कर्नाटकः हिजाब पहनकर क्लास में जाना राजनीतिक विवाद है या क़ानूनी
उडुपी के एक सरकारी स्कूल की कुछ मुसलमान छात्राओं ने हिजाब उतारने से इनकार कर दिया है. इसे लेकर कई दिनों से विवाद है. आइए पूरा मामला और इससे जुड़े पहलुओं को समझते हैं.
कर्नाटक के तटीय ज़िले उडुपी के एक प्री-यूनिवर्सिटी गवर्नमेंट कॉलेज की लगभग आधा दर्जन छात्राएं पिछले कुछ दिनों से मीडिया और सोशल मीडिया में चर्चा में हैं. इन छात्राओं ने हिजाब उतारने से इनकार कर दिया है.
दूसरे वर्ष की इन छात्राओं ने हिजाब उतारकर क्लास में बैठने की अपीलों को ख़ारिज कर दिया है. सेकेंड्री स्कूल में 12वीं क्लास के स्तर की इन छात्राओं से ज़िले के अधिकारियों के समूह ने हिजाब उतारकर क्लास में हिस्सा लेने का आग्रह किया था. ज़िले के असिस्टेंट कमिश्नर ने छात्राओं से कहा था कि वो सिर्फ़ क्लास में हिस्सा लेने के लिए हिजाब उतारें और कैंपस में हिजाब पहने रहें.
एक छात्रा ने पत्रकारों से बात करते हुए कहा, "प्रिंसिपल ने जो कहा था उस पर उन्होंने लंबी सुनवाई की. हमें सिर्फ़ उन सवालों के जवाब देने थे जो असिस्टेंट कमिश्नर ने पूछे. उन्होंने हमारे नज़रिए को शामिल नहीं किया."
इस प्रदर्शन में शामिल छह में से पांच छात्राएं स्कूल में हाथों में पोस्टर लिए खड़ी थीं जिन पर लिखा था कि हिजाब पहनना उनका अधिकार है.
वहीं स्कूल प्रशासन का तर्क है कि ये कॉलेज सिर्फ़ महिलाओं के लिए है और छात्राओं को हिजाब पहनने कि ज़रूरत नहीं है. वो भी तब जब उन्हें पढ़ाया जा रहा हो.
प्रदर्शन में शामिल विज्ञान की छात्रा एएच अल्मास ने बीबीसी हिंदी से बात करते हुए कहा, "हमें पांच-छह पुरुष लेक्चरर भी पढ़ाने आते हैं. हमें मर्दों के सामने सिर ढंकना होता है, इसलिए ही हम हिजाब पहनती हैं."
कर्नाटक के तटीय इलाक़ों में पिछले कुछ सालों में हिजाब पहनना एक विवादित मुद्दा बन रहा है. इस क्षेत्र को हिंदुत्व की प्रयोगशाला की तरह भी देखा जा रहा है.
पिछले कुछ दिनों में तटीय कर्नाटक के कम से कम दो कॉलेजों में हिजाब पहनने को लेकर प्रदर्शन हुए हैं. एक चिकमगलूर ज़िले के कोप्पा में और दूसरे मंगलुरु में.
चिकमगलूर कॉलेज ने अभिभावकों के साथ बैठक में विवाद का समाधान कर लिया है. कॉलेज परिसर में पारंपरिक हिजाब और लड़कों के भगवा शॉल पहनने पर रोक लगा दी गई है. कॉलेज ने लड़कियों से कहा है कि वो सिर पर पहने कपड़े में पिन ना लगाएं.
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क्या ये इस विवाद का संभावित समाधान है?
इससे पहले केरल हाई कोर्ट ने अपने फ़ैसले में स्कूल प्रबंधन के छात्रों की यूनीफॉर्म तय करने के अधिकार को बरकरार रखा था. इस मामले में स्कूल प्रबंधन ने एक छात्रा के 'नक़ाब' पहनने पर रोक लगा दी थी.
हालांकि सुप्रीम कोर्ट में संवैधानिक, नागरिक और आपराधिक क़ानूनों की प्रैक्टिस करने वाले अधिवक्ता कलीश्वरण राज अलग ही तर्क देते हैं.
उडुपी कॉलेज का विवाद
कॉलेज के प्रिंसिपल रुद्र गौड़ा ने बीबीसी से बात करते हुए कहा, "हमारे कॉलेज में क़रीब एक हज़ार छात्राएं हैं, इनमें से 75 मुसलमान हैं. अधिकतर मुसलमान छात्राओं को हमारे नियमों से कोई दिक़्क़त नहीं है. सिर्फ़ ये छह छात्राएं ही विरोध कर रही हैं."
