पश्चिम बंगाल चुनाव: ममता के रहते मुसलमानों के बीच ओवैसी के लिए कितनी जगह
पश्चिम बंगाल में मुसलमानों की आबादी क़रीब 30 फ़ीसदी है. 100 से अधिक सीटों पर इनका मत निर्णायक माना जाता है. क्या सोचते हैं मुसलमान वोटर?
"मुस्लिम वोटर अब तक वोट देना नहीं सीख सके हैं. जो करना चाहिए ठीक उसका उल्टा करते हैं. इस तबके के लोग अब भी पिछड़े हैं. हमारे लिए देश हित सबसे ऊपर है. हमारा वोट तो उसी को जाएगा जो देश को बेहतर तरीक़े से चला सके."
पश्चिम बंगाल के नदिया ज़िले के पलासी में हाइवे के किनारे एक दुकान चलाने वाले अब्दुल वहाब शेख़ बेहद संभल कर अपनी बात कहते हैं. वे कई वर्षों तक खाड़ी देशों में काम कर चुके हैं.
पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों में पहली बार 27 से 30 प्रतिशत मुस्लिम वोटरों को लेकर काफ़ी खींचतान मची है.
असदुद्दीन ओवैसी के अलावा फुरफुरा शरीफ़ के पीरजादा अब्बास सिद्दीक़ी की पार्टी इंडियन सेक्युलर फ्रंट (आईएसएफ़) के मैदान में उतरने की वजह से इस तबके के मतदाताओं में संशय का माहौल है.
हालाँकि ज़्यादातर लोगों की राय में इन दोनों के चुनाव लड़ने से कोई ख़ास अंतर नहीं पड़ेगा. लेकिन वहीं कुछ लोग मानते हैं कि इससे मुस्लिम वोट बैंक में कुछ सेंध लगने की संभावना तो है ही.
चुनाव में 30% मुसलमानों का किरदार बेहद अहम
राज्य में बीते कम से कम पाँच दशकों से तमाम चुनावों में अल्पसंख्यकों की भूमिका बेहद अहम रही है. इसी तबके के वोटर तय करते रहे हैं कि सत्ता का सेहरा किसके माथे पर बंधेगा.
पहले लेफ़्ट फ्रंट को लंबे समय तक इस वोट बैंक का सियासी फ़ायदा मिला और अब बीते एक दशक से इस पर ममता बनर्जी की तृणमूल काँग्रेस का क़ब्ज़ा है. लेकिन इस बार विधानसभा चुनाव से पहले ओवैसी की पार्टी और इंडियन सेक्युलर फ़्रंट (आईएसएफ़) की वजह से तृणमूल के इस वोट बैंक पर ख़तरा पैदा हो गया है.
हुगली ज़िले में स्थित फुरफुरा शरीफ़ अल्पसंख्यकों का पवित्र जियारत स्थल है और दक्षिण बंगाल की क़रीब ढाई हज़ार मस्जिदों पर उसका नियंत्रण है.
चुनावों के मौके पर फुरफुरा शरीफ़ की अहमियत काफ़ी बढ़ जाती है. लेफ़्ट से लेकर टीएमसी और काँग्रेस तक तमाम दलों के नेता समर्थन के लिए यहाँ पहुँचने लगते हैं.
ओवैसी की पार्टी इन चुनावों में कितना असर डाल पाएगी, इस सवाल का जवाब तो बाद में मिलेगा. लेकिन राज्य के जातिगत समीकरणों को ध्यान में रखते हुए उसका मैदान में उतरना भी काफ़ी अहम है.
वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक़, पश्चिम बंगाल की कुल आबादी में 27.01 प्रतिशत मुस्लिम थे. अब यह आँकड़ा 30 प्रतिशत के क़रीब पहुँच गया है.
राज्य के मुर्शिदाबाद, मालदा, उत्तर दिनाजपुर, दक्षिण दिनाजपुर और दक्षिण 24 परगना ज़िलों में मुसलमान मतदाताओं की संख्या 40 प्रतिशत से ज़्यादा है.
कुछ इलाक़ों में तो यह और भी ज़्यादा है. मिसाल के तौर पर मुर्शिदाबाद में क़रीब 70 प्रतिशत और मालदा में 57 प्रतिशत मुस्लिम वोटर हैं.
मुर्शिदाबाद और मालदा में 34 विधानसभा सीटें हैं. यह ज़िले बांग्लादेश की सीमा से सटे हुए हैं. विधानसभा की 294 सीटों में से 100 से 110 सीटों पर इसी तबके के वोट निर्णायक हैं.
मुर्शिदाबाद-मालदा के मुसलमान क्या कहते हैं?
राज्य में मुस्लिम राजनीति को समझने और इस तबके के वोटरों का मन टटोलने के लिए मुर्शिदाबाद और मालदा से बेहतर कोई दूसरी जगह नहीं हो सकती. इन दोनों में मुस्लिमों की आबादी को ध्यान में रखते हुए उनके लिए अल्पसंख्यक शब्द का इस्तेमाल करना भ्रामक हो सकता है. दरअसल, इन ज़िलों में हिंदू आबादी ही अल्पसंख्यक है.
कोलकाता से मुर्शिदाबाद और मालदा के दौरे पर निकलते हुए हमारा पहला पड़ाव था पलासी. कोलकाता को उत्तर बंगाल से जोड़ने वाले हाइवे-34 के किनारे बसे इस उनींदे से शहर का ऐतिहासिक महत्व है.
