राजस्थान: कांग्रेस को क्या दे पाएंगे बीजेपी से आए नेता?
जयपुर। कांग्रेस ने जयपुर के रामलीला मैदान में हुए कार्यकर्ता सम्मेलन के दौरान बीजेपी के तीन नेताओं को पार्टी जॉइन करा और पार्टी को समर्थन दे रहे निर्दलीय विधायकों से उनकी निष्ठा राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी के सामने एक बार फिर प्रकट करा कर शक्ति प्रदर्शन किया। कांग्रेस में बीजेपी के तीन बड़े नेता शामिल हुए - घनश्याम तिवाड़ी, सुरेंद्र गोयल और जनार्दन सिंह गहलोत। बीजेपी के टिकट पर चुने गए, लेकिन निर्वाचन के तत्काल बाद से कांग्रेस के पाले में दिख रहे जयपुर के जिला प्रमुख मूलचंद मीणा और जयपुर के महापौर विष्णु लाटा भी बाक़ायदा कांग्रेसी हो गए। इनके साथ बसपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष डूंगरराम गेदर भी कांग्रेस में शामिल हो गए।
भाजपा के दिग्गज कांग्रेस के सपंर्क में
घनश्याम तिवाड़ी ने कुछ दिन पहले ही सीएम अशोक गहलोत से मुलाकात की थी। उसके बाद से ही उनके कांग्रेस में शामिल होने की अटकलें लगाई जा रही थीं। पूर्व कैबिनेट मंत्री सुरेंद्र गोयल विधानसभा चुनाव में टिकट कटने से नाराज चल रहे थे। भाजपा उन्हें मनाने का प्रयास भी कर रही थी, लेकिन गोयल नहीं माने। वहीं जर्नादन सिंह गहलोत ने भी मौका देख कर अपनी पुरानी पार्टी में लौटना ही उचित समझा। लेकिन राजनीतिक गलियारों में सवाल गूंज रहे हैं कि ये नेता कांग्रेस को दे क्या पाएंगे, क्योंकि सभी की राजनीतिक क्षमताओं पर कई सवाल हैं?
इन पर एक-एक कर विचार करें। घनश्याम तिवाड़ी भाजपा के दिग्गज नेता माने जाते हैं। ऐसा इसलिए है कि वे छह बार विधायक चुने गए और एक ही सीट सांगानेर से लगातार तीन बार विधायक बनने का करिश्मा कर चुके हैं। तिवाड़ी का इतिहास देखें, तो वे स्व. भैरों सिंह शेखावत के काल से ही विवादों में रहे हैं। वसुंधरा राजे से उनकी अदावत जगज़ाहिर है। इसी के कारण उन्होंने गत विधानसभा चुनाव से पूर्व भाजपा छोड़ कर नई पार्टी 'भारत वाहिनी' बना ली और प्रदेश की सभी दो सौ सीटों पर प्रत्याशी उतारने की घोषणा की। ऐसा संभव नहीं हुआ। उनकी भारत वाहिनी पार्टी ने जितने भी उम्मीदवार उतारे थे, तिवाड़ी सहित सभी को हार का मुंह देखना पड़ा। समूचे चुनाव प्रचार के दौरान और उससे पहले विधानसभा में भी वे कांग्रेस-भाजपा दोनों पार्टियों पर समान रूप से हमला करते दिखते रहे। रिफाइनरी के मसले पर उन्होंने दोनों दलों पर राज्य की जनता को धोखा देने का आरोप लगाया था। उनके भाजपा में रहते माना जाता था कि तिवाड़ी ने सांगानेर विधानसभा क्षेत्र को अपना गढ़ बना दिया है, लेकिन गत विधानसभा चुनाव में इसी क्षेत्र से उनकी बुरी तरह हार ने यह सच्चाई उजागर की कि क्षेत्र उनका नहीं, पार्टी का गढ़ है। यहां का मतदाता खुल कर कहता है कि क्षेत्र का सारा विकास कांग्रेस, विशेषकर अशोक गहलोत के शासनकाल में हुआ है। तिवाड़ी ने क्षेत्र में हर सड़क के मुहाने पर लोहे का गेट लगवाने के अलावा कुछ नहीं किया। यह लोहे के गेट भी अब या तो ट्रैफिक में अड़चन बनने लगे हैं या अतिक्रमण के काम आ रहे हैं। ऐसी स्थिति में वे कांग्रेस को कैसा और कितना लाभ पहुंचा पाएंगे, यह सहज समझा जा सकता है।
कांग्रेस कैसे करेगी इन नेताओं को संतुष्ट
घनश्याम तिवाड़ी जिस तरह वसुंधरा राजे से अदावत के लिए मशहूर हैं, ठीक उसी तरह मेयर विष्णु लाटा और तिवाड़ी की राजनीतिक शत्रुता भी विख्यात है। लाटा महत्वाकांक्षी नेता हैं और अपना लक्ष्य हासिल करने के लिए किसी को भी गच्चा देने में उन्हें कोई झिझक नहीं होती, यह वे मेयर के चुनाव के दौरान प्रकट कर चुके हैं। तिवाड़ी भी भाजपा में अपनी महत्वाकांक्षाएं पूरी नहीं हो पाने से कुपित होकर कांग्रेस में आए हैं। अब ये दोनों विपरीत ध्रुव एक साथ कांग्रेस में हैं, तो सीएम अशोक गहलोत को इन्हें एक साथ साधने और संतुष्ट रखना भी भारी पड़ने वाला है। देखना होगा कि वे इनमें सामंजस्य कैसे बनाएंगे?
