जब नरेश अग्रवाल ने दिया था भाजपा को धोखा
एक पुराना डायलॉग है कि सियासत में कोई भी दोस्त या दुश्मन नहीं होता. वक़्त और हालात रिश्तों की शक्लो-सूरत बदलते रहते हैं.
और नरेश अग्रवाल का इस थ्योरी में पूरा ऐतबार है.
तीस साल से ज़्यादा के अपने सियासी करियर में वो अलग-अलग घाट का पानी पी चुके हैं.
भाजपा से पहले कांग्रेस, बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी के कुनबे में रहकर देख चुके हैं.
एक पुराना डायलॉग है कि सियासत में कोई भी दोस्त या दुश्मन नहीं होता. वक़्त और हालात रिश्तों की शक्लो-सूरत बदलते रहते हैं.
और नरेश अग्रवाल का इस थ्योरी में पूरा ऐतबार है.
तीस साल से ज़्यादा के अपने सियासी करियर में वो अलग-अलग घाट का पानी पी चुके हैं.
भाजपा से पहले कांग्रेस, बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी के कुनबे में रहकर देख चुके हैं.
यहां तक कि इससे पहले भी वो भाजपा की सरकार में शामिल होकर उसे चलाने में अहम भूमिका निभा चुके हैं. वो फिलहाल समाजवादी पार्टी की तरफ से राज्यसभा सांसद हैं.
अलग-अलग पार्टी का साथ
हरदोई से सात बार विधायक का चुनाव जीत चुके अग्रवाल साल 2010 में बसपा के टिकट पर राज्यसभा पहुंचे थे और साल 2012 में सपा के टिकट पर.
ये सपा के साथ उनकी दूसरी पारी थी. साल 2008 में वो सपा से बसपा में शामिल हुए थे.
जब बसपा से उनके बेटे नितिन को विधानसभा टिकट नहीं मिला तो वो सपा में लौट गए.
साल 1980 में कांग्रेस के बैनर तले, 1989 में निर्दलीय बनकर चुनाव जीते. दोबारा कांग्रेस से जुड़े और 1991, 1993 और 1996 में तीन बार लगातार चुनाव जीता.
फिर 2002 और 2007 में सपा से जीते. 2012 में अपनी सीट बेटे नितिन को सौंपी.
वो जीते और फिर अखिलेश सरकार में मंत्री भी रहे.
दोनों के रिश्ते ख़राब रहे
नितिन अब भी सपा के विधायक हैं और राज्यसभा चुनावों में भाजपा का साथ देने की बात कर रहे हैं.
इन दिनों नरेश अग्रवाल भले भाजपा के गुण गा रहे हों लेकिन एक वक़्त था जब दोनों के बीच काफ़ी तल्ख़ रिश्ते रहे हैं. नरेश अपने बयानों से भाजपा पर करारे हमले कर चुके हैं.
लेकिन एक समय वो भी था जब भाजपा और नरेश एक खेमे में हुआ करते थे और अचानक सब कुछ बदल गया था.
साल 2001 का अगस्त महीना था जब उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह ने नरेश अग्रवाल को अपनी सरकार से बाहर कर दिया था.
राजनाथ सरकार में मंत्री भी रहे
लेकिन ऐसा क्या हुआ था कि राजनाथ को इतना बड़ा क़दम उठाना पड़ा.
अग्रवाल उस समय सरकार में ऊर्जा मंत्री थे और लोकतांत्रिक कांग्रेस पार्टी के संस्थापक नेता भी.
राजनाथ की सरकार अपना वजूद बचाए रखने के लिए अग्रवाल की पार्टी के समर्थन पर निर्भर कर रही थी.
यही वजह थी कि अग्रवाल को कई बयानों को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता था.
नरेश अग्रवाल ने इससे पहले कांग्रेस को तोड़ा था और अपने साथ ले गए 22 विधायकों से लोकतांत्रिक कांग्रेस पार्टी बना ली थी.
इस पार्टी ने उत्तर प्रदेश में भाजपा सरकार का साथ दिया. पहले कल्याण सिंह, फिर राम प्रकाश गुप्ता और राजनाथ सिंह की सरकार को संभाला.
राजनाथ सिंह हुए ख़फ़ा
लेकिन राजनाथ से उनके रिश्ते कभी अच्छे नहीं रहे. एक समय था जब अग्रवाल ने बिजली समस्या के लिए अपने ही मुख्यमंत्री पर सवाल उठा दिए थे.
और फिर वो पल आया जब राजनाथ ने अग्रवाल को मंत्री पद से हटा दिया.
साथ ही वो अग्रवाल की पार्टी के ज़्यादातर विधायकों का समर्थन भी बनाए रख पाए.
आगे चलकर लोकतांत्रिक कांग्रेस पार्टी ने अग्रवाल को ही बाहर निकाल दिया.
17 साल पुराना ये वाकया न तो अग्रवाल भूले होंगे और न ही राजनाथ सिंह. पर अब अग्रवाल ने भाजपा का दामन क्यों थाम लिया?
जया से कैसे पिछड़े
उत्तर प्रदेश की राजनीति पर क़रीबी से नज़र रखने वाले राम दत्त त्रिपाठी ने बीबीसी से कहा कि अग्रवाल को अगर राज्यसभा का टिकट मिल जाता तो वो वहीं बने रहते.
लेकिन ऐसा नहीं हुआ तो उन्होंने पाला बदलने का फ़ैसला किया.
उन्होंने कहा, ''अग्रवाल के लिए राज्यसभा टिकट काफ़ी मायने रखती है. वो हमेशा सत्ता के साथ रहने में यक़ीन रखते हैं.''
राम दत्त त्रिपाठी ने बताया कि जब जया बच्चन राज्यसभा के लिए नामांकन भरने गई थीं, तो सुब्रत रॉय सहारा उनके साथ थे. उत्तर प्रदेश की सियासत और समाजवादी पार्टी में सुब्रत का अपना जलवा रहा है और उस वक़्त नरेश अग्रवाल को उनका समर्थन नहीं मिल पाया था.