यूं ही नहीं बागी हुए हैं सचिन पायलट, 6 साल के अंदरूनी संग्राम का है नतीजा
नई दिल्ली। राजस्थान में कांग्रेस के लिए उसकी पार्टी के दो दिग्गज नेताओं को एकजुट रखने की चुनौती खड़ी हो गई है। प्रदेश के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट के बीच मनमुटाव काफी लंबे समय से चला आ रहा है। प्रदेश में चुनाव नतीजे आने के बाद दोनों के बीच के मतभेद सामन आए थे, हालांकि उस वक्त राहुल गांधी ने दोनों को एकजुट करने में सफलता हासिल की थी और प्रदेश में सरकार का गठन अशोक गहलोत के नेतृत्व में किया गया और सचिन पायलट को उपमुख्यमंत्री की कमान सौंपी गई। यह पहला मौका नहीं है जब प्रदेश में पार्टी के दो दिग्गज नेता ही आपस में भिड़ गए। इससे पहले मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया और कमलनाथ के बीच तनाव देखने को मिला था और इसकी इतिश्री सरकार गिरने से हुई और सिंधिया भाजपा में शामिल हो गए। राजस्थान और मध्य प्रदेश के सियासी घटनाक्रम में काफी समानताएं हैं, लिहाजा इस बार पार्टी के आलाकमान को अपने कदम फूंक-फूंक कर रखने पडेंगे।
नंबर गेम में गहलोत का पलड़ा भारी
हालांकि मध्य प्रदेश की तुलना में राजस्थान में कांग्रेस पार्टी की हालत नंबर गणित के लिहाज से इतनी खराब नहीं है। प्रदेश में पार्टी की स्थिति काफी मजबूत है। मध्य प्रदेश में 22 विधायकों के टूटने से प्रदेश में कांग्रेस की सरकार गिर गई थी, प्रदेश में विधानसभा की कुल 230 सीटें हैं और कांग्रेस के पास 114 सीटें थीं, लेकिन 22 विधायकों के इस्तीफा देने के बाद पार्टी के पास सिर्फ 92 विधायक बचे और सरकार अल्पमत में आ गई। वहीं प्रदेश में भाजपा के पास 107 सीटें हैं।
आसान नहीं होगा राजस्थान का किला भेदना
राजस्थान की बात करें तो यहां पार्टी अपने विधायकों की संख्या को पिछले राज्यसभा चुनाव में आजमा चुकी है। पार्टी के दो उम्मीदवार 200 वोट के बदले 123 वोट हासिल करके विजयी हुए, जिसमे कांग्रेस पार्टी के खुद के 107 विधायक, 13 निर्दलीय, दो भारतीय ट्राइबल पार्टी के और एक आरएलडी के हैं, जिन्होंने कांग्रेस के उम्मीदवारों को वोट दिया। इसके अलावा पार्टी को सीपीएम के दो विधायकों का अहम समर्थन हासिल है, जिसके साथ पार्टी का आंकड़ा 125 तक पहुंचता है।
गहलोत की पकड़ मजबूत
राजस्थान में भाजपा के नंबर की बात करें तो यहां पार्टी के पास 74 विधायक हैं, जिसमे से 72 विधायक उसके खुद के हैं और 3 विधायक हनुमान बेनीवाल की पार्टी राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी के हैं। मध्य प्रदेश की तुलना में राजस्थान में निर्दलीय विधायक अशोक गहलोत के करीबी हैं। 2014 में सचिन पायलट पीसीसी के अध्यक्ष थे, बावजूद इसके टिकट बंटवारे में अशोक गहलोत की ही चलती थी। माना जाता है कि प्रदेश में तकरीबन 75 फीसदी विधायक गहलोत के समर्थन में हैं। वहीं पायलट के खेमे का दावा है कि उनके पास आधे विधायकों का समर्थन है।
मध्य प्रदेश से अलग हैं राजस्थान के सियासी हालात
मध्य प्रदेश की तुलना में राजस्थान में भाजपा के लिए सियासी माहौल अनुकूल नहीं है। यहां प्रदेश में मुख्यमंत्री पद को लेकर गहलोत और सचिन पायलट के बीच शुरुआत से ठनी है। वहीं मध्य प्रदेश में सिंधिया मुख्यमंत्री की कुर्सी की मांग नहीं कर रहे थे, यही वजह है कि एमपी में भाजपा के लिए राह थोड़ी आसान जरूर थी। अगर सचिन पायलट भाजपा में शामिल होते हैं तो ऐसे में सवाल यह खड़ा होता है कि क्या वह मुख्यमंत्री की कुर्सी से कम किसी बात पर राजी होंगे, क्योंकि मौजूदा समय में वह प्रदेश के उपमुख्यमंत्री हैं। पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे और भाजपा का एक बड़ा धड़ा इस बात को कतई स्वीकार नहीं करेगा कि सचिन पायलट प्रदेश के मुख्यमंत्री बनें।
क्या पार्टी छोड़ सकते हैं सचिन पायलट
इन सबके बीच एक सवाल यह भी खड़ा होता है कि क्या सचिन पायलट अपने समर्थन विधायकों के साथ पार्टी छोड़ सकते हैं और उनपर दलबदल कानून लागू नहीं होगा। दल बदल कानून से बचने के लिए यह आवश्यक है कि पार्टी के दो तिहाई विधायक उनके साथ आएं। लेकिन यह होना काफी मुश्किल प्रतीत होता है क्योंकि दो तिहाई विधायकों की संख्या 72 है। लिहाजा कांग्रेस के 107 विधायकों में से 72 विधायकों का सचिन पायलट के साथ जाना फिलहाल मुमकिन नहीं दिख रहा है। एक विकल्य यह भी मौजूद है कि सचिन पायलट के विश्वासपात्र विधायक मध्य प्रदेश की तर्ज पर इस्तीफा दे दें, जिससे कि सदन में कांग्रेस अल्पमत में आ जाएगी और बाद में जिन विधायकों ने इस्तीफा दिया वो उपचुनाव में भाग लें और सीटों को वापस हासिल करें। लेकिन यह इसलिए भी मुश्किल है क्योंकि इसके लिए तकरीबन 50 विधायकों को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ेगा।
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क्यों ठनी है पायलट और गहलोत में?
