मोदी-शाह का ये फॉर्मूला काम कर गया तो ही फिर से बन पाएगी भाजपा सरकार
नई दिल्ली- कई सर्वे आ चुके हैं। कोई भी सर्वे ये बताने के लिए तैयार नहीं है कि बीजेपी या एनडीए 2014 वाली कामयाबी इस चुनाव में भी दोहराने की स्थिति में है। ऊपर से चुनौती ये है कि उत्तर प्रदेश में उसके खिलाफ एसपी-बीएसपी और आरएलडी हाथ मिला चुके हैं। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में विधानसभा चुनाव जीतने के बाद कांग्रेस की उम्मीदों का घोड़ा सातवें आसमान पर है। गुजरात से भी पार्टी को चैलेंज मिल रहा है। ऐसे में क्या सिर्फ पांच साल के काम का भरोसा है, जिसके चलते बीजेपी फिर से सरकार बनाने का दावा करती है? या फिर पार्टी सिर्फ मोदी की लोकप्रियता के भरोसे बैठी है? नहीं। सरकार के काम और प्रधानमंत्री की लोकप्रियता के अलावा भारतीय जनता पार्टी के पास वो सियासी फॉर्मूला भी है, जो काम कर गया तो 'अबकी बार फिर मोदी सरकार' वाला उसका जुमला सच हो सकता है। लेकिन, पार्टी के इस फॉर्मूले को समझने के लिए यूपी, बिहार और पश्चिम बंगाल में वोटों के गणित को समझना जरूरी है, क्योंकि पार्टी का भविष्य इस बार बहुत कुछ इन्हीं राज्यों से मिलने वाले चुनाव परिणामों पर ही टिका हुआ है।
बीजेपी की कमजोर कड़ी क्या है?
तीनों राज्यों में मुसलमान मतदाताओं की भारी-भरकम तादाद बीजेपी की चिंता का कारण है। मसलन पश्चिम बंगाल में 25% से ज्यादा, उत्तर प्रदेश में 20% से अधिक और बिहार में 17% से ज्यादा मुसलमान वोट की भरपाई करना उसके लिए बहुत बड़ी चुनौती है, जो आमतौर पर बीजेपी के खिलाफ वोट करते हैं। हिंदुस्तान टाइम्स के मुताबिक पश्चिम बंगाल में पार्टी ने इसलिए सिर्फ 32 सीटों पर ही जोर लगाने का फैसला किया है। क्योंकि, बाकी 10 सीटों पर मुस्लिम मतदाता निर्णायक भूमिका में हैं। यानि यहां पर बीजेपी की लाचारी ये है कि उसकी लड़ाई माइनस 10 (-10) सीटों से शुरू ही होती है। इसी तरह यूपी में अगर 20 फीसदी से ज्यादा मुस्लिम वोट इकट्ठे कांग्रेस या महागठबंधन के खाते में चले गए, तो 2014 को दोहराना नाममुकिम है। बिहार का मुस्लिम बहुल सीमांचल इलाका तो पार्टी की राह में रोड़ा अटकाता ही रहा है।
बीजेपी के लिए सबसे खतरे की बात ये है कि इन इलाकों में सिर्फ मुसलमान वोटर ही उसके खिलाफ नहीं हैं। उदाहरण के लिए यूपी में यादव-जाटव और कुछ अन्य जातियों का एक बड़ा वर्ग उसके लिए मुश्किलें पैदा कर रहे हैं, तो बिहार में यादवों का बड़ा वर्ग और कुछ दूसरी पिछड़ी जातियां भी उसके पाले में आने को तैयार नहीं हैं। उत्तर प्रदेश में तो इसकी भरपाई के लिए पार्टी ने हर लोकसभा सीट पर 50% से ज्यादा वोट शेयर हासिल करने की रणनीति बनाई है, जो कि बहुत बड़ी चुनौती लगती है।
बीजेपी को यहां से उम्मीद है
पार्टी के लिए उम्मीद की किरण ये है कि इतनी ज्यादा संख्या में मुस्लिम वोट होते हुए भी यूपी में 2014 और 2017 में और बिहार में 2015 में दोनों राज्यों में उसे बहुत ही बड़ी सफलता मिली थी। वह पश्चिम बंगाल से भी इस बार ऐसी ही उम्मीद लगाए बैठी है।
पार्टी के हित में पहली स्थिति वो है, जब मुसलमान वोट बीजेपी के खिलाफ एकजुट होकर वोटिंग करता है, तो उसके उलट हिंदू जातियों की एक प्रतिक्रिया देखने को भी मिलती है। यूपी में पिछले दोनों चुनावों का परिणाम यही साबित करता है। दोनों बार वहां समाजवादी पार्टी की मुस्लिम-तुष्टिकरण नीति के खिलाफ तमाम हिंदू जातियां बीजेपी के पक्ष में एकजुट हो गईं। पश्चिम बंगाल में इस बार भाजपा ऐसे ही हालात बनने के सपने संजो रही है। जब भी कोई पार्टी मुसलमानों की हितैषी बनने की कोशिश करती है, तो बीजेपी को हिंदुओं को एकजुट करने का स्वाभाविक अवसर मिल जाता है। इस स्थिति में बीजेपी के खिलाफ मुसलमानों की गोलबंदी ही बीजेपी के लिए फायदेमंद साबित होती है।
