जॉर्ज फ़र्नांडिस के 'सियासी क़ातिल' नीतीश कुमार: नज़रिया
चूँकि पार्टी की ज़मीनी ताक़त नीतीश कुमार में निहित थी, इसलिए जॉर्ज से छुट्टी पा लेने जैसा बड़ा क़दम उठाने में किसी बड़ी रुकावट का उन्हें ख़तरा भी नहीं था.
लेकिन हाँ, राजनीति में नीतीश जिन्हें अपना अभिभावक, प्रेरक और मार्गदर्शक बताते नहीं थकते थे/हैं, उन्हीं को ख़राब स्वास्थ्य के बहाने पार्टी के चुनावी टिकट या राज्यसभा-सीट से वंचित कर देना नीतीश पर 'करामाती क़ातिल'-सा इशारा दे ही गया.
''दामन पे कोई छींट न ख़ंजर पे कोई दाग़
तुम क़त्ल करो हो कि करामात करो हो ''
बिहार के एक अज़ीम शायर कलीम आज़िज का यह शेर सियासत में कहाँ किन पर फ़िट बैठ रहा है, लोग यह समझ ही जाते हैं.
एक मुशायरे में इस शेर पर शायर को दाद देने वालों में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को भी शामिल देख अनायास ही मुझे जॉर्ज फ़र्नांडिस याद आ गए थे.
जॉर्ज जैसे धुरंधर लीडर के राजनीतिक जीवनकाल का आख़री अध्याय किस नेता की वजह से एक दर्दनाक दौर बन कर रह गया, यह कौन नहीं जानता ?
यहाँ आप को भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के जीवित शिखर पुरुष लालकृष्ण आडवाणी भी याद आ जाएँ तो इसे स्वाभाविक ही कहा जाएगा.
वर्ष 1994 में बिहार से उभरे एक सियासी मंच (समता पार्टी) पर जॉर्ज-नीतीश का जो 'मशाल छाप' रिश्ता बना था, वह वर्ष 2009 के आते-आते 'तीर छाप' चुभन का शिकार हो गया.
चाहे जॉर्ज फ़र्नांडिस की अध्यक्षता वाली तत्कालीन समता पार्टी हो, या उसके विलय के बाद शरद यादव की अध्यक्षता वाला जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू), दोनों के असली सूत्रधार तो नीतीश कुमार ही रहे हैं.
इसलिए जब राज्य की सत्ता और अपनी पार्टी पर मज़बूत पकड़ वाला बल नीतीश कुमार में बढ़ने लगा था, तब वह अपनी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ कुछ भी और किसी को भी क़बूल नहीं करने के मोड में दिखने लगे थे.
2005 में आई दरार
यही वह दौर था, जब उन्होंने जॉर्ज जैसे ऊँचे सियासी क़द वाले अपने गुरु (मेंटॉर) को भी हाशिए पर खिसकाने की सोच ली और अपनी इस चाहत में वो कामयाब भी हो गए.
दरअसल दोनों नेताओं के रिश्ते में दरार का पहला निशान वर्ष 2005 में ही दिख गया था.
लालकृष्ण आडवाणी ने उस वर्ष होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव से कई माह पूर्व ही नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री पद के लिए एनडीए का प्रत्याशी घोषित कर दिया था.
उस समय जेडीयू के एक बड़े नेता दिग्विजय सिंह ने इसका विरोध ये कहते हुए किया था कि इस बाबत एनडीए में जॉर्ज या अन्य किसी नेता से राय-मशवरा किये बिना आडवाणी जी को निजी तौर पर ऐसी घोषणा नहीं करनी चाहिए थी.
फिर तो जॉर्ज फ़र्नाडिस ने भी इस प्रसंग में छिड़ी चर्चा पर ये कह दिया कि मुख्यमंत्री का चुनाव पार्टी के निर्वाचित विधायकों की बैठक में हो, यही मुनासिब है.
बस यहीं से बात बिगड़नी शुरू हो गयी. माना जाता है कि इसी के बाद जेडीयू के राष्ट्रीय नेतृत्व वाले ओहदे से जॉर्ज को दरकिनार कर के शरद यादव को इस बाबत अधिक तरजीह देने वाली रणनीति पर अमल होने लगा.
कहा यह भी जाता है कि नीतीश कुमार के दिल में इस कारण चुभा शूल तभी निकला, जब उन्होंने पहले बाँका से दिग्विजय सिंह को और बाद में मुज़फ़्फ़रपुर से जॉर्ज फ़र्नाडिस को लोकसभा चुनाव (2009) में जेडीयू का उम्मीदवार बनने नहीं दिया.
- कम आशिक़ मिज़ाज नहीं रहे हैं भारतीय राजनेता भी!
- 2014 वाला एनडीए 2019 में शायद नहीं होगा, फिर कैसा होगा?
'सियासी क़ातिल'
चूँकि पार्टी की ज़मीनी ताक़त नीतीश कुमार में निहित थी, इसलिए जॉर्ज से छुट्टी पा लेने जैसा बड़ा क़दम उठाने में किसी बड़ी रुकावट का उन्हें ख़तरा भी नहीं था.
लेकिन हाँ, राजनीति में नीतीश जिन्हें अपना अभिभावक, प्रेरक और मार्गदर्शक बताते नहीं थकते थे/हैं, उन्हीं को ख़राब स्वास्थ्य के बहाने पार्टी के चुनावी टिकट या राज्यसभा-सीट से वंचित कर देना नीतीश पर 'करामाती क़ातिल'-सा इशारा दे ही गया.
वैसे, इतनी खुली बात पर और खुल कर या विस्तार से क्या बोलना? यह मौक़ा ऐसा है भी नहीं. अच्छा है कि जॉर्ज फ़र्नांडीस के देहावसान पर भावुक हुए नीतीश के अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि वाले मार्मिक बोल ही मीडिया में मुखर हो रहे हैं.