पेंशन पर प्रदर्शन: 'इस जमाने में 200 रुपये पेंशन पर गुज़ारा कैसे हो'
ग़रीबों की समस्याएं कैसे एक दूसरे से जुड़ी होती हैं, यह भी दिखा जब हम लोगों से पेंशन की बात कर रहे थे और महिलाओं का एक समूह राशन और मनरेगा की समस्याएं बताने लगा.
यहां जो लोग जुटे थे, उनकी चेतना कहीं से भी ग़ैर-राजनीतिक नहीं लगी. ज़्यादातर लोगों ने अपनी मांगों में सीधे सरकार को संबोधित किया.
नई दिल्ली के जंतर मंतर पर वृद्धावस्था पेंशन बढ़ाने की मांग को लेकर रविवार को दो दिवसीय विरोध प्रदर्शन शुरू हुआ है.
मैं वहां पहुंचा तो अलग-अलग राज्यों से आए छोटे-छोटे संगठनों के प्रतिनिधि एक-एक करके अपनी अपनी भाषा में भाषण दे रहे थे. अलग-अलग राज्यों की सांस्कृतिक प्रस्तुतियां हो रही थीं.
बिहार की महिलाओं का एक समूह गीत गा रहा था, जिसके बोल थे, "दिल्ली के मोदी, एतना बेदर्दी."
मंच के पास ही एक रजिस्ट्रेशन डेस्क थी, जहां लोगों को इसी प्रदर्शन के लिए बनवाई गईं टोपियां और बिल्ले बांटे जा रहे थे. इन पर 'पेंशन का हक़' जैसे नारे लिखे हुए थे.
दरअसल वृद्धावस्था पेंशन योजना में केंद्र और राज्य दोनों सरकारें मिलकर योगदान करती हैं. राज्यों के अंशदान की रकम अलग-अलग है, जबकि केंद्र इसमें बीते 11 साल से सिर्फ़ 200 रुपये का अंशदान दे रहा है.
इन प्रदर्शनकारियों की मांग है कि केंद्र सरकार को अपना अंशदान बढ़ाना चाहिए.
'आंख चली गई, दिल तो बचा रहे'
राजस्थान के टोंक ज़िले के रहने वाले 80 साल के वली मोहम्मद भी यहां पहुंचे हैं. वे देख नहीं सकते. परिवार से अलग रहते हैं और कहते हैं कि उनके बच्चे उनकी क़द्र नहीं करते.
उन्हें सात सौ रुपये पेंशन मिलती है, पर उससे उनका गुज़ारा नहीं होता.
वह बताते हैं, "मुझे अटैक (हार्ट अटैक) आया हुआ है. जब 2014 में मुझे पहला अटैक आया तो मेरी जमा-पूंजी इलाज में लग गई. मैं गोलियां साथ लेकर चलता हूं. डॉक्टरों ने मेरी आंखों पर जवाब दे दिया है, पर यहां इस उम्मीद से आया हूं कि कैसे भी मेरी पेंशन बढ़ा दी जाए तो कम से कम मेरे दिल का इलाज चलता रहे."
'14 रुपये रोज़ पर कैसे जिए कोई'
यह विरोध प्रदर्शन एनजीओ हेल्प एज इंडिया और पेंशन परिषद की ओर से आयोजित किया गया है. पेंशन परिषद कई राज्यों के छोटे छोटे मज़दूर और सामाजिक संगठनों का समूह है.
पेंशन परिषद से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता निखिल डे बताते हैं कि कई जगहों पर राज्य सरकारें केंद्र की तुलना में पांच से आठ गुना अंशदान दे रही हैं.
निखिल डे के मुताबिक, गोवा और दिल्ली में वृद्धावस्था पेंशन की रकम दो हज़ार रुपये मासिक है. हरियाणा और आंध्र प्रदेश में ये रक़म एक हज़ार रुपये के क़रीब है. वहीं हिमाचल, राजस्थान, महाराष्ट्र, बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश में यह 400 से 600 रुपये के बीच है.
वह कहते हैं, "जहां 400 रुपये मिलते हैं, वहां बुज़ुर्गों को 14 रुपये प्रतिदिन पर गुज़ारा करना पड़ता है. 14 रुपये रोज़ पर कोई बुज़ुर्ग अपनी ज़िंदग़ी कैसे काट सकता है. दवाई चाहिए, खाना चाहिए, इज्ज़त से जीना है."
मांगें
प्रदर्शनकारियों की प्रमुख मांग ये है कि न्यूनतम मज़दूरी का कम से कम 50 फ़ीसदी वृद्धावस्था पेंशन में मिलना चाहिए.
आयोजकों में से एक जानी मानी सामाजिक कार्यकर्ता अरुणा रॉय मंच पर नारा लगवा रही थीं, "वोट चाहिए तो पेंशन तीन हज़ार. हमारी पेंशन कितनी हो, तीन हज़ार, तीन हज़ार."