23 जून 1757 को मुर्शिदाबाद के तत्कालीन नवाब सिराजुद्दौला और अंग्रेज़ों के बीच यहाँ हुई लड़ाई ने अगले क़रीब दो सौ वर्षों के लिए देश पर ब्रिटिश शासन का रास्ता खोल दिया था.
यह कहना ज़्यादा सही होगा कि पलासी की लड़ाई ने देश का भविष्य और इतिहास बदल दिया था. सिराजुद्दौला को इस लड़ाई में अंग्रेज़ों से मुँह की क्यों खानी पड़ी और इसमें उनके सेनापति मीर ज़ाफ़र के विश्वासघात की भूमिका कितनी अहम थी, यह तमाम बातें इतिहास के पन्नों में विस्तार से दर्ज हैं.
"ओवैसी का यहाँ कोई असर नहीं होगा"
खाड़ी देशों में बरसों तक एक अमेरिकी कंपनी में नौकरी करने के बाद अपने पैतृक शहर में लौटे अब्दुल वहाब शेख़ इसी पलासी में किराने की दुकान चलाते हैं.
उनका कहना था, "यहाँ हिंदू-मुसलमान कोई मुद्दा ही नहीं है. जो नेता अपने निजी स्वार्थ के लिए पाला बदल लेते हैं, वह देश नहीं चला सकते. इसलिए इस बार मुसलमान तमाम विकल्पों को ध्यान में रखते हुए ही वोट देगा."
पलासी में ही मोबाइल की दुकान चलाने वाले युवक मोइनुद्दीन शेख़ कहते हैं, "इस बार मुसलमान उसी पार्टी का समर्थन करेंगे, जो इस तबके के हितों से जुड़े मुद्दे उठाएगा और हमारी दिक़्क़तों को समझेगा. हमारा वोट उसी को मिलेगा, जो बेहतर तरीक़े से सरकार चलाने में सक्षम होगा."
पलासी से मुर्शिदाबाद के ज़िला मुख्यालय बरहमपुर पहुँचने पर लोगों की मिलीजुली प्रतिक्रिया सुनने को मिली. भागीरथी नदी के किनारे बसा यह शहर तमाम समस्याओं से जूझ रहा है.
नदी पर हाइवे पर महज एक ही ब्रिज होने की वजह से लोगों को जान हथेली पर लेकर मोटर-चालित नावों से नदी पार करनी पड़ती है अक्सर हादसे होते रहते हैं.
लोग शहर में ट्रैफ़िक जाम की समस्याओं के अभ्यस्त हो चुके हैं. अब कोई इसकी चर्चा तक नहीं करता.
शहर के लालबाग़ इलाक़े में बने हज़ारदुआरी पैलेस में सपरिवार घूमने आए शमसाद कहते हैं, "किसे वोट देना है अभी तय नहीं किया है. लेकिन कोई भी जीते, हमारी समस्याएँ जस की तस ही रहेंगी."
मुस्लिम नेता और ज़िले की लालबाग़ सीट से टीएमसी उम्मीदवार मोहम्मद अली दावा करते हैं कि राज्य के लोगों को ओवैसी और आईएसएफ़ की हक़ीक़त मालूम है.
वह कहते हैं, "धर्म के आधार पर देश का विभाजन होने के बावजूद सिर्फ़ भाषा के सवाल पर पूर्वी पाकिस्तान ने ख़ुद को अलग देश बना लिया. इससे साफ़ है कि उर्दूभाषी और बांग्लाभाषी मुसलमानों में काफ़ी फ़र्क़ है. इसी वजह से ओवैसी का यहाँ कोई असर नहीं होगा."
बरहमपुर में एक मस्जिद के मौलाना शाहजहाँ शेख़ कहते हैं, "यहाँ न तो आईएसएफ़ का कोई असर होगा और न ही ओवैसी का. ओवैसी की पार्टी को जहाँ मुश्किल से दस प्रतिशत लोग जानते हैं, वहीं आईएसएफ़ को जानने वालों की तादाद एक प्रतिशत से ज़्यादा नहीं है."
एक अन्य मस्जिद के इमाम रक़ीब कहते हैं, "ओवैसी की पार्टी यहाँ कुछ अरसे से सक्रिय ज़रूर है. लेकिन यहाँ उसका या आईएसएफ़ का वोटरों पर कोई असर नहीं पड़ेगा. यहाँ टीएमसी और काँग्रेस का ही असर है."
"अगर असर नहीं, तो चर्चा क्यों कर रहीं ममता?"
लेकिन ज़िले के वरिष्ठ पत्रकार सुकुमार महतो इससे सहमत नहीं हैं. वे कहते हैं, "तमाम दलों के नेता भले कह रहे हों कि ओवैसी की पार्टी या आईएसएफ़ इन चुनावों में कोई फ़ैक्टर नहीं है. लेकिन मुर्शिदाबाद, मालदा और दूसरे मुस्लिम-बहुल इलाक़ों में यह एक बड़ा फ़ैक्टर होगा."
दूसरी ओर, ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के ज़िला प्रभारी असादुल शेख़ सवाल करते हैं कि अगर ममता बनर्जी बंगाल में हमारी पार्टी का कोई असर नहीं होने का दावा कर रही हैं, तो हर रैली में इसकी चर्चा क्यों कर रही हैं?
शेख़ कहते हैं, "हमें रैली की अनुमति नहीं दी जा रही है. कोलकाता में ओवैसी साहब को भी रैली की अनुमति नहीं दी गई. पार्टी के नेताओं के ख़िलाफ़ झूठे मामले क्यों दर्ज किए जा रहे हैं? अगर यहाँ हमारा कोई असर ही नहीं है, तो ममता डर क्यों रही हैं?