विपक्षी नेतृत्व का दम भरने वाली कांग्रेस को एक के बाद एक दरकिनार कर रहे हैं छोटे दल
नई दिल्ली। कांग्रेस वर्किंग कमेटी (CWC) की पहली बैठक जुलाई महीने में हुई थी। पार्टी के दिग्गज नेताओं ने बैठक के दौरान 2019 लोकसभा चुनाव में गठबंधन को बीजेपी के खिलाफ अचूक अस्त्र के तौर पर इस्तेमाल करने पर सहमति बनी। व्यावहारिक दृष्टि से गठबंधन बनाकर बीजेपी को चुनौती देना सही विकल्प है, लेकिन प्रश्न यह है कि चुनावी चक्रव्यूह में फंसी कांग्रेस क्षेत्रीय दलों का नेतृत्व करने की स्थिति में है? कांग्रेस के लिए गठबंधन मार्ग की चुनौतियां कम नहीं हैं। इसकी पहली बानगी उत्तर प्रदेश में देखने को मिली, जहां बसपा, सपा, कांग्रेस और आरएलडी के महागठबंधन अब कागज पर आने लगा है। यहां संभावित सीट शेयरिंग फार्मूले में कांग्रेस के लिए सिर्फ 7 सीटों का प्रस्ताव है। परेशानी सिर्फ यूपी तक नहीं है, बिहार से भी कांग्रेस के लिए बुरी खबर आ रही है।
बिहार में कांग्रेस को सिर्फ 8 सीटों का ऑफर
कर्नाटक में बीजेपी के सबसे बड़ी पार्टी बनने के बाद भी कांग्रेस ने जनता दल सेक्युलर की मदद से विपक्षी एकता का जबरदस्त मास्टरस्ट्रोक चला। कर्नाटक में बीजेपी को सत्ता से बाहर करके कांग्रेस-जेडीएस सरकार जब सत्ता में आई तो बेंगलुरु में ममता बनर्जी, शरद पवार, चंद्रबाबू नायडू, अखिलेश यादव, अरविंद केजरीवाल, मायावती, सोनिया गांधी समेत विपक्षी के सभी बड़े चेहरे नजर आए। मंच से जो तस्वीर सामने आई, उससे संकेत गया कि कांग्रेस क्षेत्रीय दलों के साथ मिलकर 2019 में मोदी विरोध के नाम पर बीजेपी के खिलाफ चक्रव्यूह रच सकती है। लेकिन अब लगता है कि वह तस्वीर पूरी नहीं थी, बल्कि अधूरी थी। उसमें किसी ने यह नहीं देखा कि मोदी विरोध के नाम कांग्रेस के साथ दल जुड़ेंगे तो सही, लेकिन अपने-अपने राज्यों में वे कांग्रेस को बेहद कमजोर मानकर उसके साथ बर्ताव करेंगे। जैसा कि आरजेडी बिहार में करती दिख रही है। बिहार में महागठबंधन का संभावित सीट शेयरिंग फॉर्मूला सामने आया है, जिसमें कांग्रेस को सिर्फ 8 सीटें दिए जाने का प्रस्ताव है।
महाराष्ट्र में कांग्रेस के लिए चुनौती कम नहीं
यूपी, बिहार के बाद महाराष्ट्र कांग्रेस के लिए सबसे अहम राज्य है। यहां भी कांग्रेस सत्ता से बाहर है, लेकिन कांग्रेस का संगठन अन्य राज्यों की तुलना में यहां मजबूत है। 48 लोकसभा सीटों वाले इस राज्य में कांग्रेस के प्रमुख सहयोगी हैं, शरद पवार। हाल में राफेल डील विवाद पर शरद पवार ने स्पष्ट कहा कि वह पीएम नरेंद्र मोदी की मंशा पर शक नहीं करते हैं। मतलब गठबंधन में महाराष्ट्र से भी कांग्रेस के लिए चुनौती कम नहीं हैं। भले ही एनसीपी और कांग्रेस के बीच महाराष्ट्र में सीट शेयरिंग उतनी बड़ी चुनौती नहीं हैं, लेकिन कांग्रेस का प्रदर्शन खराब रहा तो 2019 के बाद कांग्रेस-एनसीपी के बीच दल गलना बड़ा मुश्किल हो जाएगा। शरद पवार बड़ी ही होशियारी के साथ बीजेपी से भी करीबी बनाए हुए हैं। यहां तक कि महाराष्ट्र में सरकार गठन के वक्त वह बीजेपी को समर्थन का खुला ऑफर भी दे चुके हैं। मतलब 2019 में भले ही बीजेपी बहुमत न ला सके, लेकिन अगर वह सबसे बड़ी पार्टी बनी तो शरद पवार पाला बदल सकते हैं।
चिदंबरम का फॉर्मूला ही है अब कांग्रेस का आखिरी रास्ता
गठबंधन को बीजेपी के खिलाफ अचूक हथियार बनाने की कांग्रेस की रणनीति कारगर नहीं है। इसका पहला नुकसान यह है कि गठबंधन में सबसे ज्यादा कुबार्नी कांग्रेस को ही देनी होगी। वजह है कांग्रेस का गठबंधन वाले राज्यों में सहयोगियों से कमजोर होना। मसलन, बिहार में आरजेडी के पास कांग्रेस से ज्यादा ताकत है, यूपी में बसपा-बसपा का आधार कांग्रेस से ज्यादा, पश्चिम बंगाल में अगर गठबंधन हुआ तो वहां भी लेफ्ट और तृणमूल दोनों के सामने कांग्रेस का जनाधार बेहद कम है। इसी प्रकार से महाराष्ट्र में शरद पवार की पार्टी एनसीपी पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की बराबरी पर रही, जबकि दोनों दलों की सीटों में काफी अंतर हुआ करता था। कुल मिलाकर कांग्रेस के पास एकमात्र विकल्प अब बचा है और वह पी चिदंबरम का फॉर्मूला। जुलाई में हुई CWC में चिदंबरम उन 12 राज्यों का जिक्र किया, जहां कांग्रेस का जनाधार है। इन राज्यों में पार्टी को अपनी ताकत संगठित कर पूरे जोश के साथ 150 सीटें जीतने का प्रयास करना चाहिए, क्योंकि अगर कांग्रेस गठबंधन के भरोसे रही, तो इतनी ताकत भी जुटा सकेगी कि वह क्षेत्रीय दलों का नेतृत्व कर सके। कांग्रेस को पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, कर्नाटक जैसे राज्यों में पूरी ताकत झोंकनी चाहिए और जहां बेहद कम सीटें मिलें, वहां गठबंधन से बाहर आ जाना चाहिए। कांग्रेस अगर यूपी-बिहार जैसे राज्यों में 7 या 8 सीटों पर चुनाव लड़ेगी तो उसके राष्ट्रीय पार्टी होने पर ही प्रश्नचिन्ह खड़ा हो जाएगा।