K Chandrashekar Rao: तेलंगाना से 'भारत' की राजनीति, TRS चीफ और उनका धाकड़ किस्मत कनेक्शन
तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव अब अपना प्रोफाइल बदलने के लिए 'भारत' मिशन पर निकल चुके हैं। टीआरएस नेता केसीआर को तेलंगाना के इतिहास और भूगोल बदलने में उनकी किस्मत ने हर पल बहुत सहायता की है। कल्वाकुंतला चंद्रशेखर राव ने जब 'तेलंगाना राष्ट्र समिति' का नाम 'भारत राष्ट्र समिति' करने का फैसला किया तो उनका यह दृढ़ विश्वास उनके साथ है कि किस्मत का यह कनेक्शन उनके राष्ट्रीय अभियान में भी उनका उसी तरह से साथ देगा, जैसा पिछले दो दशकों से भी ज्यादा वक्त से दे रहा है। केसीआर ने कहां से राजनीतिक सफर शुरू किया और केंद्र की राजनीति जो वह कर रहे हैं, उसके पीछे उनका ठोस आधार क्या है, हम इस आर्टिकल में हर विषय का विश्लेषण करने की कोशिश कर रहे हैं।
केसीआर का भारत मिशन
टीआरएस या अब बीआरएस नेता केसीआर ने ऐसे समय में भारत अभियान शुरू किया है, जब बीजेपी तेलंगाना में उनकी जड़ें खोदने पर लग चुकी है। भारतीय जनता पार्टी यह मानकर चल रही है कि कांग्रेस की कमजोरियों की वजह से तेलंगाना में जो खालीपन आ चुका है, उसे भरने के लिए उसके पास इससे बेहतर मौका नहीं है। लेकिन, केसीआर को तेलंगाना के इतिहास पर यकीन है, जिसके दम पर उन्हें लगभग डेढ़ दशकों के संघर्ष के दम पर प्रदेश का भूगोल बदलने में मदद मिली थी। जब 2001 में उन्होंने तत्कालीन आंध्र प्रदेश से अलग तेलंगाना राज्य के गठन के लिए तेलंगाना राष्ट्र समिति का गठन किया था, तब तेलुगू देशम पार्टी (टीडीपी) और उसके नेता चंद्रबाबू नायडू बहुत ही शक्तिशाली थे। जबकि, वाईएस राजशेखर रेड्डी का सितारा इतना बुलंद था कि कुछ ही सालों बाद 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार को केंद्र की सत्ता से बेदखल करने में कांग्रेस को आंध्र प्रदेश ने बहुत ज्यादा मदद की थी।
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भारत राष्ट्र समिति बनाने के पीछे गंभीर राजनीतिक सोच
महज 13 सालों बाद यानि 2014 में केसीआर अपने मिशन में सफल हुए। उनके आंदोलनों की वजह से तत्कालीन यूपीए सरकार अलग तेलंगाना राज्य बनाने को मजबूर हुई, फिर भी संयुक्त आंध्र प्रदेश के तेलंगाना वाले हिस्से से कांग्रेस और टीडीपी पूरी तरह से साफ हो गई। के चंद्रशेखर राव ने अब कहा है कि उनकी नई नवेली भारत राष्ट्र समिति तेलंगाना गठन के 10 साल बाद 2024 के लोकसभा चुनावों में देश के कई प्रदेशों में अपने उम्मीदवारों को उतारेगी। अपने दम पर पहले एक निश्चित उद्देश्य से क्षेत्रीय पार्टी बनाकर और उस संकल्प को पूरा करने के बाद राष्ट्रीय राजनीति में बड़े लक्ष्य के साथ उतरने का केसीआर का फैसला साहसिक है तो इसके पीछे उनके अबतक का संघर्ष और उसमें आमतौर पर लगातार मिलती गई सफलता का बहुत बड़ा रोल भी है। इसीलिए टीआरएस से बीआरएस बनाने के मंसूबे को गंभीरता से नहीं लेने का कोई कारण नहीं हो सकता।
के चंद्रशेखर राव की राजनीतिक शुरुआत
