कांशीराम जिसे मानते थे सबसे बड़ी बुराई मायावती ने बसपा को उसी 'भाई-भतीजावाद' में धकेला
नई दिल्ली। राजनीति में परिवारवाद और भाई-भतीजावाद की आलोचना हमेशा से होती रही है, लेकिन शायद ही कोई पार्टी हो जिसमें इसको बढ़ावा देने की प्रवृत्ति न दिखाई देती हो। कुछ अपवादों में एक बसपा रही है जिसके संस्थापक कांशीराम ने शुरू से ही न केवल इस बुराई का त्याग कर रखा था बल्कि जीवन पर्यन्त इसका निर्वाह भी किया। कांशीराम हमेशा कहते थे कि उनकी राजनीति में परिवार और भाई-भतीजावाद में कोई जगह नहीं होगी। लोग इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि राजनीति में आने के साथ ही उन्होंने परिवार से किनारा कर लिया था और पूरी तरह सामाजिक कार्यों में लग गए थे। धीरे-धीरे वह अपने रिश्तेदारों से भी दूरी बनाते गए। इस बारे में कई बार उनसे पूछा भी गया कि जब पूरी राजनीति में परिवारवाद हावी है, तब वह इस सबसे दूरी बनाकर क्यों चल रहे हैं। उनका बहुत साफ जवाब होता था कि अब हमारा परिवार और नाते-रिश्तेदार पूरा देश और देश की आम जनता है। जो कुछ भी करना होगा देश और जनता के लिए ही करूंगा।
मायावती ने कांशीराम की राजनीति को दी पूरी तरह तिलांजलि
इसे दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा कि उनकी उत्तराधिकारी मायावती ने कांशीराम की इस राजनीति को पूरी तरह तिलांजलि दे दी और परिवारवाद और भाई-भतीजावाद को बढ़ावा देने में लग गई हैं। हालांकि अब से करीब दो साल पहले तक मायावती भी कहती थीं कि उनकी राजनीति में परिवारवाद के लिए कोई जगह नहीं है। सब कुछ पार्टी कार्यकर्ताओं का है और उन्हीं के लिए होगा। वह राजनीति में परिवारवाद के लिए अन्य पार्टियों की तीखी आलोचना भी करती रही हैं। लेकिन करीब दो साल पहले से ही उन्होंने ऐसे संकेत देने शुरू कर दिए थे जिससे यह लगने लगा था कि निकट भविष्य में बसपा में भी परिवारवाद को जगह मिल जाएगी। करीब एक साल पहले उन्होंने सबसे पहले अपने भाई आनंद कुमार को पार्टी में बड़ी जिम्मेदारी दी थी। तब उनकी इसके लिए आलोचना भी की गई थी कि वह अपने घोषित सिद्धांतों से भटक रही हैं और जिस बात के लिए अन्य दलों की आलोचना करती रही हैं वह अब खुद करने लगी हैं। लेकिन इसका उन पर बहुत असर नहीं हुआ क्योंकि वह अपने तरह की राजनीति के लिए जानी जाती रही हैं। वह वही करती हैं जो उन्हें अच्छा लगता है। इसमें किसी की दखलंदाजी वह कभी बर्दाश्त नहीं कर पाती थीं।
मायावती ने भाई आनंद कुमार और भतीजे आकाश कुमार को दी बड़ी जिम्मेदारी
जब आनंद कुमार को मायावती ने पार्टी में बड़ी जिम्मेदारी दी थीं, तब माना जाता था कि वह भ्रष्टाचार के आरोपों को लेकर संकट में फंसती जा रही हैं। तब यह भी कहा जाता था कि इसी के चलते वह कोई एक ऐसा विश्वस्त चाहती हैं जिस पर भरोसा कर सकें और जो किसी संकट के समय पार्टी को भी संभाल सके। इसी बीच पता चला कि आलोचनाओं के साथ-साथ खुद आनंद पर तमाम तरह के आरोप लगने लगे और छिटपुट कार्रवाइयां भी शुरू हो गईं। इस सबके मद्देनजर अथवा कुछ अज्ञात कारणों से मायावती ने आनंद को पार्टी की जिम्मेदारियों से मुक्त कर दिया। यद्यपि बाद में यह कहा गया कि उन्होंने स्वेच्छा से खुद को अलग किया है। लेकिन इस सबके साथ ही यह साफ लगने लगा था कि अब मायावती कांशीराम की परिवारवाद के खिलाफ मुहिम से खुद को अलग रखने लगी हैं। तभी से यह भी माना जाने लगा था कि आने वाले समय में किसी को आश्चर्य नहीं होगा अगर वे अपने परिजनों को राजनीति में स्थापित करने लग जाएं।
कांशीराम की परिवारवाद के खिलाफ मुहिम से मायावती ने खुद को अलग किया