वो कहते हैं, "हमने इन छात्राओं को हिजाब या बुर्क़ा पहनकर कॉलेज कैंपस में घूमने की अनुमति दी है. हम सिर्फ़ ये कह रहे हैं कि जब क्लास शुरू हो या लेक्चरर क्लास में आएं तो वो हिजाब उतार दें. असिस्टेंट कमिश्नर के साथ बैठक में भी हमने यही बिंदू रखा है."
गौड़ा कहते हैं कि किसी भी तरह के भेदभाव की संभावना को ख़त्म करने के लिए कॉलेज में एक यूनीफ़ॉर्म निर्धारित है.
वो कहते हैं, "अमीर छात्र निजी कॉलेजों में चले जाते हैं. बाकी हमारे कॉलेज में आते हैं. इनमें अधिकतर उन लोगों के बच्चे हैं जो उत्तर कर्नाटक के ज़िलों से यहां आए हैं."
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गौड़ा कहते है, "दो सप्ताह पहले क़रीब एक दर्जन छात्राएं हमारे पास आईं थीं और क्लास के भीतर हिजाब पहनने पर ज़ोर दिया था. हम ये नहीं समझ पाए कि ये विवाद क्यों खड़ा हो रहा है. हमने छात्राओं के अभिभावकों से बात की. किसी भी अभिभावक ने कॉलेज के पक्ष का विरोध नहीं किया. विरोध करने वाली छात्राओं की संख्या चार रह गई है."
"हमने उनसे कहा कि आप अब इस मुद्दे को क्यों उठा रहींहैं, वो भी अंतिम परीक्षा से दो महीने पहले. हमने उनके अभिभावकों के साथ एक बैठक बुलाई. फिर एक वकील आए जो अपने आप को पॉपुलस फ़्रंट ऑफ़ इंडिया का प्रतिनिधि बता रहे थे उन्होंने हमसे क़ानूनी भाषा में बात की. समस्या 31 दिसंबर से शुरू हुई है."
कॉलेज में 9 से 23 दिसंबर के बीच मिड-टर्म परीक्षाएं थीं.
गौड़ा कहते हैं, "इन छात्राओं में कुछ ऐसी भी हैं जो अनुशासनहीन रही हैं. हमारे कॉलेज का गेट सुबह 9 बजकर 15 मिनट पर बंद हो जाता है और फिर शाम को 4 बजे खुलता है. इनमें से कुछ छात्राएं 11 बजे कॉलेज आती हैं और फिर फ़ोटो लेती हैं जो सोशल मीडिया पर वायरल हो जाती हैं. "
छात्रा अल्मास और कैंपस फ़्रंट ऑफ़ इंडिया (सीएफ़आई) के प्रतिनिधि गौड़ा के नज़रिए के विरोध में अपने तर्क देते हैं.
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क्या है छात्राओं और सीएफ़आई का नज़रिया?
अल्मास कहती हैं, "प्रथम वर्ष में हिजाब की अनुमति नहीं थी. जब हम कॉलेज आईं तो हमने देखा कि हमारी सीनियर छात्राएं हिजाब पहनती थीं. हमें लगा कि हमारे साथ अन्याय हो रहा है. फिर हम हिजाब पहनकर स्कूल आईं. लेकिन स्कूल ने तर्क दिया कि हमारे अभिभावकों ने दाख़िले के वक़्त एक समझौता पत्र पर हस्ताक्षर किए हैं. पिछले साल जब कॉलेज खुले तो दो दिन बाद ही कोविड की वजह से ऑनलाइन क्लास होने लगी."
वो कहती हैं, "फिर जब ऑफ़लाइन कक्षाएं शुरू हुईं और हमने ये मुद्दा उठाया तो स्कूल प्रबंधन ने अलग-अलग बहाने बनाए और कहा कि मिड-टर्म परीक्षाएं समाप्त होने दीजिए. जब हम हिजाब पहनकर 29 दिसंबर को आए तो हमें क्लास में बैठने नहीं दिया गया. छुट्टियों को दौरान हमने भी ये महसूस किया कि जो समझौता हमारे अभिभावकों ने प्रबंधन के साथ किया है उसके तहत स्कूल यूनिफ़ॉर्म पहनना अनिवार्य है. हिजाब को लेकर कोई शर्त नहीं है."
