विपक्ष की गोलबंदी से 2019 में कैसे निपटेंगे मोदी-शाह ?
ये साल 2014 की बात है. लोकसभा चुनाव की पूरी कहानी नरेंद्र मोदी ने अकेले पलट दी थी. भाजपा के कई नेताओं ने चुनाव प्रचार में ज़ोर लगाया था, लेकिन जो मोदी ने कर दिखाया, वो उनके अलावा उस वक़्त कोई नहीं कर सकता था.
सियासी नज़रिए से देश की राजनीति में सबसे अहम माने जाने वाले उत्तर प्रदेश में भी मोदी का जलवा दिखा. और साथ ही असर दिखा ध्रुवीकरण का.
ये साल 2014 की बात है. लोकसभा चुनाव की पूरी कहानी नरेंद्र मोदी ने अकेले पलट दी थी. भाजपा के कई नेताओं ने चुनाव प्रचार में ज़ोर लगाया था, लेकिन जो मोदी ने कर दिखाया, वो उनके अलावा उस वक़्त कोई नहीं कर सकता था.
सियासी नज़रिए से देश की राजनीति में सबसे अहम माने जाने वाले उत्तर प्रदेश में भी मोदी का जलवा दिखा. और साथ ही असर दिखा ध्रुवीकरण का.
समाजवादी पार्टी का मुसलमान-यादव वोटबैंक हो या फिर बहुजन समाज पार्टी का दलितों वाला दांव, हिंदू-मुसलमान की बाज़ी के आगे सब हार गए. नतीजा उत्तर प्रदेश की 80 में से 73 सीटें भाजपा के खाते में.
और ध्रुवीकरण में अहम भूमिका निभाई पश्चिमी उत्तर प्रदेश, ख़ास तौर से कैराना ने. साल 2013 में इस इलाके ने भीषण साम्प्रदायिक दंगे देखे थे. साल 2014 के लोकसभा चुनाव और साल 2017 के विधानसभा चुनाव में इसका असर भी दिखा.
लेकिन साल-डेढ़ साल बाद ही सियासत ने फिर करवट ली. एक-दूसरे को दुश्मन मानने वालों ने हाथ मिलाने शुरू किए और बड़े दुश्मन को हराकर दिखाया.
नतीजा ये हुआ कि भाजपा नेता हुकुम सिंह ने जिस कैराना को क़रीब ढाई लाख वोट से जीता था, वही कैराना भाजपा के सामने विरोधी दलों के एक होने पर बदल गया और हुकुम सिंह की बेटी मृगांका हार गई.
कैसे बदली पूरी तस्वीर?
सामने थीं राष्ट्रीय लोक दल की तबस्सुम हसन. लेकिन जीत की वजह अकेले अजित सिंह या उनकी पार्टी नहीं. जीत मिली क्योंकि आरएलडी के साथ सपा, बसपा, कांग्रेस खड़े थे.
कर्नाटक के बाद ये विपक्षी दलों की दोस्ती और उस दोस्ती की वजह से भाजपा के जीत से दूर रह जाने का ये दूसरा हालिया उदाहरण है.
और इन छोटी-छोटी जीतों ने बड़ी लड़ाई के लिए विपक्षी दलों को एकजुट होने की और भाजपा को चिंता की बड़ी वजह दे दी है. हर चुनावी नतीजे को 2019 के लोकसभा चुनावों से जोड़कर देखा जाने लगा है, ऐसे में आगे की क्या राह है.
https://twitter.com/yadavakhilesh/status/1002222768803450880
क्या विपक्षी दल अपनी दोस्ती कायम रखते हुए 2019 में भी भाजपा को इसी तरह चुनौती दे पाएंगे? अगर ऐसा होता है तो भाजपा के पास इसकी क्या काट होगी? दोनों में किसकी रणनीति भारी रहेगी?
वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक नीरजा चौधरी ने बीबीसी से कहा कि विपक्ष का गठबंधन, घर-घर वोटर तक पहुंचना और जातिगत समीकरण, तीनों चीज़ों ने मिलाकर भाजपा को हरा दिया.
उन्होंने कहा, ''विरोधी दलों को दिख रहा है कि ऐसा कर जीत तक पहुंचा जा सकता है, इसलिए वो और ज़्यादा एकजुट होंगे. और अभी समझ नहीं आ रहा की भाजपा क्या करेगी? क्योंकि कैराना प्रतिष्ठित सीट थी.''
कैराना का क्या बहाना?
