राम मंदिर मुद्दा ही नहीं, आंदोलन से जुड़े चेहरे भी परिदृश्य से बाहर
सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसलों के इंतज़ार और फिर कोर्ट की सुलह कराने की कोशिशों की वजह से तो ये मुद्दा चर्चा में था ही, विश्व हिन्दू परिषद ने भी दो-दो धर्म संसद की बैठकें करके इस मुद्दे को हवा देने की पूरी कोशिश की लेकिन चुनाव की घोषणा आते-आते यह मुद्दा चर्चा से ग़ायब हो गया.
लोकसभा चुनाव हों या फिर उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव, पिछले तीन-चार दशक से राम मंदिर का मुद्दा किसी न किसी रूप में ज़रूर छाया रहता था, लेकिन इस बार के चुनाव में न सिर्फ़ यह मुद्दा कहीं नहीं दिख रहा है बल्कि राम मंदिर आंदोलन से जुड़े तमाम चेहरे भी राजनीतिक परिदृश्य से ग़ायब हैं.
हालांकि लोकसभा चुनाव की घोषणा से ठीक पहले अयोध्या में राम मंदिर का मुद्दा सुर्खि़यों में ज़रूर था.
सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसलों के इंतज़ार और फिर कोर्ट की सुलह कराने की कोशिशों की वजह से तो ये मुद्दा चर्चा में था ही, विश्व हिन्दू परिषद ने भी दो-दो धर्म संसद की बैठकें करके इस मुद्दे को हवा देने की पूरी कोशिश की लेकिन चुनाव की घोषणा आते-आते यह मुद्दा चर्चा से ग़ायब हो गया.
न सिर्फ़ राजनीतिक दलों की ओर से बल्कि सोशल मीडिया में भी इस पर कोई चर्चा होती नहीं दिख रही है.
वरिष्ठ पत्रकार शरत प्रधान कहते हैं, "राम मंदिर की चर्चा मुख्य रूप से बीजेपी ही करती है. अब तक उसके पास यह बहाना था कि इस मामले के कोर्ट में होने के अलावा केंद्र और राज्य में अलग-अलग सरकारों की वजह से वह इस पर कुछ ख़ास नहीं कर पा रही है. लेकिन इस बार ऐसा कोई बहाना सामने नहीं है. ज़ाहिर है, इस मुद्दे को उठाकर वह ख़ुद को ही घिरी पाती."
वो कहते हैं, "ऐसे में पुलवामा की घटना और उसके बाद बालाकोट में हुई सैन्य कार्रवाई के ज़रिए राष्ट्रीय सुरक्षा और राष्ट्रीय अस्मिता का मामला उसे ज़्यादा लाभकारी मुद्दा लगा और वो उस मुद्दे को जमकर उठा भी रही है."
राम मंदिर 'रिस्की' मुद्दा
दरअसल, लोकसभा चुनाव से ठीक पहले पुलवामा की घटना ने बीजेपी के लिए चुनावी मुद्दे को पूरी तरह से बदल दिया. बालाकोट में वायु सेना के अभियान के बाद देश भर में राष्ट्रवादी माहौल बनाने और फिर उसकी आड़ में विपक्ष को घेरने की रणनीति बीजेपी को कहीं ज़्यादा कारगर दिखने लगी. जानकारों के मुताबिक़, राम मंदिर जैसे 'रिस्की' मुद्दे की बजाय, यह मुद्दा कहीं ज़्यादा फ़ायदेमंद दिख रहा है.
लेकिन यहां सबसे दिलचस्प तथ्य ये है कि 1990 के बाद यह शायद पहला लोकसभा चुनाव हो जब राम मंदिर आंदोलन से जुड़े तमाम नेता और साधु-संत चुनावी परिदृश्य से बाहर दिख रहे हों.
हालांकि इनमें से कई लोग अब जीवित नहीं है, कुछ को उम्र के चलते बीजेपी ने 'रिटायर' कर दिया है लेकिन कुछ शारीरिक रूप से सक्रिय होने के बावजूद राजनीतिक रूप से या तो निष्क्रिय बना दिए गए हैं या फिर निष्क्रिय हो गए हैं.
अयोध्या में राम मंदिर आंदोलन के चलते 'उग्र हिन्दुत्व' का नारा बुलंद करने वाले तेज़-तर्रार नेताओं का नब्बे के दशक में राजनीति में न सिर्फ़ बड़ी संख्या में प्रवेश हुआ बल्कि राजनीति में इनकी ज़बर्दस्त दख़ल भी रही. उस दौर के तमाम युवा नेताओं के अलावा कई साधु-संतों के लिए भी विश्व हिन्दू परिषद और कुछ अन्य संगठनों के रास्ते भारतीय जनता पार्टी में प्रवेश हुआ और लोग सांसद-विधायक और मंत्री तक बने.