इसकी मिसाल जल्द ही बीते लोकसभा चुनाव के दौरान देखने को मिली जब मायावती ने अपने भतीजे और आनंद कुमार के बेटे आकाश को स्टार कंपेनर बनाकर पेश कर दिया। इसकी अटकलें इससे बहुत पहले से लगाई जाने लगी थीं कि मायावती आकाश को अपना उत्तराधिकारी बनाने जा रही हैं। लोकसभा चुनाव के दौरान आकाश ने न केवल पूरे चुनाव प्रचार अभियान को संभाला बल्कि मायावती का ट्विटर हैंडल भी संभाला। इससे पहले मायावती सोशल मीडिया पर उस तरह सक्रिय नहीं थीं जिस तरह तमाम अन्य पार्टियां और नेता सक्रिय थे। इस चुनाव में उन्हें यह जरूरत महसूस हुई और आकाश के प्रयासों को उन्होंने काफी तवज्जो भी प्रदान की। वह मानती हैं कि आकाश की वजह से पार्टी को सोशल मीडिया के माध्यम से काफी लाभ पहुंचा है। अब जब मायावती ने आकाश को नेशनल कोऑर्डिनेटर नियुक्त कर दिया है, तो एक तरह से स्पष्ट हो गया है कि वह बसपा सुप्रीमो के बाद पार्टी में सर्वेसर्वा के तौर पर जाने जाएंगे। इसी तरह आनंद कुमार को पार्टी का उपाध्यक्ष बनाया है। मतलब पूरी पार्टी परिवार के इर्द-गिर्द रहेगी और उसमें कार्यकर्ताओं के लिए कोई जगह नहीं होगी। उनका काम केवल नारे लगाना और वोट देना भर रह जाएगा।
भारतीय राजनीति में परिवारवाद कोई नई बात नहीं
हालांकि भारतीय राजनीति में यह कोई नई बात नहीं है। शायद ही कोई पार्टी इससे बची हो। कांग्रेस पार्टी शुरू से ही परिवारवाद का शिकार रही है जिसके लिए उसकी लगातार आलोचना भी होती रही है। उस पार्टी में यह अभी भी हावी है। देश की दूसरी बड़ी पार्टी भाजपा पर भी इस तरह के आरोप लगते रहे हैं। हालांकि उसमें पार्टी अध्यक्ष और प्रधानमंत्री परिवार का नहीं हुआ है। लेकिन राज्यों और राष्ट्रीय स्तर पर ऐसे अनेक उदाहरण वहां भी मौजूद हैं जिससे यह पता चलता है कि वह भी इस समस्या से बची नहीं है। मेनका गांधी-वरुण गांधी, वसुंधरा राजे- दुष्यंत राजे, रमन सिंह-अभिषेक सिंह से लेकर कितने ही उदाहरण मिल जाएंगे। उत्तर प्रदेश की ही सपा में मुलायम सिंह यादव-अखिलेश यादव, बिहार में आरजेडी में लालू यादव-तेजस्वी यादव, तमिलनाडु में डीएमके में करुणानिधि-स्टालिन, महाराष्ट्र में एनसीपी में शरद पवार-सुप्रिया सुले, ओडिशा में बीजेडी में बीजू पटनाटक समेत कितने ही उदाहरण मिल जाएंगे। इस किसी तरह की प्रभावी रोक की बात तो दूर लगातार इसके बढ़ावा ही दिया जाता रहा है। शायद मतदाताओं को भी इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि पार्टियां परिवारवाद को बढ़ावा देने लगी हैं। अगर ऐसा न होता तो कम से कम मतदाताओं की ओर से इसे मुद्दा बनाया जाता। पार्टी कार्यकर्ताओं की ओर से भी इस पर कभी सशक्त विरोध नहीं जताया गया।
कांशीराम ने कहा था- राजनीति में परिवार और भाई-भतीजावाद की कोई जगह नहीं होगी
लेकिन जब यह बसपा में होता है, तो इस कारण जरूर विचारणीय हो जाता है कि बसपा की आज कर्ताधर्ता भले ही मायावती हों, लेकिन यह कांशीराम की पार्टी रही है जिन्होंने राजनीति की शुरुआत से ही परिवारवाद और भाई-भतीजावाद से खुद को और पार्टी को दूर रखा था। वे इसे राजनीतिक बुराई मानते थे और उनकी पूरी कोशिश रही कि उनकी पार्टी इससे दूर रहे। संभवतः इसीलिए उन्होंने बसपा में अपने परिवार से किसी को आगे नहीं बढ़ाया बल्कि परिवार से बाहर मायावती को जिम्मेदारियां दीं। मायावती की राजनीतिक शिक्षा-दीक्षा भी ऐसी नहीं थी जिससे यह लगता कि वह भविष्य में बसपा में कांशीराम की सोच और नीतियों के विपरीत इस राजनीतिक समस्या को अपने साथ ले आएंगी। लेकिन अब वह ऐसा करने में लग गई हैं और इस तरह वह भी खुद को और अपनी पार्टी को अन्य पार्टियों की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया है। इसका कितना लाभ मायावती और बसपा को मिल सकेगा यह आने वाला समय बताएगा, लेकिन वह इस कारण आलोचना के केंद्र में तो आ ही गई हैं।