''अकेले कैराना में गन्ना किसानों का 800 करोड़ का भुगतान बकाया था. ऐसे में सरकार का पहल न करना चौंकाता है, मानसिकता दिखाता है. पहले ऐसा नहीं होता था, कुछ ऐसा होने पर तुरंत मोदी-शाह की जोड़ी सक्रिय हो जाती थी. सरकार तेज़ी से कदम उठाती थी.''
''लेकिन कैराना में ऐसा नहीं दिखा. क्या इच्छाशक्ति नहीं है. क्योंकि इस वाली सीट पर काफ़ी कुछ दांव पर लगा था. बिहार, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और झारखंड...इन राज्यों में कुल मिलाकर 182 सीटें हैं, ऐसे में अगर विपक्ष एक हो जाएगा तो भाजपा के लिए बहुत दिक्कत हो जाएगी.''
अगर ऐसा होता है तो क्या भाजपा मंदिर कार्ड खेलेगी, विजय माल्या को वापस लाने की कोशिश होगी या फिर ध्रुवीकरण का दांव?
ऐसा लग रहा है कि पुराना नैरेटिव उबाऊ हो चला है, ऐसे में भाजपा को 2019 के लिए नया नैरेटिव तलाशना पड़ेगा. एक बात जो उसके पक्ष में है, वो ये कि विपक्ष के पास कोई चेहरा नहीं दिख रहा. और चुनाव से पहले होना भी मुश्किल है.
नीरजा ने कहा, ''भाजपा मोदी का व्यक्तित्व, उनका नेतृत्व भुनाने की कोशिश करेगी. दूसरी तरफ़ कोई चेहरा नहीं दिखता. और आम चुनावों में राष्ट्रीय चेहरा दिखाना होता है.''
ये भी सवाल उठ रहे हैं कि गरीबों को अपनी तरफ़ खींचने के लिए भाजपा क्या-क्या कर सकती है. कर्ज़ माफ़ी अपनी जगह है, लेकिन क्या जन-धन खातों में पैसा डाला जा सकता है, क्या न्यूनतम भत्तों को लेकर कोई कदम उठाया जाएगा?
कांग्रेस की मज़बूती भाजपा का फ़ायदा?
नीरजा ने कहा, ''मोदी सरकार और भाजपा को जो कुछ करना है, वो अगले चार महीने में करना होगा क्योंकि 2019 तेज़ी से करीब आ रहा है.''
लेकिन विपक्ष की दोस्ती तोड़ने के लिए भाजपा क्या-कुछ कर सकती है? या वाक़ई वो इस रणनीति पर अमल करेगी?
राजनीतिक विश्लेषक राशिद किदवई के मुताबिक भाजपा को जीतना है तो विपक्ष की एकजुटता में सेंधमारी करनी होगी. यूपीए सरकार में गज़ब का राजनीतिक प्रबंधन था.
- कैराना की ना का अर्थ मोदी-योगी के लिए बहुत बड़ा है
- 'मोदी सरकार की सारी योजनाएं सिर्फ़ प्रचार, ज़मीन पर कुछ नहीं'
उन्होंने कहा, ''कांग्रेस कमज़ोर रहेगी, तो विपक्ष की एकता बनी रहेगी. क्षत्रपों को लगता है कि जब तक कांग्रेस कमज़ोर रहेगी, उनका समर्थन करती रहेगी. मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में अगर भाजपा हारेगी तो कांग्रेस मज़बूत होगी.''
''और अगर ऐसा होता है तो आप देखेंगे कि मोदी विरोधी खेमे में दरारें पड़नी शुरू हो जाएंगी. ये जितने भी दल हैं, ये भाजपा को हराने में इसलिए नहीं लगे कि कांग्रेस को सत्ता में लाना चाहते हैं, बल्कि ये सभी कांग्रेस के दम पर ख़ुद सत्ता में पहुंचना चाहते हैं.''
सवाल ये है कि क्या बड़ी लड़ाई जीतने के लिए क्या भाजपा छोटी लड़ाई हारने को तैयार होगी और विपक्ष को कमज़ोर करने के लिए इन तीनों राज्यों में कांग्रेस को आगे निकलने का मौका देगी?
भाजपा के पास क्या मौका?
किदवई ने कहा, ''साल 2014 में मोदी के जीतने के कई कारण थे. लोगों का यूपीए से दिल खट्टा हो गया था. मोदी ने उम्मीद जगाई. भ्रष्टाचार पर हमला किया. इस बार ये सब मुश्किल होगा. क्योंकि आप विपक्ष में नहीं है, आपकी जवाबदेही बनती है.''