मंदिर को बीजेपी से अलग रखने की कोशिश
भारतीय जनता पार्टी में अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी की तिकड़ी के अलावा कल्याण सिंह, उमा भारती, विनय कटियार, स्वामी चिन्मयानंद, रामविलास वेदांती जैसे तमाम लोग इस सूची में शामिल हैं.
इनमें से ज़्यादातर नेता साल 2014 के बाद से ही राजनीतिक वनवास की ओर भेजे जाने लगे और अब लगभग पूरी तरह से भेजे जा चुके हैं.
राम मंदिर आंदोलन को कवर करने वाले वरिष्ठ पत्रकार अरविंद कुमार सिंह इसकी वजह बताते हैं, "भारतीय जनता पार्टी का नेतृत्व अब जिन हाथों में है, उनका राम मंदिर आंदोलन से कोई वास्ता नहीं रहा. लेकिन ये सबको पता है कि मंदिर आंदोलन से जुड़े नेताओं का एक अलग आभामंडल हुआ करता था और एक ख़ास वर्ग में उनकी ज़बरदस्त अपील थी. मंदिर आंदोलन से जुड़े नेताओं ने मौजूदा नेतृत्व को स्वीकार भी नहीं किया. दूसरी ओर, मौजूदा नेतृत्व चाहता भी नहीं कि इनका आभा मंडल बरक़रार रहे. दरअसल, मौजूदा नेतृत्व बीजेपी की पहचान बन चुके मंदिर मुद्दे को भी बीजेपी से अलग रखने की ही कोशिश में लगा हुआ है."
अरविंद कुमार सिंह कहते हैं कि साल 2014 के बाद मंदिर आंदोलन से जुड़े नेता धीरे-धीरे राजनीतिक हाशिए पर लाए गए और अब पूरी तरह से उन्हें बीजेपी की राजनीति से दूर कर दिया गया है और पार्टी में उन्हीं नेताओं का बोलबाला है जो मंदिर आंदोलन के समय थे ज़रूर, लेकिन उस आंदोलन का वो कभी हिस्सा नहीं रहे.
उनके मुताबिक़, "नरेंद्र मोदी राष्ट्रीय राजनीति में थे ज़रूर लेकिन मंदिर आंदोलन के दौरान या उसके बाद भी ऐसा कोई बड़ा प्रभार या ज़िम्मेदारी उनके पास नहीं थी. उत्तर प्रदेश मंदिर आंदोलन और उसके चलते देश भर में बीजेपी के जनाधार की धुरी था. लेकिन यूपी से बड़े नेताओं को चुन-चुनकर मुख्य धारा की राजनीति से दूर कर दिया गया. वाजपेयी जी के समय ऐसा नहीं था. उस समय मंदिर आंदोलन से जुड़े नेताओं को न सिर्फ़ पार्टी में सम्मान मिला बल्कि तमाम साधु-संतों को भी राजनीति में आने का मौक़ा मिला."
बीजेपी मंदिर बनवाना ही नहीं चाहती थी?
विनय कटियार, कल्याण सिंह, उमा भारती, कलराज मिश्र, रामविलास वेदांती, स्वामी चिन्मयानंद जैसे बीजेपी के तमाम नेता राम मंदिर आंदोलन का भी जाना-पहचाना चेहरा हुआ करते थे. अटल बिहारी वाजपेयी का निधन हो चुका है, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और कलराज मिश्र को उम्रदराज़ होने के चलते टिकट नहीं दिया, उमा भारती ने चुनाव लड़ने से ख़ुद ही मना कर दिया जबकि कुछ लोग टिकट की आस लगाए होने के बावजूद टिकट पा नहीं सके.
राम विलास वेदांती तो पिछले हफ़्ते सरकार और बीजेपी के मौजूदा नेतृत्व पर ख़ासे नाराज़ हुए और उन्होंने सीधे तौर पर आरोप लगा दिया कि बीजेपी कभी राम मंदिर बनवाना चाहती ही नहीं थी.
उन्होंने कहा, "विश्व हिन्दू परिषद और आरएसएस के लोगों के बलिदान के चलते बीजेपी सत्ता में आई. लेकिन बीजेपी ने रामजन्मभूमि को स्वीकार नहीं किया, यह आश्चर्य की बात है. पांच साल हो गए, माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक बार भी अयोध्या नहीं आए. मुझे आश्चर्य है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी भगवान राम और अयोध्या में राम मंदिर को कैसे भूल गई है."