अल्मास कहती हैं, "हमें हिजाब पहनकर क्लास में नहीं बैठने दिया जा रहा है. लेकिन फिर भी हम कॉलेज जा रही हैं ताकि वो बाद में ये ना कहें कि हमारी उपस्थिति नहीं है."
अल्मास कहती हैं कि वो सब रोज़ाना समय पर कॉलेज जाती हैं और ऐसा नहीं है कि वो अनुशासनहीन हैं या नियमित नहीं हैं.
वो कहते हैं, "सीढ़ियों पर बैठे हुए हमारी जो तस्वीर है (जो अब वायरल हो गई है) वो इसलिए खींची गई है क्योंकि एक आर्टिकल में लिखा गया था कि डिप्टी कमिश्नर ने हमें बिना हिजाब पहने क्लास में बैठने की इजाज़त दी है. हमने अपने परिजनों के मोबाइल से वो तस्वीर ली ताकि हम बता सकें कि हम क्लास में नहीं बैठे हैं और वो आर्टिकल फ़र्ज़ी है."
अल्मास कहती हैं कि जिस दिन सीढ़ियों पर बैठे वो तस्वीर ली गई उस दिन वो कॉलेज देर से पहुंची थीं क्योंकि उनका समूह डिप्टी कमिश्नर से मिलने गया था.
"उस दिन उन्होंने हममें से सिर्फ़ चार को अंदर जाने दिया था और हमें माफ़ीनामे पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया गया था. वो चाहते हैं कि हम ये कहें कि सीढ़ियों पर बैठे जो हमारी तस्वीर है वो भी फ़र्ज़ी है. बीतों दिनों उन्होंने हम पर पत्रों पर दस्तखत करने के लिए दबाव बनाया. हमारे साथ मौजूद लड़कियों को धमकियां दी गई हैं."
अल्मास बताती हैं कि वो कैंपस फ़्रंट ऑफ़ इंडिया (सीएफ़आई) की सदस्य नहीं है लेकिन जब कॉलेज प्रबंधन और उनके अभिभावकों के बीच बातचीत से कुछ नहीं निकला तो उन्होंने सीएफ़आई से संपर्क किया.
सीएफ़आई के मसूद मन्ना कहते हैं, "27 दिसंबर को जब छात्राओं से कहा गया कि अगर वो हिजाब पहनकर आएँगी तो उन्हें क्लास में नहीं बैठने दिया जाएगा तब उन्होंने हमसे संपर्क किया. हमने अधिकारियों से संपर्क किया जिनमें अतिरिक्ट डिप्टी कमिश्नर भी शामिल हैं. हमने शिक्षा विभाग के अधिकारियों से भी बात की लेकिन कुछ नहीं बदला."
मसूद कहते हैं, "किसी किताब या दस्तावेज़ में ये नियम नहीं है कि हिजाब पहनने पर कोई रोक है. उन्होंने लिखित में भी ये देने से इनकार कर दिया है कि हिजाब पर प्रतिबंध है. उन्होंने हमसे कहा कि यदि हिजाब पहनने दिया जाएगा तो फिर भगवा शॉल पहनने की भी मांग उठेगी (जैसा कि चिकमगलूर में हुआ है)."
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प्राइमरी एंड सेकेंड्री एजुकेशन मंत्री बीसी नागेश ने बीबीसी से कहा, "मैंने पूरे विवाद पर एक रिपोर्ट तलब की है. यहां राजनीति हो रही है. अगले साल चुनाव होने हैं और इसलिए ही ये सब हो रहा है."
मंत्री का इशारा सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ़ इंडिया की तरफ था जो तटीय कर्नाटक में मज़ूबत होने के प्रयास कर रही है. ये पीएफ़आई की ही राजनीतिक शाखा है.
अन्य विकल्प क्या हैं?
सवाल उठता है कि इस विवाद का हल निकालने के लिए क्या विकल्प मौजूद हैं?
क़ानूनी तौर पर बात करें तो जस्टिस ए मोहम्मद मुस्ताक़ ने अपने एक फ़ैसले में निर्धारित किया था कि छात्राओं का अपनी मर्ज़ी के अनसार ड्रेस पहनना ऐसे ही मूल अधिकार है जैसे कि किसी स्कूल का ये तय करना कि सभी छात्र उसकी तय की हुई यूनीफ़ॉर्म पहनें.
