ग्रामीण इलाकों में बिजली पहुंचाने के लिए सरकार ने बुनियादी ढांचे के विकास पर काम किया है लेकिन बिजली कंपनियों की स्थिति ऐसी है कि बिजली मुहैया कराना मुश्किल काम हो गया है. देश की बिजली कंपनियों पर इस समय 80 हज़ार करोड़ रुपये का कर्ज़ है."
"यही वजह से है कि बिजली की जितनी मांग है, कंपनियां उतनी आपूर्ति नहीं कर पा रही हैं इसलिए सरकार जब ये कहती है कि उसने बिजली पहुंचा दी है तो इस पर कोई कॉमेंट करना मुश्किल हो जाता है."
हाउसिंग सेक्टर
सरकार ने इस क्षेत्र के विकास के लिए प्रधानमंत्री आवास योजना नाम से एक स्कीम शुरू की. सरकार ने इसके लिए साल 2022 तक 'सबके लिए घर' का लक्ष्य भी रखा. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने पिछले बजट के समय कहा था, "वित्तीय वर्ष 2021-22 के आख़िर तक योग्य लाभार्थियों के लिए एक करोड़ 95 लाख घर बनाए जाएंगे."
प्रोपर्टी कंसल्टेंसी फर्म एनारॉक के चेयरमैन अनुज पुरी प्रधानमंत्री आवास योजना पर कहते हैं, "मौजूदा सरकार की योजनाओं में सबसे ज़्यादा प्रचार पाने वाली प्रधानमंत्री आवास योजना को सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में काफी तवज्जो मिली. इनमें उत्तर प्रदेश, गुजरात और आंध्र प्रदेश स्पष्ट रूप से आगे रहे."
"इन तीन राज्यों में साल 2019 के आख़िर तक तकरीबन 11.22 लाख घरों का निर्माण कार्य पूरा किया गया. पिछले साल इस समय तक इन तीन राज्यों में 3.62 लाख घर ही बन पाए थे. घरों का निर्माण, समय पर पूरा हो जाए, ये अभी भी चुनौती है. नई और असरदार तकनीक के सहारे इस लक्ष्य को समय रहते हासिल किया जा सकता है."
इसके अलावा रियल इस्टेट सेक्टर को आर्थिक सुस्ती का भी खामियाजा भुगतना पड़ रहा है. नोटबंदी और जीएसटी की वजह से हाउसिंग सेक्टर सचमुच पैसे के लिए तरस कर रह गया है.
सरकार ने पिछले साल नवंबर में 25 हज़ार करोड़ रुपये के राहत पैकेज का एलान तो किया था लेकिन कारोबार जगत के लोगों का कहना है कि और भी काफी कुछ किए जाने की ज़रूरत है.
अनुज पुरी कहते हैं, "रियल इस्टेट सेक्टर में मांग बढ़ाने के लिए पहली बार घर खरीद रहे लोगों को टैक्स छूट और निर्माणाधीन घरों पर जीएसटी रेट में कमी से मदद मिलेगी. इसके अलावा अर्थव्यवस्था के सभी सेक्टरों नौकरी की सुरक्षा बढ़ाने की ज़रूरत है."
"बाज़ार में रुकी हुई परियोजनाओं को पूरा किया जाना चाहिए ताकि जिन लोगों ने इस प्रोजेक्ट्स में पहले से निवेश कर रखा हो, उनका तनाव दूर हो जाए."
बेरोज़गारी
पिछले दोनों बजटों में देश में बेरोज़गारी ख़त्म करने के लिए न तो पीयूष गोयल ने ही और निर्मला सीतारमण ने ही कोई नई रणनीति रखी. गोयल ने आम चुनाव से पहले वाला बजट पेश किया था तो निर्मला सीतारमण ने चुनाव के बाद जुलाई में अपना बजट रखा था.
इतना ही नहीं, महात्मा गांधी ग्रामीण रोज़गार सृजन योजना यानी मरेगा का बजट भी कम करके 60 हज़ार करोड़ रुपया कर दिया गया है. ये रकम चालू वित्तीय वर्ष के लिए संशोधित अनुमान 61,084 रुपये से भी कम है.
मुद्रा, स्टैंड अप इंडिया और स्टार्ट अप इंडिया जैसी स्वरोज़गार को बढ़ावा देने वाली योजनाओं के लिए सिर्फ़ 515 करोड़ रुपये ही आवंटित किए गए. जानकार इस बात को लेकर सहमत हैं कि मोदी सरकार के सामने जो सबसे बड़ी चुनौती है वो नौकरियों या रोज़गार के अवसर की कमी है.
सेंटर फ़ॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनॉमी के सीईओ महेश व्यास कहते हैं, "भारत में बेरोज़गारी की दर 7.5 फीसदी है. ये तस्वीर हमारे सामने खड़ी असली समस्या को जाहिर करती है कि नौजवान ग्रैजुएट्स के पास पर्याप्त नौकरियां नहीं हैं. नौकरी की तलाश कर रहे 25 से 30 साल की उम्र के हर चार ग्रैजुएट में से एक को काम नहीं मिल रहा है."
पेंशन योजनाएं
प्रधानमंत्री कर्मयोगी मान धन योजना के तहत सरकार ने ये वादा किया था कि सालाना डेढ़ करोड़ से कम टर्नओवर वाले कारोबारी पेंशन के हकदार होंगे.
कॉनफेडरेशन ऑफ़ ऑल इंडिया ट्रेडर्स के महासचिव प्रवीण खंडेलवाल कहते हैं, "ये स्कीम बुरी तरह से नाकाम रही क्योंकि इसकी योजना अजीब तरह से बनाई गई थी. सात करोड़ व्यापारियों में से केवल 25 हज़ार ट्रेडर्स ने ही इस योजना को चुना क्योंकि इससे वाकई किसी की मदद नहीं होने वाली थी. हमने सरकार के सामने अपना पक्ष रखा है."
कई लोग इस स्कीम की नाकामी की वजह ये बताते हैं कि प्रधानमंत्री कर्मयोगी मान धन योजना में केवल 18 से 40 साल के कारोबारी ही भाग ले सकते हैं जिसकी वजह से कारोबारियों का एक बड़ा तबका इस स्कीम के बाहर रह जाता है.
स्कीम नाकाम होने की दूसरी वजह ये बताई गई कि 60 साल पूरा होने वाले पर ट्रेडर को कम से कम 3000 रुपये पेंशन मिलने की गारंटी दी गई है और अगर इससे पहले बीमाधारक की मौत हो जाती है तो उसके जीवनसाथी को 50 फीसदी पारिवारिक पेंशन मिलेगा.
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