दरअसल सचिन पायलट को 2014 में राजस्थान कांग्रेस की कमान सौंपी गई थी। पायलट के करीबियों का कहना है कि पार्टी के भीतर यह एक पूरी पीढ़ि का बदलाव है, ऐसे में अगर पार्टी सत्ता में आती है तो वह प्रदेश के मुख्यमंत्री बनेंगे। अशोक गहलोत का राजस्थान की राजनीति में काफी लंबा अनुभव है। वह 1998 में पहली बार प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे, उस वक्त उनकी उम्र 47 वर्ष थी। इसके बाद उन्हें पीसीसी का प्रमुख बनाया गया और उन्होने भाजपा के भैरो सिंह शोखावत के खिलाफ चुनावी अभियान शुरू किया और पार्टी को जीत दिलाई। इसके बाद से हर पांच साल में भाजपा की वसुंधरा सिंधिया और गहलोत के बीच सरकार की अदला-बदली होती रही। लेकिन गहलोत और पायलट के बीच तब टकराव शुरू हुआ जब पार्टी ने तीसरी बार भी गहलोत को मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंप दी, वो भी ऐसे वक्त में जब देश में लोकसभा चुनाव होने थे और गहलोत इसपर भी नजर बनाए हए थे। इसके बाद से ही दोनों नेता बिना नाम लिए एक दूसरे के खिलाफ बयानबाजी करते रहे हैं।
आखिर क्यों मतभेद नहीं सुलझा पा रहा शीर्ष नेतृत्व
अहम बात यह है कि आखिर दोनों के बीच मतभेद इतने समय बाद भी खत्म क्यों नहीं हुआ। कई नेताओं का कहना है कि केंद्रीय नेतृत्व जिस तरह से पिछले छह वर्षों में कमजोर हुआ है, उसकी वजह से क्षेत्रीय नेताओं का प्रभाव काफी बढ़ा है। राजस्थान कांग्रेस के मुखिया अवनीश पांडे को गहलोत और पायलट की तुलना में कमतर नेता माना जाता है और उनकी प्रदेश के नेतृत्व में पकड़ भी कमजोर है। उनके अंदर वह राजनीतिक शक्ति भी नहीं है कि वह गहलोत और पायलट को आमने सामने बैठाकर दोनों के मतभेद को खत्म कर सके। वहीं राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष के पद से इस्तीफा देने के बाद क्षेत्रीय युवा नेता अपने भविष्य की महत्वाकांक्षा की लड़ाई लड़ रहे हैं। युवा और बुजुर्ग नेताओं के बीच चल रहे टकराव की वजह से कांग्रेस पार्टी को मध्य प्रदेश में सत्ता से बाहर जाना पड़ा और कुछ ऐसा ही राजस्थान में होता नजर आ रहा है।
अगर सरकार नहीं गिरी तो क्या?
अशोक गहलोत सरकार के लिए संकट खड़ा करने वाले सचिन पायलट के लिए यह अग्निपरीक्षा की घड़ी है, ऐसे में अगर उन्हें अपने मंसूदों में सफलता नहीं मिलती है तो निसंदेह प्रदेश की राजनीति में उनकी साख गिरेगी। इस मतभेद के बाद सचिन पायलट के भविष्य पर भी खतरना बनेगा, आखिर कैसे वह प्रदेश सरकार में नंबर दो की कुर्सी पर बने रहेंगे। गहलोत और पायलट के बीच आपसी मतभेद और अविश्वास और भी गहरा हो जाएगा, जोकि पार्टी के भविष्य पर गहरा कुठाराघात कर सकता है। अब सवाल यह भी उठता है कि क्या मध्य प्रदेश, राजस्थान के बाद कोई ऐसा राज्य भी है जहां कांग्रेस पार्टी को इस तरह के संकट का सामना करना पड़ सकता है। पंजाब की बात करें तो कैप्टन अमरिंदर सिंह के नेतृत्व में सरकार पर किसी भी तरह का खतरा नजर नहीं आता। हालांकि छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंह देव के बीच आपसी रिश्ते कुछ खास नहीं है, दोनों ही मुख्यमंत्री की कुर्सी के अहम दावेदार थे। माना जा रहा है कि दोनों ही आपस में लंबे समय से बातचीत नहीं कर रहे हैं।