2018 में ये फ़ैसला तो छात्राओं के अदालत की शरण लेने के बाद आया था. क्राइस्ट नगर सीनियर सेकेंड्री स्कूल की छात्राएं नक़ाब पर रोक के स्कूली प्रबंधन के फ़ैसले के ख़िलाफ़ अदालत चली गई थीं. फ़ातिमा तसनीम और हफ़ज़ा परवीन ने अदालत से कहा था कि उन्हें पूरी बांह की शर्ट और नक़ाब पहनकर स्कूल नहीं आने दिया जा रहा है. स्कूल ने इन आरोपों को यह कहते हुए ख़ारिज किया था कि यह स्कूल के ड्रेस कोड के ख़िलाफ़ है.
जस्टिस मुस्ताक़ ने निर्णय दिया था, "इस मामले में प्रभावी हित संस्थान के प्रबंधन का है. यदि प्रबंधन को संस्थान के संचालन और प्रबंधन में पूरी छूट नहीं दी गई तो इससे उनके मौलिक अधिकार का हनन होगा. संवैधानिक अधिकार का उद्देश्य दूसरों के अधिकारों का हनन करके एक अधिकार की रक्षा करना नहीं है. संविधान, वास्तव में, बिना किसी संघर्ष या प्राथमिकता के अपनी योजना के भीतर उन बहुल हितों को आत्मसात करने का इरादा रखता है. हालांकि जब हितों की प्राथमिकता हो तो व्यक्तिगत हितों के ऊपर व्यापक हितों का ध्यान रखा जाना चाहिए. यही स्वाधीनता का सार है."
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जस्टिस मुस्ताक़ ने कहा था, "प्रतिस्पर्धी अधिकारों में संघर्ष का समाधान किसी व्यक्तिगत अधिकार का हनन करके नहीं बल्कि व्यापक अधिकार को बरक़रार रखके, संस्थान और छात्रों के बीच इस संबंध को बनाए रखकर किया जा सकता है."
हाई कोर्ट के इस निर्णय को सौ से अधिक शिक्षण संस्थान चलाने वाली संस्था मुस्लिम एजुकेशन सोसायटी (एमईएस) ने तुरंत लागू किया था. सोसायटी ने अपने प्रॉस्पेक्ट में नक़ाब पर प्रतिबंध लगा दिया था.
जब एमईएस के चेयरमैन डॉक्टर फ़ज़ल गफ़ूर से पूछा गया कि क्या वो हिजाब का भी विरोध करेंगे तो उन्होंने बीबीसी से कहा, "हिजाब सिर्फ़ पोशाक है और कुछ नहीं. ये एक फ़ैशन स्टेटमेंट है."
हालांकि सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता कालीश्वरण राज का नज़रिया केरल हाई कोर्ट के निर्णय से अलग है. वो कहते हैं, "इस निर्णय में छात्रों के अधिकार और संस्थान के अधिकार को प्रतिस्पर्धी अधिकारों के रूप में देखा गया है. प्रतिस्पर्धी अधिकारों का आधार ही अपने आप में सही नहीं है. या तो आपके पास कोई अधिकार है या नहीं है. संविधान का अनुच्छेत 25 इसकी ही रक्षा करता है."
क्या छात्रा हिजाब पहनकर कक्षा में बैठ सकती है?
राज कहते हैं, "यदि कोई शिक्षक किसी छात्र के चेहरे के भाव को देखकर ये जानना चाहता है कि उसकी बात समझ में आई है या नहीं तो इस तर्क को माना जा सकता है. लेकिन अगर छात्रा ये तर्क देती है कि सिर्फ़ सिर ढंका है और चेहरा नहीं तो ये फिर परिस्थिति पर निर्भर करता है. यदि छात्रा ये कहती है (जैसा अल्मास तर्क दे रही है) कि मैं सिर्फ़ सिर ढंक रही हूं और चेहरा दिख रहा है तो प्रबंधन हिजाब न पहनने पर ज़ोर नहीं दे सकता है."
राज कहते हैं, "लेकिन, संस्थान इस बात पर ज़ोर नहीं दे सकता है कि वो यूनीफ़ॉर्म बनाए रखने के लिए सिर के बाल भी नहीं ढंकने देगा. संविधान इसकी अनुमति नहीं देता है. संविधान विविधता की रक्षा करता है."
तो क्या ये ऐसा विवाद है जिस पर अदालत में ही बहस हो सकती है? राज कहते हैं, "संभवतः ऐसा ही है"
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