नज़रिया: सत्यपाल मलिक के जम्मू-कश्मीर का राज्यपाल बनने के क्या हैं मायने
लेकिन मलिक अपने आप में एक ख़ास चुनाव हैं क्योंकि वह एक कट्टर दक्षिणपंथी नेता नहीं हैं और एक बार पहले जनता दल से बीजेपी का रुख कर चुके हैं.
पार्टी में प्रवेश करने से पहले वह वीपी सिंह सरकार में मंत्री पद भी संभाल चुके हैं.
लेकिन वह दूसरे कट्टर दक्षिणपंथी विकल्पों जैसे महाराष्ट्र के वर्तमान राज्यपाल सी विद्यासागर राव जैसों की मौजूदगी होने के बावजूद चुने गए हैं.
दो महीने पहले ईद-उल-फितर के मौके पर केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर में रमज़ान के दौरान लागू किए गए संघर्ष विराम को आगे बढ़ाने से इनकार कर दिया था.
इसके ठीक बाद बीजेपी ने पीडीपी के साथ चल रही गठबंधन सरकार से बाहर आने का फ़ैसला कर जम्मू-कश्मीर में राज्यपाल शासन की स्थिति पैदा कर दी.
इस ईद पर केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर के नए गवर्नर के रूप में पहली बार किसी राजनेता को चुनकर कश्मीरियों को एक नया तोहफ़ा दिया है.
जम्मू-कश्मीर के नए गवर्नर
बीजेपी काडर से आने वाले जम्मू-कश्मीर के नए राज्यपाल सत्यपाल मलिक इससे पहले बिहार के राज्यपाल की ज़िम्मेदारी निभा चुके हैं. सत्यपाल गुरुवार को शपथ लेकर नरेंद्र नाथ वोहरा की जगह लेंगे जो बीते दस सालों से इस पद पर मौजूद थे.
पूरे भारत में अल्पकालीन राजनीतिक उद्देश्यों के चलते राज्यपाल का पद केंद्र सरकार के मुखौटे की शक्ल ले चुका है.
हालांकि, जम्मू-कश्मीर में सरकारों को बर्खास्त करने के मामले में राज्यपालों का एक ख़ास इतिहास रहा है.
साल 1953 में शेख अब्दुल्ला की सरकार को उस दौर में सदर-ए-रियासत कहे जाने वाले डॉक्टर कर्ण सिंह ने बर्खास्त कर दिया था.
इसके बाद 1977 में इंदिरा गांधी ने एलके झा के गवर्नर रहते हुए शेख अब्दुल्ला की दो साल पुरानी सरकार को गिरा दिया था जिसके बाद जम्मू-कश्मीर में 105 दिनों तक राज्यपाल शासन लागू रहा.
जम्मू-कश्मीर में राज्यपाल की राजनीति
साल 1984 में इंदिरा गांधी ने नेशनल कॉन्फ्रेंस में बंटवारे की रूपरेखा तैयार करके शेख अब्दुल्ला के दामाद ग़ुलाम मोहम्मद शाह का समर्थन किया और फ़ारूक़ अब्दुल्ला की सरकार गिरा दी.
इस पूरी राजनीतिक गतिविधि में राज्यपाल की भूमिका अहम थी.
गांधी ने अपने करीबी जगमोहन को राज्यपाल बनाया जिसे पूर्व राज्यपाल बीके नेहरू ने नकार दिया था.
साल 1986 में राज्यपाल जगमोहन ने शाह सरकार को गिरा दिया.
इसके बाद साल 1990 में जब जगमोहन एक बार फिर जम्मू-कश्मीर के चरमपंथ को नियंत्रण में लाने के लिए राज्यपाल बनाए गए तो जगमोहन से पहले से नाराज़ चल रहे फ़ारूक़ अब्दुल्ला ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा दे दिया.
सत्यपाल मलिक से उम्मीदें
जम्मू-कश्मीर में राज्यपाल की तैनाती से जुड़े इस इतिहास के साथ नए गवर्नर अपने साथ नई उम्मीदें लेकर नहीं आते हैं.
इसकी जगह वह सिर्फ पहले से चली आ रही निराशा, चिंता और अनहोनी की आशंकाओं को बढ़ाने की स्थिति में हैं.
इतिहास में जम्मू-कश्मीर में जो राज्यपाल नियुक्त किए गए हैं उनका एक मात्र उद्देश्य जम्मू-कश्मीर के राजनीतिक माहौल को अपने हिसाब से बदलना रहा है.
लेकिन अब तक नियुक्त हुए एक भी राज्यपाल व्यक्तिगत रूप से राजनेता नहीं रहे हैं.
इस लिहाज़ से ये जम्मू-कश्मीर के इतिहास से आगे की कहानी है. वह एक राजनीतिक व्यक्ति हैं और बीजेपी के काडर में शामिल रहे हैं.