यहां पहुंचे ज़्यादातर प्रदर्शनकारियों का ताल्लुक गांवों से है. उनमें से बहुत से लोग अशिक्षित भी हैं. पर तीन हज़ार का नारा सब तक संप्रेषित हो गया है. कई लोग जो हिंदीभाषी नहीं थे, वे भी अपनी भाषा में हमें इतना समझा ही गए कि तीन हज़ार की पेंशन चाहिए.
ग्रामीण भारत की समस्याएं कैसे एक दूसरे से जुड़ी होती है, ये भी दिखा, जब वृद्धावस्था पेंशन से बात विधवा पेंशन पर आ गई. फिर कुछ महिलाएं मनरेगा और राशन की समस्याएं बताने लगीं. सबसे निचले स्तर के अधिकृत लोगों के बर्ताव की ख़ूब शिकायतें मिलीं.
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'ज़िंदाबाद'
राजस्थान से आईं मूमी बाई से हमने बात करने की कोशिश की, फिर पता चला कि वो हिंदी नहीं बोलतीं. जब वो अपनी बात नहीं समझा सकीं तो सिर्फ़ 'ज़िंदाबाद' कहकर मंच पर चली गईं. उन्होंने वहां अरुणा रॉय को गले लगाया और फिर उतर आईं.
अरुणा रॉय कहती हैं, "इन लोगों ने मज़दूरी करके कमाया-खाया है और देश को बनाया है. हमारी इमारतें बनाईं, हमारी सड़कें बनाईं, हमारी खेती की है. एक उम्र के बाद हाथ-पांव चलते नहीं है. इस देश में सोशल सिक्योरिटी के नाम पर कुछ नहीं है. दिल्ली की केंद्र सरकार जो दो सौ रुपये महीना देती है और वह भी टारगेटेड है, यानी सभी बुज़ुर्गों को नहीं मिलता है. आलू, प्याज़, सब्ज़ी, दाल का क्या भाव है आज! ये मखौल उड़ाना है."
सरकार का पक्ष
सरकार का पक्ष जानने के लिए मैंने भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता गोपाल कृष्ण अग्रवाल से संपर्क किया. उन्होंने कहा कि हम इस बात से इनकार नहीं कर रहे कि 200 रुपये की रकम कम नहीं है.
उन्होंने कहा, "किसी भी सोशल सिक्योरिटी स्कीम में लाभार्थी ये मांग कर सकते हैं. पर जनकल्याणकारी योजनाओं की समग्रता में पहुंच देखनी चाहिए. यह इकलौती योजना तो है नहीं. ऐसा तो है नहीं कि जिसको इस योजना का लाभ मिलेगा, उसे दूसरी योजना का लाभ नहीं मिलेगा. हम इस बात से इनकार नहीं कर रहे कि केंद्र को अपना अंशदान बढ़ा देना चाहिए, वह तो कभी ख़त्म न होने वाली प्रक्रिया है."
लेकिन गोपाल कृष्ण अग्रवाल इस बात से असहमति जताते हैं कि देश मे सोशल सिक्योरिटी नाम की चीज़ नहीं है.
वह कहते हैं, "सरकार का अगर कहीं कोई फोकस रहा है तो समाज के पिछड़े वर्ग, सुदूर इलाकों में कैसे जीवन की गुणवत्ता बेहतर करने पर रहा है. केंद्र सरकार की 116 योजनाएं हैं जो ग़रीब कल्याण, पिछड़े वर्ग और सुदूर इलाक़ों की बेहतरी के लिए हैं. चाहे आप उज्ज्वला को ले लें, उजाला योजना को ले लें, डायरेक्ट बेनेफ़िट ट्रांसफ़र जैसी योजनाएं हों या नई आयुष्मान भारत योजना. सोशल सिक्योरिटी पर बात करते हुए इनकी आप पूरी तरह अनदेखी नहीं कर सकते."
'भाड़ा कहां से लाएं'
ये सब लोग जिस आर्थिक तबके से ताल्लुक रखते हैं, ज़ाहिर है वे अपने ख़र्च पर यहां नहीं पहुंचे. अरुणा रॉय और निखिल डे से पूछा तो उन्होंने कहा कि लोगों ने चंदा जमा करके अपने अपने गांव से लोगों को भेजा है.
बिहार से आई एक महिला ने कहा, "चंदा करके आए हैं. और क्या हमने घर में कमाकर रख दिया है जो उससे यहां आएंगे. ग़रीब लोग हैं, भूखे मरते हैं, कहां से लाएंगे भाड़ा."
पेंशन की रकम के अलावा जो दूसरी मांग है, वो ये है कि पेंशन को सार्वभौमिक (सभी के लिए) बनाया जाए. निखिल डे इसे समझाते हुए बताते हैं कि पेंशन की लाभार्थियों की संख्या वरिष्ठ नागरिकों की आबादी के हिसाब से नहीं है. कई जगहों पर सरकार ने एक कोटा तय किया हुआ है.
