#MeToo: क्या चुंबन देना सेक्सुअल हैरेसमेंट है?
इसमें यौन उत्पीड़न की परिभाषा तो वही है पर उसकी जगह और संदर्भ काम से जुड़ा होना चाहिए.
यहां काम की जगह सिर्फ़ दफ़्तर ही नहीं बल्कि दफ़्तर के काम से कहीं जाना, रास्ते का सफ़र, मीटिंग की जगह या घर पर साथ काम करना, ये सब शामिल है. क़ानून सरकारी, निजी और असंगठित सभी क्षेत्रों पर लागू है.
दूसरा फ़र्क ये है कि ये औरतों को अपने काम की जगह पर बने रहते हुए कुछ सज़ा दिलाने का उपाय देता है.
यानी ये जेल और पुलिस के कड़े रास्ते से अलग न्याय के लिए एक बीच का रास्ता खोलता है
#MeToo यानी 'मैं भी' के हैशटैग के साथ भारत में कई महिला पत्रकार सोशल मीडिया पर लिख रही हैं. उनका मक़सद है #MeToo के अंतरराष्ट्रीय अभियान के साथ जुड़ना. ये बताना कि महिलाओं का यौन उत्पीड़न कितनी व्यापक समस्या है.
कई तरह के वाकये सामने आ रहे हैं. भद्दे मज़ाक करने, ज़बरदस्ती छूने, सेक्स करने की दरख़्वास्त करने से लेकर सेक्सुअल ऑर्गन्स की तस्वीरें भेजने तक.
कई महिलाएं अब भी सामने नहीं आई हैं. यौन उत्पीड़न के बारे में अपने दोस्तों से ही बात कर पा रही हैं. #MeToo से बने माहौल के बावजूद सार्वजनिक तौर पर बोलने के ख़ामियाज़े का डर बना हुआ है.
वहीं मर्दों के बीच अलग बेचैनी है और मीडिया संस्थानों में सही और ग़लत बर्ताव, बहस का मुद्दा बन गया है.
इस पूरी बहस के मूल में एक बात है कि साथ काम कर रहे मर्द और औरत के बीच मर्ज़ी से बना हर संबंध, चाहे वो दोस्ताना हो या 'सेक्सुअल' रूप ले ले, उत्पीड़न नहीं है.
यहां अहमियत 'मर्ज़ी' या सहमति पर है. ये अलग बात है कि औरतों को मर्ज़ी बताने की आज़ादी हमेशा नहीं होती. पर इसके बारे में बाद में बात करते हैं.
कैसा बर्ताव यौन उत्पीड़न होता है?
सबसे पहले ये जान लें कि सहमति से किया मज़ाक, तारीफ़ या उसमें इस्तेमाल की गई 'सेक्सुअल' भाषा में कोई परेशानी नहीं है.
किसी से कस कर हाथ मिलाना, कंधे पर हाथ रख देना, बधाई देते हुए गले लगाना, दफ़्तर के बाहर चाय-कॉफ़ी या शराब पीना, ये सब अगर सहमति से हो तो इसमें ग़लत कुछ भी नहीं है.
किसी भी काम की जगह पर एक मर्द का औरत की तरफ़ आकर्षित हो जाना सहज है. ऐसा होने पर वो मर्द अपनी सहकर्मी, उस औरत को ये साफ़ तौर पर कहकर या इशारों से बताने की कोशिश करेगा.
अगर वो औरत उस बात या 'सेक्सुअल' तरीके से छुए जाने पर आपत्ति जताए, 'ना' कहे पर इसके बावजूद मर्द अपना बर्ताव ना बदले तो ये यौन उत्पीड़न है.
औरत अगर इसे पसंद करे, आगे बढ़ाना चाहे, चुंबन या शारीरिक संबंध तक के लिए तैयार हो तो ये दो वयस्क लोगों के बीच का रिश्ता है और इसे उत्पीड़न नहीं कहा जा सकता.
बुनियादी बात ये कि अगर औरत 'ना' कहती है यानी उसकी सहमति नहीं है और मर्द फिर भी अपने बर्ताव से ज़बरदस्ती उसके नज़दीक आने की कोशिश करे तो ये यौन उत्पीड़न है.
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सहमति देने की 'आज़ादी' कब नहीं होती?