संयुक्त आंध्र प्रदेश के मेडक जिले के चिंतामादका गांव में जन्मे के चंद्रशेखर राव ने हैदराबाद के उस्मानिया यूनिवर्सिटी से तेलुगू भाषा में मास्टर्स किया है। इनकी राजनीति का लंबा हिस्सा भले ही कांग्रेस-विरोधी रहा हो, लेकिन सियासी करियर की शुरुआत इन्होंने 1970 के दशक में युवा कांग्रेस के साथ ही की थी। संयुक्त आंध्र प्रदेश के आज के कई दिग्गज नेताओं की तरह ही ये भी तेलुगू के सुपर स्टार एनटी रमा राव के बहुत बड़े समर्थक हुआ करते थे। यही वजह है कि जब 1983 में एनटीआर ने टीडीपी बनाई तो उन्होंने भी एनटीआर का साथ दिया और एन चंद्रबाबू नायडू से भी पहले टीडीपी में अपनी पकड़ मजबूत कर ली। टीडीपी में इनका कद बहुत बढ़ा और ये एनटीआर के साथ-साथ चंद्रबाबू की सरकारों में भी मंत्री रहे।
केसीआर जमीनी हालात के पारखी नेता
केसीआर के समर्थक और विरोधी दोनों मानते हैं कि जमीनी माहौल को पकड़ने में वह मास्टर आदमी हैं और यही बात उनकी किस्मत को लेकर भी प्रचलित है। चंद्रबाबू सरकार पर आरोप लगाया गया कि उनके कार्यकाल में सिर्फ आंध्र इलाके पर फोकस रहता है, तेलंगाना उपेक्षा का शिकार हो रहा है। माहौल के पारखी केसीआर ने इसी स्थिति को भांपा और 27 अप्रैल, 2001 को सिर्फ इसी उद्देश्य से टीडीपी छोड़ी और तेलंगाना राष्ट्र समिति बना ली। केसीआर ने अपने जीवन में 1983 में अपना पहला ही चुनाव सिद्दीपेट सीट से हारा था, लेकिन उसके बाद उनके साथ ऐसी स्थिति कभी नहीं आई। 2004 में वे करीमनगर लोकसभा सीट से तेलंगाना मुद्दे पर चुनाव जीते और उसी के नाम पर यूपीए सरकार को समर्थन दिया और मनमोहन सरकार में मंत्री बन गए। कहते हैं कि श्रम और रोजगार जैसा मंत्रालय उन्हें बहुत नहीं भा रहा था, इस दौरान उनकी ओर से आए दिन अलग तेलंगाना की मांग यूपीए सरकार के लिए गले की हड्डी बनने लगा था।
केसीआर माने जाते हैं किस्मत के धुरंधर
तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव ने मुश्किल से दो साल किसी तरह से यूपीए सरकार में काटे और फिर एक दिन मनमोहन सिंह सरकार से समर्थन वापस लेकर अलग तेलंगाना के मसले पर आर-पार की लड़ाई शुरू कर दी। 2009 के चुनावों में उनके मंसूबे पर पानी जरूर फिर गया, लेकिन किस्मत उनके लिए जल्दी ही पलटने के लिए तैयार बैठी थी। आंध्र प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री वाईएस राजशेखर रेड्डी की हेलीकॉप्टर दुर्घटना में दुखद मौत ने तेलंगाना की राजनीति को पूरी तरह से केसीआर के समर्थन में पलटने का मौका बना दिया। वाईएसआर का कद बहुत बड़ा हो चुका था और कहा जाता है कि उनके चलते कांग्रेस हाई कमान की अपनी सत्ता भी हिलती महसूस होती थी। वे आंध्र प्रदेश के विभाजन के बहुत बड़े विरोधी थे और केसीआर की राह से यह सबसे मजबूत दीवार अब गिर चुकी थी। ऊपर से कांग्रेस राज्य में अपनी पार्टी और सरकार को संभाल पाए ना तो उसमें इतनी सूझबूझ दिखाई पड़ी और ना ही वाईएसआर के बेटे जगन मोहन की बढ़ती लोकप्रियता को समझने के लिए पार्टी में कोई तैयार होना चाहता था। यही वजह है कि केसीआर के लिए तेलंगाना के मसले पर राह काफी आसान हो चुका था और बाकी की कमी उनकी आक्रामक रैलियों और आए दिन के बंद ने पूरा करना शुरू कर दिया।
तेलंगाना बनाने का रास्ता साफ करवाया