इनमें से जनार्दन सिंह गहलोत पूर्व कांग्रेसी ही है। वे कांग्रेस में अपनी उपेक्षा से दुखी होकर ही तत्कालीन सीएम वसुंधरा राजे की पहल पर भाजपा में गए थे। यह उनका दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि भाजपा में भी उन्हें कोई ख़ास तवज़्ज़ो नहीं मिली। यहां भी उन्हें पहले की तरह ही खेलों की राजनीति तक सीमित रहने दिया गया। इसका एक बड़ा कारण उनका अपनी जमीन से कट जाना रहा। गहलोत को उसी समाज से अशोक गहलोत जैसा कद्दावर नेता मौजूद होते कांग्रेस में वह भाव कभी नहीं मिलना था, यह तब भी तय था और अब भी है। ऎसी स्थिति में वे घरवापसी के बाद कोई विशेष मुकाम पा लेंगे, इसमें संदेह ही है। पार्टी को भी उनसे कोई बहुत बड़ा फायदा मिलने जा रहा है, ऐसा भी नहीं दिखता। हां, वे करौली-धौलपुर सीट पर कुछ वोट कांग्रेस की तरफ खिसका सकते हैं। उनसे कांग्रेस की यही उपलब्धि होगी।
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वसुंधरा के कई करीबी भी कांग्रस मे आ सकते हैं
जैतारण से विधायक रहे सुरेंद्र गोयल वसुंधरा सरकार में कैबिनेट मंत्री थे और उन्हें सीएम का करीबी माना जाता था। पिछले विधानसभा चुनाव में उनका टिकट कट गया, तो उन्होंने बगावत कर दी और भाजपा की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। उनके इस्तीफे के बाद जिले में घमासान मच गया। उनके समर्थक पार्टी कार्यालय के बाहर पहुंचे और नारेबाजी करने लगे। गोयल ने पत्रकारों से कहा, "मैं जनसंघ के दिनों से बीजेपी से जुड़ा हूं। पार्टी ने मेरे साथ ऐसा किया? मैं किसी दबाव में नहीं आने वाला। मैं निर्दलीय चुनाव लड़ूंगा। मेरी विधानसभा के लोग हैरान हैं कि मेरे साथ ऐसा बर्ताव किया गया।" अपने क्षेत्र में उनका दबदबा रहा है और वे पांच बार विधायक चुने गए। इसके बावजूद पिछले चुनाव में जैतारण से ही उन्हें भाजपा के प्रत्याशी अविनाश गहलोत के सामने पराजय का मुंह देखना पड़ा। इसके बाद पार्टी में उनकी वापसी असंभव हो गई थी, इसलिए उनके सामने कांग्रेस जॉइन कर लेने का विकल्प ही बचा था।
वहीं प्रदेश के निर्दलीय विधायकों राजकुमार गौड़, रमीला खडिया, कांतिलाल मीणा, रामकेश मीणा, लक्ष्मण मीणा, संयम लोढा, बाबूलाल नागर, खुशवीर मीणा, बलजीत यादव, सुरेश टांक, खुशवीर सिंह, महादेव सिंह खंडेला ने कांग्रेस को अपना समर्थन राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी के सामने एक बार फिर दोहराया। इन निर्दलियों में ज्यादातर कांग्रेस के बाग़ी नेता ही हैं, जो टिकट काटे जाने पर निर्दलीय लड़े और अपने दम पर चुनाव जीत कर विधायक बने। इस तरह इनका फायदा कांग्रेस के साथ पूर्ववत है। कुल मिला कर इन नेताओं को अपने पाले में खींच लेने के बाद कांग्रेस किसी बड़े फायदे में नज़र नहीं आती, इसके बावजूद यह भी सही है कि प्रत्येक राजनेता का अपना जन-आधार और आभामंडल होता है। उसके पाला बदलते ही उसके साथ प्रशंसकों और कार्यकर्ताओं का एक बड़ा निष्ठावान समूह भी नई हवा में सांस लेना पसंद करने लगता है। यही समर्थक समूह नई पार्टी को लाभ पहुंचाता है।
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