उन्होंने कहा कि साल 1971 में जब मोरारजी देसाई की अगुवाई में जनता पार्टी की सरकार बनी थी तो इंदिरा गांधी और संजय गांधी को जेल भेज दिया गया था. शाह कमीशन बना दिया गया था.
लेकिन इस बार ऐसा कुछ नहीं हुआ. किदवई ने कहा, ''अब धरपकड़ शुरू हुई पांचवें साल में तो राजनीतिक दल बदले की कार्रवाई का आरोप लगाएंगे. इनकम टैक्स के मामले में कुछ क्यों नहीं हुआ. ऐसे में भाजपा की मुश्किलें कम नहीं हैं.''
उन्होंने कहा, ''लेकिन ये भी सच है कि कांग्रेस ने साल 2014 से अब तक कोई चुनाव जीता ही नहीं है. कोई भी दल राहुल गांधी या कांग्रेस को पीएम पद नहीं देना चाहेगा...''
कुछ जानकारों का ये भी कहना है कि उप-चुनाव को 2019 से जोड़कर देखना सही नहीं है.
वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप सिंह ने कहा कि विपक्षी दलों के गठजोड़ का उत्तर प्रदेश से बाहर ऐसा कोई समीकरण नहीं बनता दिख रहा. मान लीजिए ऐसा होता है तो चंद्रबाबू नायडू बंगाल में जाकर क्या करेंगे या ममता आंध्र में क्या करेंगी?
इतना आसान नहीं होगा 2019?
उन्होंने कहा, ''उत्तर प्रदेश अकेला ऐसा है जहां सपा-बसपा के एकसाथ आने से अंकगणित और कैमिस्ट्री भी बदलती दिख रही है. और भाजपा के लिए ये चिंता का विषय है.''
लेकिन फिर भी उप-चुनाव अलग होते हैं और लोकसभा चुनाव अलग. एक सीट पर चुनाव लड़ना था तो पूरी ताक़त लगा दी गई. चौधरी अजित सिंह घर-घर गए, लेकिन जब 80 सीटों पर चुनाव होंगे तो ये संभव नहीं होगा.
उन्होंने कहा, ''सपा-बसपा-कांग्रेस-आरएलडी में से बसपा एकमात्र पार्टी है जो अपना वोट ट्रांसफ़र करा पाती है. क्या सपा अपना वोट बैंक, बसपा के खाते में करा पाएंगे, इसका इम्तहान अभी बाकी है.''
प्रदीप ने बताया कि साल 1971 में सोचते थे कि इंदिरा के ख़िलाफ़ एक उम्मीदवार खड़ा करेंगे तो विरोधी वोट मिल जाएंगे और वो हार जाएंगी, लेकिन ऐसा होता नहीं है.
''बसपा का वोटर बसपा को ही वोट देना पसंद करता है. यादव-दलित का एकसाथ आना इतना आसान नहीं है. साल 1993 में कांशीराम-मुलायम सिंह के बीच ये प्रयोग हो चुका है. लेकिन अब मायावती दलितों से घटकर जाटवों की नेता रह गई हैं और दलितों का बड़ा धड़ा बसपा से छिटक गया है.''
क्या दांव खेलेंगे शाह?
''लेकिन अब अखिलेश मुसलमान-यादवों के नेता हैं और अति पिछड़े भाजपा के साथ चले गए हैं. इस वोट बैंक पर निगाह रखते हुए योगी आदित्यनाथ ने 17 अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति में डालने के लिए प्रस्ताव भेजा है. इसके अलावा यूपी-केंद्र सरकार पिछड़ों के 27 फ़ीसदी आरक्षण के भीतर अति पिछड़ों के लिए कोटा देने की तैयारी कर रही है.''
कुछ राजनीतिक जानकार मान रहे हैं कि मोदी के ख़िलाफ़ ये गोलबंदी मोदी के लिए फ़ायदे का सौदा है. उन्होंने कहा, ''जैसे साल 1971 को इंदिरा गांधी को फ़ायदा हुआ था, वैसा ही मोदी को हो सकता है.''
लेकिन अगर भाजपा को बहुमत के लिए सीटें नहीं मिली तो क्या होगा, प्रदीप ने कहा, ''ऐसे में दक्षिण भारत के दल उसके साथ आ सकते हैं. अमित शाह को पता है कि उनके साथ जुड़ने वाले दम कम होंगे, इसलिए वो 50% वोट शेयर की बात कर रहे हैं.''