उन्होंने एक ऐसे व्यक्ति से मिलवाते हुए कहा कि ये उम्र और आर्थिक स्थिति के लिहाज़ से पेंशन के हक़दार हैं, लेकिन इन्हें नहीं मिलती है. शायद इनका नंबर तब आएगा, जब पेंशन लेने वालों में से किसी की मौत हो जाएगी.
राजनीति का सवाल
ग़रीबों की समस्याएं कैसे एक दूसरे से जुड़ी होती हैं, यह भी दिखा जब हम लोगों से पेंशन की बात कर रहे थे और महिलाओं का एक समूह राशन और मनरेगा की समस्याएं बताने लगा.
यहां जो लोग जुटे थे, उनकी चेतना कहीं से भी ग़ैर-राजनीतिक नहीं लगी. ज़्यादातर लोगों ने अपनी मांगों में सीधे सरकार को संबोधित किया. बिहार के अररिया ज़िले से आईं मांडवी ने यहां तक कहा कहा कि सरकार ने उनकी नहीं सुनी तो वो गांव-गांव जाकर एक एक आदमी को संगठित करेंगी और इस सरकार को वोट नहीं देंगी.
यही सवाल मैंने निखिल डे से भी पूछा तो वह बोले, "बिल्कुल ये प्रदर्शन राजनीतिक है. जब हम वोट डालते हैं तो वह राजनीति है. दिक़्क़त ये है कि कुर्सियों पर बैठे लोग राजनीतिक नहीं हैं. राजनीति का मतलब है, देश के लोगों पर ध्यान देना."
"लेकिन हम किसी पार्टी के नहीं हैं. 2012 से हम ये करते आ रहे हैं. सूचना का अधिकार और रोजगार गारंटी जैसे मुद्दों पर काम करते हुए हमें तीस साल हो गए. सरकारें आईं और गईं."
'दिल्ली के कान'
निखिल डे आरोप लगाते हैं कि वे मनरेगा, राशन और पेंशन के मुद्दों पर काम करते हैं और इन सभी मुद्दों पर इस सरकार का बिल्कुल उल्टा रुख़ रहा है.
वह कहते हैं, "पिछली सरकार के सामने भी हम जंतर मंतर पर ही 15 हज़ार लोग इकट्ठे हुए थे. कम से कम वो बात करने तो आए. कहीं कुछ बात आगे तो बढ़ी. पर इस सरकार में तो कोई बात करने भी नहीं आ रहा."
मैंने पूछा कि जब कोई बात करने नहीं आता तो दो दिन के प्रदर्शन से क्या हासिल होगा तो वह बोले, "ये होगा कि गांव गांव में संदेश जाएगा कि वहां भी पेंशन परिषद बनाओ और वोट मांगने नेता लोग आएं तो उन्हें मांग पत्र दिखाओ. आप जाएंगे क्या हज़ारीबाग, आप जाएंगे क्या झालावाड़, आप जाएंगे क्या तमिलनाडु के कोड्डालूर जहां से पूरी एक ट्रेन आई है? भारत ऐसा ही है कि यहां दिल्ली के ही कान खटखटाने पड़ते हैं कभी-कभी."
'भाजपा वालों को भी बुलाया है'
दिल्ली की यह एक गर्म दोपहर थी. खाने का समय हो गया था बड़े बड़े झोलों से पूरी और अचार निकाल लिया गया था. खाने के कूपन ले लेने का ऐलान भी मंच से हो गया. एक व्यक्ति किनारे छांव पाकर गमछा बिछाकर सो गया. कुछ महिलाओं की छोटी-छोटी महफ़िलें जारी रहीं.
सोमवार को इस प्रदर्शन का दूसरा दिन है जिसमें आयोजकों ने 'जन मंच' का कार्यक्रम रखा है. इसमें कई पार्टियों के नेताओं को भी न्योता दिया गया है.
निखिल डे ने कहा कि हम पार्टियों से उनका रुख़ जानना चाहेंगे. उसके लिए हमने भाजपा को भी निमंत्रण दिया है. कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियों को भी बुलाया है.
कलाकार रामलाल हाथों में एक कठपुतली लेकर उत्तराखंड से यहां पहुंचे थे. हमने पूछा कि उनकी ये मुर्दा कठपुतली क्या कहना चाहती है तो बोले, "नेताओं को ज़िंदग़ी भर तनख्वाह मिलती रहती है. सरकारी अफ़सरों को लाखों में पेंशन मिलती है. तो फिर ग़रीब बुज़ुर्ग आदमी जिसने सारी ज़िंदग़ी खेतों में काम किया है, मज़दूरी की है, उसे कम से कम तीन हज़ार पेंशन तो दो."
वहां से बाहर आते-आते दिल्ली के निज़ामुद्दीन में सड़कों और रैन बसेरों में रहने वाले परिवारों की महिलाओं ने घेर लिया. वे अपने आधार कार्ड दिखाकर कहने लगीं कि हमें पेंशन कब मिलेगी.