तेलंगाना के जन-जन में क्षेत्रीयता की घुट्टी केसीआर ने ऐसे पिलानी शुरू की, जिससे क्या छात्र और क्या सरकारी कर्मचारी, यहां तक कि किसान और महिलाएं भी गुलाबी होकर सड़कों पर आंदोलन करने लगे। केसीआर के एक इशारे पर सरकार कर्मचारी हफ्तों हड़ताल पर चले जाते, तो उस्मानिया यूनिवर्सिटी तो इस राजनीतिक लड़ाई में छात्र राजनीति का केंद्र ही बन चुकी थी और टीआरएस के सेंटर के रूप में काम करने लगी थी। 29 नवंबर, 2009 को के चंद्रशेखर राव ने आमरण अनशन शुरू कर दिया, जिससे आंदोलन ने हिंसक शक्ल अख्तियार कर लिया। सिर्फ 11 दिनों में ही सार्वजनिक तौर पर केसीआर की तबीयत बिगड़ने की नौबत सामने आई और केंद्र की मनमोहन सरकार को अलग तेलंगाना के मसले पर संसद में प्रस्ताव लाने की सहमति देनी पड़ी।
टीआरएस को तेलंगाना बनाने का जबर्दस्त राजनीतिक फायदा मिला
उस समय प्रदेश के राजनीतिक गलियारे में यह चर्चा आम हो चुकी थी कि सिर्फ आंध्र प्रदेश के विभाजन वाला बिल संसद से पास होने की देर है, टीआरएस कांग्रेस में विलय कर लेगी। लेकिन, आंध्र प्रदेश पुनर्गठन विधेयक, 2014 पर संसद की मुहर लगने के कुछ समय बाद ही केसीआर ने मीडिया से कह दिया कि कांग्रेस की जहाज तो डूब रही है, उसमें विलय का कोई सवाल ही नहीं उठता। विभाजन के बाद पहले ही चुनाव में तेलंगाना राष्ट्र समिति को आंदोलन का जबर्दस्त फायदा मिला। तेलंगाना की 119 विधानसभा सीटों में से 63 जीतकर उसने सरकार बना ली और लोकसभा की 17 में से भी 11 सीटों पर विजयी हो गई। कांग्रेस को असेंबली में सिर्फ 21 और लोकसभा में 2 सीटें मिलीं। बाद में 20 और विधायक टीआरएस में चले गए। 'दुविधा में दोनों गए, माया मिली ना राम'-कांग्रेस के लिए यही स्थिति सामने खड़ी थी। तेलंगाना बनाने का फायदा टीआरएस ले गई और आंध्र प्रदेश में मतदाताओं का गुस्सा ऐसा भड़का कि वहां भी साफ हो गई।
केसीआर शुरू में मोदी सरकार को परोक्ष समर्थन देते रहे
2018 में केसीआर ने समय से पहले विधानसभा चुनाव कराने का फैसला किया। तमाम आरोपों के बावजूद टीआरएस के नंबर और बढ़ गए। उनकी सरकार पर भ्रष्टाचार से लेकर परिवारवाद और तानाशाही तक के आरोप लगते रहे, लेकिन उनकी पकड़ तेलंगाना पर मजबूत ही होती चली गई। वैसे जबतक केसीआर को तेलंगाना में बीजेपी से कोई खतरा नहीं लगा उनके केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार से बहुत ही अच्छे ताल्लुकात रहे। टीआरएस ने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से नोटबंदी, जीएसटी और बाकी ऐसे मसलों पर केंद्र का साथ दिया, जिसमें विपक्ष पूरी तरह से एकजुट रहने की कोशिश कर रहा था। लेकिन, जब केंद्र सरकार ने राज्य से धान की अतिरिक्त पैदावार खरीदने से इनकार किया तो प्रदेश के किसानों के गुस्से को मोड़ने के लिए केसीआर, ममता बनर्जी की तरह मोदी सरकार के सबसे मुखर विरोधी बन गए।
राष्ट्रीय राजनीति में क्यों अहम हैं केसीआर
इससे पहले ही हैदराबाद नगर निकाय के चुनाव को भाजपा ने जिस तरह राष्ट्रीय चुनाव की तरह लड़ा और जमीन मजबूत की, उससे केसीआर के कान खड़े हो गए थे। उन्हें यह डर सताने लगा कि मुसलमानों की बड़ी आबादी और असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम से सहयोग लेने की वजह से भाजपा हिंदुओं के बीच अपना आधार मजबूत करने लगी है। इन बदले हुए राजनीतिक हालात में केसीआर ने टीआरएस का 'भारत' मिशन लॉन्च किया है। पार्टी का नाम बदलने से पहले वह विपक्ष के नेताओं को बीजेपी और मोदी सरकार खिलाफ एकजुट करने की कोशिश शुरू कर चुके है। उनका महत्वाकांक्षी मंसूबा बहुत बड़ा है, लेकिन उतना ही गंभीर भी।
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