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राज्यपाल की नियुक्ति का समय
वह ऐसे समय में जम्मू-कश्मीर में प्रवेश कर रहे हैं जब बीजेपी इस राज्य में अपनी जगह पुख़्ता करना चाहती है और पूरे देश में भी कश्मीर के मुद्दे का फायदा उठाना चाहती है.
वह एक ऐसे समय में भी आए हैं जब संविधान के अनुच्छेद 35A पर चल रही सुनवाई अपने अंतिम पड़ाव पर है. इस मुद्दे पर अगली सुनवाई 27 अगस्त को होने वाली है.
एनएन वोहरा बीजेपी के कश्मीर मिशन के लिहाज़ से तीन मुख्य मुद्दों को लेकर रास्ते का रोड़ा समझे जा रहे थे.
इन मुद्दों में कश्मीर में अशांति को संभाला जाना, सरकार बनाया जाना और अनुच्छेद 35A शामिल है.
हालांकि, इनमें से अनुच्छेद 35A सबसे अहम है क्योंकि संविधान का ये अनुच्छेद कश्मीर के लोगों की नागरिकता को परिभाषित करता है और उन्हें विशेष अधिकार देता है. बीजेपी इसे हटवाना चाहती है.
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कट्टर दक्षिणपंती नेता नहीं सत्यपाल
बीते महीने, जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल एनएन वोहरा ने गृहमंत्री राजनाथ सिंह को पत्र लिखकर कहा था कि 35A के मुद्दे को तब तक के लिए छोड़ देना चाहिए जब तक राज्य में एक लोकप्रिय सरकार न बन जाए.
वोहरा के उत्तराधिकारी के रूप में मलिक का चुनाव बीजेपी की जम्मू-कश्मीर में एक ज़्यादा समर्पित राज्यपाल होने की चाहत को मजबूत करता है.
लेकिन मलिक अपने आप में एक ख़ास चुनाव हैं क्योंकि वह एक कट्टर दक्षिणपंथी नेता नहीं हैं और एक बार पहले जनता दल से बीजेपी का रुख कर चुके हैं.
पार्टी में प्रवेश करने से पहले वह वीपी सिंह सरकार में मंत्री पद भी संभाल चुके हैं.
लेकिन वह दूसरे कट्टर दक्षिणपंथी विकल्पों जैसे महाराष्ट्र के वर्तमान राज्यपाल सी विद्यासागर राव जैसों की मौजूदगी होने के बावजूद चुने गए हैं.
अगर तुलना की जाए तो मलिक को एक उदारवादी नेता के रूप में देखा जाता है.
पीएम मोदी ने कश्मीर के मुद्दे पर हाल ही में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के विज़न 'इंसानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत' के रास्ते पर चलने के बात कही है. ऐसे में मलिक कश्मीर नीति पर इस बदलाव के लिहाज़ से अनुकूल हैं.
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लेकिन ये शब्द असरहीन और भ्रामक साबित होंगे. इसी तरह की कोशिश में दो साल पहले मोदी ने गोलियों की जगह कश्मीरियों को गले लगाने की बात कही थी लेकिन इसके बाद भी बुलेट्स, पैलेट्स, क्रेकडाउन और युवाओं की अप्रत्याशित धरपकड़ तेज हुई.
दो महीने पहले जिस तरह बीजेपी ने पीडीपी के साथ चल रही गठबंधन सरकार को गिराने के लिए रमज़ान के दौरान होने वाले संघर्षविराम को आगे नहीं बढ़ाने के फ़ैसले का इस्तेमाल किया था.
ऐसे में ये नहीं लगता है कि बीजेपी कश्मीर के मसले पर किसी शांति प्रक्रिया को आजमाने में रुचि लेगी क्योंकि बीजेपी इस मुद्दे को सैन्य बल से ही सुलझाना चाहती है.
कश्मीर के मुद्दे पर बीजेपी का कड़ा रुख पूरे देश में उसके राजनीतिक प्रचार के लिए ज़रूरी है. ऐसे में इस बात की ज़्यादा संभावना है कि सत्यपाल मलिक को एक राज्यपाल के रूप में चुनना कश्मीर की राजनीति को सीधे तौर पर नियंत्रित करने और इसके साथ में उदारवादी पक्ष आगे रखने के लिए है जिससे एक संतुलन बना रहे.
इससे बीजेपी को आरएसएस के टैग के बिना कश्मीर की राजनीति को नियंत्रित करने का मौका मिलेगा. इसके साथ ही आने वाले दिन काफ़ी अहम होंगे जो कि उन उद्देश्यों को सामने लाएंगे जिसकी वजह सत्यपाल मलिक को राज्यपाल बनाया गया है जो कि एक बिना सोचे समझे किया गया चुनाव नहीं है.
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