सोशल मीडिया पर #MeToo के साथ लिखी जा रही कई घटनाओं में औरतों का आरोप है कि वो यौन उत्पीड़न करनेवाले व्यक्ति को रोकने या उसके ख़िलाफ़ शिकायत करने की आज़ादी नहीं महसूस कर रही थीं.
मसलन अगर ये मर्द उस औरत का बॉस है, उससे ऊंचे पद पर है, या संस्था में प्रभुत्व रखता है तो औरत के लिए नौकरी पर बुरा असर पड़ने के डर से 'ना' कहना मुश्किल हो सकता है.
अगर शारीरिक चोट का डर हो तब भी सहमति देने की पूरी आज़ादी नहीं रहती.
सहमति बोलकर या इशारे से दी जा सकती है पर स्पष्ट होनी चाहिए. इसकी ज़िम्मेदारी जितनी औरत की है उतनी ही मर्द की.
हद से ज़्यादा शराब का नशा हो तो ना मर्द सहमति मांगने के क़ाबिल होगा और ना औरत बताने के.
क़ानून में यौन उत्पीड़न की परिभाषा क्या है?
यौन उत्पीड़न की रोकथाम के लिए दो क़ानून हैं. दोनों ही साल 2013 में लाए गए.
पहले क़ानून के तहत 'किसी के मना करने के बावजूद उसे छूना, छूने की कोशिश करना, यौन संबंध बनाने की मांग करना, सेक्सुअल भाषा वाली टिप्पणी करना, पोर्नोग्राफ़ी दिखाना या कहे-अनकहे तरीके से बिना सहमति के सेक्सुअल बर्ताव करना', यौन उत्पीड़न माना जाएगा.
इसके लिए तीन साल की जेल की सज़ा और जुर्माने का दंड हो सकता है.
दूसरा क़ानून, 'सेक्सुअल हैरेसमेंट ऑफ़ वुमेन ऐट वर्कप्लेस (प्रिवेन्शन, प्रोहिबिशन एंड रिड्रेसल)', ख़ास तौर पर काम की जगह पर लागू होता है.
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इसमें यौन उत्पीड़न की परिभाषा तो वही है पर उसकी जगह और संदर्भ काम से जुड़ा होना चाहिए.
यहां काम की जगह सिर्फ़ दफ़्तर ही नहीं बल्कि दफ़्तर के काम से कहीं जाना, रास्ते का सफ़र, मीटिंग की जगह या घर पर साथ काम करना, ये सब शामिल है. क़ानून सरकारी, निजी और असंगठित सभी क्षेत्रों पर लागू है.
दूसरा फ़र्क ये है कि ये औरतों को अपने काम की जगह पर बने रहते हुए कुछ सज़ा दिलाने का उपाय देता है.
यानी ये जेल और पुलिस के कड़े रास्ते से अलग न्याय के लिए एक बीच का रास्ता खोलता है जैसे संस्था के स्तर पर आरोपी के ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई, चेतावनी, जुर्माना, सस्पेंशन, बर्ख़ास्त किया जाना वगैरह.
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कौन तय करेगा कि यौन उत्पीड़न हुआ?
क़ानून के मुताबिक दस से ज़्यादा कर्मचारियों वाले हर संस्थान के लिए एक 'इंटर्नल कम्प्लेंट्स कमेटी' बनाना अनिवार्य है जिसकी अध्यक्षता एक सीनियर औरत करे, कुल सदस्यों में कम से कम आधी औरतें हों और एक सदस्य औरतों के लिए काम कर रही ग़ैर-सरकारी संस्था से हो.
उन संस्थानों के लिए जहां दस से कम कर्मचारी काम करते हैं या शिकायत सीधा मालिक के ख़िलाफ़ है, वहां शिकायत ज़िला स्तर पर बनाई जानेवाली 'लोकल कम्प्लेंट्स कमेटी' को दी जाती है.
शिकायत जिस भी कमेटी के पास जाए, वो दोनों पक्ष की बात सुनकर और जांच कर ये तय करेगी कि शिकायत सही है या नहीं.
सही पाए जाने पर नौकरी से सस्पेंड करने, निकालने और शिकायतकर्ता को मुआवज़ा देने की सज़ा दी जा सकती है. औरत चाहे और मामला इतना गंभीर लगे तो पुलिस में शिकायत किए जाने का फ़ैसला भी किया जा सकता है.
अगर शिकायत ग़लत पाई जाए तो संस्थान के नियम-क़ायदों के मुताबिक उन्हें उपयुक्त सज़ा दी जा सकती है.
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