दूसरी स्थिति में तब पार्टी फायदे में रहती है, जब उसके खिलाफ मुस्लिम वोट एकजुट न होकर अलग-अलग पार्टियों और गठबंधनों के बीच बंट जाता है। 2014 में उत्तर प्रदेश में मुस्लिम वोट एसपी-बीएसपी और कांग्रेस के बीच काफी हद तक बंट गए थे, जबकि उनके खिलाफ हिंदू वोट काफी हद तक इकट्ठे बीजेपी के पक्ष में पड़े थे। 2017 में भी मुसलमान दो लड़कों और बहन जी के बीच उलझन में पड़ गए थे। यूपी विधानसभा चुनाव में तो लगभग 100 मुस्लिम उम्मीदवारों ने बीजेपी का रास्ता और भी आसान कर दिया था।
तीसरी स्थिति तब पैदा होती है, जब राष्ट्रीय छवि वाला दमदार चेहरा बीजेपी के पक्ष में मैदान में उतरता है। इस स्थिति में पार्टी तमाम परंपरागत सियासी मान्यताओं को तोड़ने का दम रखती है। एक तरह से ऐसा चुनाव अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव के रूप में तब्दील हो जाता है। 2014 का चुनाव उसी का नमूना माना जा सकता है। तब बीजेपी ने नरेंद्र मोदी जैसी दमदार शख्सियत को मैदान में उतारा था और मोदी लहर की बदौलत बाजी मार ली थी। ऐसी स्थिति में मुस्लिम वोट उसके खिलाफ होकर भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सके।
इसे भी पढ़ें- दोबारा नहीं लौटी है गैर कांग्रेसी सरकार, क्या मोदी कर पाएंगे वो करिश्मा?
बीजेपी के खिलाफ विपक्ष का फॉर्मूला
लेकिन, सबसे बड़ा सवाल यही है कि 2019 में क्या होगा? क्या बीजेपी को हटाने के लिए एकजुट मुस्लिम वोट का महत्त्व फिर से बढ़ गया है? क्योंकि 5 साल तक सरकार में रहने के बावजूद भाजपा मुसलमानों के एक बड़े वर्ग को रिझा पाने में नाकाम रही है। कई कारणों से आज भी मुसलमान बीजेपी से दूर ही रहना चाहते हैं। विपक्ष की सारी रणनीति का आधार भी मुस्लिम वोट बैंक ही है। लेकिन, इस बार वह इसकी उलट प्रतिक्रिया को लेकर बहुत ही सतर्क है। वह भीतर ही भीतर मुसलमानों पर डोरे तो डाल रहा है, लेकिन हिंदुओं से भी दूरी मिटाने की जुगत लगा रहा है। जैसे- ममता बनर्जी पूजा पंडालों को आर्थिक सहायता देने में अब नहीं हिचकिचातीं, तो राहुल गांधी को अब न टीका लगाने से परहेज है और न ही खुद को जनेऊधारी ब्राह्मण साबित करने से। प्रियंका गांधी वाड्रा को अब न गंगाजल से आचमन करने में दिक्कत है और न अयोध्या का दौरा करने में। ममता दीदी मोदी को संस्कृत श्लोक के नाम पर चैलेंज करने लगी हैं, तो बुआ और बबुआ खुद को मुसलमानों का एकमात्र रहनुमा बताना छोड़ चुके हैं। क्योंकि, इन सब को लगता है कि मुस्लिम वोट बैंक पर तो उनका एकाधिकार है ही, अगर हिंदू वोट को एकजुट होने देने से रोक दिया,तो फिर अगली सरकार हमारी ही है।
बीजेपी की जीत का फॉर्मूला ये हो सकता है
हालात ने बीजेपी को एक बार फिर से 2014 के मोड़ पर ला दिया है। 5 साल पहले वो कांग्रेस के 10 साल के राज्य में हुए घोटालों और विकास के बड़े-बड़े वादों की बदौलत सरकार में आई थी। उस वक्त पार्टी को नरेंद्र मोदी के रूप में वो चेहरा मिला था, जिसमें देश ने उम्मीद देखी थी। आज बीजेपी मोदी के उसी चेहरे को राष्ट्रवाद के एकमात्र प्रतीक के रूप में पेश करना चाहती है, जहां उनके मुकाबले विपक्ष का कोई नेता खड़ा नहीं हो। उसके लिए बालाकोट में एयर स्ट्राइक और स्पेस में सैटेलाइट पर धांसू स्ट्राइक राष्ट्रवाद और हिंदुत्व की भावना को चरम पर पहुंचाने का कारगर फॉर्मूला हो सकता है। यह ऐसा फॉर्मूला है, जहां नारो की गूंज में जातीय भेदभाव को दबाया जा सकता है। पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी इसी फॉर्मूले पर कामयाबी हासिल कर चुकी है। पार्टी मानती है कि विपक्षी पार्टियां अभी भी मुस्लिम तुष्टिकरण में लगी हैं और हिंदू वोट को एकजुट करने का यही फंडा सब पर भारी पड़ सकता है। इसलिए शायद मोदी और शाह को लगता है कि मुसलमान अगर उनके खिलाफ गोलबंद हो भी गए तो हिंदुओं की गोलबंदी से 2019 में भी जीत पक्की है।
इसे भी पढ़िए- नरेंद्र मोदी (Narendra Modi in Meerut) की पहली चुनावी रैली के 5 दमदार डायलॉग