हालांकि बीजेपी के नेता राम मंदिर के मुद्दे को सुप्रीम कोर्ट में होने की बात कहकर टाल देते हैं लेकिन मंदिर आंदोलन से जुड़े नेताओं के राजनीतिक वनवास पर जवाब देने में उन्हें भी दिक़्क़त होती है.
बीजेपी प्रवक्ता राकेश त्रिपाठी कहते हैं, "टिकट किसे देना है, किसे नहीं देना है ये चुनाव समिति तय करती है. इस बारे में कोई एक व्यक्ति तो फ़ैसला करता नहीं है. पार्टी जिसे अधिकृत करती है, वही लोग कमेटी में होते हैं और उन्हीं की स्वीकृति से टिकट मिलता है."
मंदिर से सत्ता तक का सफ़र
बीजेपी प्रवक्ता कुछ भी कहें लेकिन बीजेपी से सांसद रहे राम विलास वेदांती की इस बात में दम है कि बीजेपी अयोध्या और राम मंदिर के कारण ही सत्ता में आई.
1984 में सिर्फ़ 2 लोकसभा सीटें जीतने वाली बीजेपी मंदिर मुद्दे के ज़रिए 1989 के लोकसभा चुनाव में पांच साल के भीतर सीधे 85 सीटों पर पहुंच गई.
बाद में बीजेपी ने न सिर्फ़ यूपी में सरकार बनाई, केंद्र में भी गठबंधन सरकार का नेतृत्व किया और साल 2014 में पहली बार पूर्ण बहुमत भी ले आई.
विनय कटियार फ़ैज़ाबाद (अयोध्या) से ही तीन बार लोकसभा में पहुंचे और उन्हें उम्मीद थी कि 2018 में राज्य सभा का कार्यकाल ख़त्म होने के बाद पार्टी दोबारा भेज देगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. हालांकि विनय कटियार बीजेपी सरकार और उसके मौजूदा नेतृत्व पर उतने हमलावर नहीं हैं जितने कि राम विलास वेदांती. उन्हें अब भी भरोसा है कि बीजेपी 2019 में सरकार बनाएगी और राम मंदिर का मुद्दा हल करेगी लेकिन इसके लिए वो एक और बड़ा आंदोलन खड़ा करने की भी बात कर रहे हैं.
कटियार, चिन्मयानंद हाशिये पर क्यों?
विनय कटियार को क़रीब से जानने वाले बीजेपी के एक नेता नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, "बीजेपी नेतृत्व ने उन्हें भी जमकर उपेक्षित किया लेकिन शायद वो अभी भी उम्मीद पाले हैं कि सरकार बनने पर पार्टी उन्हें किसी संवैधानिक पद पर बैठा सकती है. यही वजह है कि वो खुलकर मोदी सरकार और बीजेपी नेतृत्व का विरोध नहीं कर रहे हैं."
हालांकि ख़ुद विनय कटियार इस मुद्दे पर बहुत ज़्यादा बातचीत नहीं करते हैं, ख़ासकर मंदिर मुद्दे पर बीजेपी की कथित बेरुख़ी और उससे जुड़े नेताओं की राजनीतिक निष्क्रियता पर.
वहीं मंदिर आंदोलन से जुड़े एक अन्य संत स्वामी चिन्मयानंद देश के गृह राज्य मंत्री भी रह चुके हैं.
साल 2014 में भी टिकट चाहते थे और इस बार भी, लेकिन टिकट पाने में नाकाम रहे.
विनय कटियार की तरह बीजेपी के ख़िलाफ़ मुखर होकर कुछ कहने से परहेज़ करते हैं.
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- भाजपा का घोषणा पत्रः संविधान के दायरे में राम मंदिर निर्माण की संभावनाओं को तलाशा जाएगा
हेलिकॉप्टर नेताओं को तवज्जो
जानकारों के मुताबिक़, बीजेपी में पुरानी पीढ़ी के नेताओं की राजनीतिक निष्क्रियता या उनकी कथित उपेक्षा के अलावा आश्चर्यजनक बात ये है कि पार्टी में दूसरे दलों से आए नेता ख़ासी तवज्जो पा रहे हैं.
इससे भी ज़्यादा दिलचस्प बात ये है कि कई नेता तो न सिर्फ़ मंदिर आंदोलन के विरोधी रहे बल्कि हिन्दू देवी-देवताओं का उपहास तक उड़ाते थे.
उत्तर प्रदेश में बीजेपी के एक वरिष्ठ नेता बीएसपी से आए स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे नेताओं का उदाहरण भी देते हैं, लेकिन नाम न छापने की शर्त पर.