बोफ़ोर्स से रफ़ाल तक: विवादों में क्यों घिर जाती हैं भारत की डिफेंस डील?
क्या डील में देरी होने से सेना कमज़ोर हो रही है, इस सवाल के जबाव में अशोक मेहता कहते हैं, ''आर्म्ड फोर्सेज़ को 30 साल तक अगर नई गन नहीं मिलेगी तो वो क्या करेंगे. एके एंटनी रक्षामंत्री होते हुए इतनी नुक्ताचीनी करते थे, इतनी स्क्रूटनी थी कि कोई कंपनी डील के लिए टिक ही नहीं पाती थी. आप कंपनियों को ब्लैकलिस्ट कर देते हैं तो फिर सिंगल वेंडर सिचुएशन में आ जाते हैं. कोई तो कंपटीटर होना चाहिए.''
रफ़ाल डील को लेकर भारत में बीते एक साल से सियासी गहमागहमी है.
रफ़ाल डील में केंद्र की मोदी सरकार पर एक कंपनी को फ़ायदा पहुँचाने का आरोप है. आरोप प्रत्यारोप के बीच पहले हुए रक्षा सौदों में बिचौलियों के शामिल होने पर भी काफ़ी हंगामा हुआ है.
दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी सेना रखने वाले इस देश में बीते कई दशकों से शायद ही ऐसा कोई बड़ा रक्षा सौदा रहा हो जो विवादों में न घिरा हो. बोफ़ोर्स से लेकर रफ़ाल तक सेना की ताक़त बढ़ाने के लिए होने वाले इन सौदों पर सवाल उठे और सरकारों पर भी.
दरअसल, रक्षा सौदे तीन तरह से होते हैं. पहला ओरिजिनल इक्विपमेंट मैन्युफ़ैक्चरर (OEM) और दूसरी गवर्नमेंट टू गवर्नमेंट (G to G) और तीसरा फ़ॉरेन मिलिट्री सेल (FMS).
ओरिजिनल इक्विपमेंट मैन्युफ़ैक्चरर डील में आप सीधे कंपनी से ख़रीदारी करते हैं. दूसरी सरकार से सरकार की डील जैसे भारत सरकार ने फ्रांस की सरकार से रफ़ाल की डील तय की.
अमरीका के साथ भारत के रक्षा सौदे, फॉरेन मिलिट्री सेल के तहत होते हैं. ये भी सरकार से सरकार की ही डील होती है. इसमें कोई एजेंट या एजेंसी नहीं होती.
लेकिन ऐसी क्या वजह है कि भारत में होने वाला हर रक्षा सौदा विवादों में घिर जाता है?
इस सवाल के जवाब में रक्षा विशेषज्ञ और रिटायर्ड मेजर जनरल अशोक मेहता कहते हैं, ''बुनियादी बात ये है कि हर सौदे में बड़े पैमाने पर पैसे लगे होते हैं, उसमें बिचौलिए या मिडिलमैन ज़रूर होते हैं, आप यूरोप, अमेरिका या दूसरे देशों में देखेंगे तो वहां भी आपको ये दिखेंगे. ऐसे सौदों में मिडिलमैन की भूमिका हमेशा से रही है. इन्हें आप किसी भी नाम से पुकार सकते हैं.''
रक्षा मामलों के जानकार और इंडियन एक्सप्रेस के डिप्टी एडिटर सुशांत सिंह इसके लिए सरकारी नीतियों और भारत में हथियार न बनाए जाने को भी ज़िम्मेदार मानते हैं. वो कहते हैं, 'रक्षा सौदे विवादों में इसलिए रहते हैं क्यों सुरक्षा का सामान भारत खुद नहीं बनाता, बाहर से मंगाता है. सामान आयात करते हैं तो उसमें हमेशा दलाली या बिचौलियों को कमीशन देने, फेवरिज्म होने की बातें सामने आईं और यहीं से विवाद शुरू हो जाते हैं.''
क्यों शामिल होते हैं बिचौलिए?
हालांकि बिचौलियों के बिना ऐसे सौदे करना आसान नहीं है. ऐसा मानना है रक्षा विश्लेषक राहुल बेदी का.
वो कहते हैं, ''बिचौलियों को ऐसे सौदे से निकाल नहीं सकते. वो बहुत ज़रूरी होते हैं. हिंदुस्तान की सरकार ने बिचौलियों को रेगुलर करने के लिए स्कीम निकाली थी. वाजपेयी सरकार के समय और जब पर्रिकर रक्षा मंत्री थे तब भी बिचौलियों को रेगुलर करने की पहल की गई थी लेकिन नियम इतने कड़े थे कि कोई भी आदमी रजिस्टर नहीं हुआ.''
असल फ़ायदा किसको होता है?
रक्षा सौदों में बिचौलियों के शामिल होने और इस पर उठने वाले विवादों की वजह से लगभग हर बार सेना को हथियार या ज़रूरत का दूसरा सामान मिलने में देरी हुई. लेकिन जिन बिचौलियों की वजह से ये डील विवादों में घिरती हैं, उन्हें मिलता क्या है?
दरअसल, बिचौलियों को डील के आधार पर कुछ हिस्सा मिलता है. विदेशों में ये एक्सपर्ट या कंसल्टेंसी सर्विस के नाम पर बिजनेस चलाते हैं लेकिन काम मिडिलमैन का करते हैं. वो सौदों के बारे में बताते हैं, और कंपनियां भी एजेंट रखती हैं. कुछ सौदों में उन्हें एक से दो फ़ीसदी हिस्सा मिलता है तो कुछ में चार से सात फ़ीसदी हिस्सा मिलता है.
राहुल बेदी बताते हैं, ''एजेंसी की कमीशन के बिना डील संभव नहीं है. रूस से होने वाली डील जी टू जी होती हैं, हम उनसे डील करते हैं, वो ओरिजनल मैन्युफ़ैक्चरर से डील करते हैं. उनकी जो एजेंसी है वो 12 से 14 फीसदी का मार्जिन लेकर चलती है. यानी 100 रुपये की डील 114 रुपए में होती है और बाद में वो मुनाफ़ा आपस में बंट जाता है.''
अशोक मेहता का मानना है कि बोफ़ोर्स के पहले बिचौलिए कभी खुलकर सामने नहीं आए. लेकिन तब की सरकारों के पास चुनावों के लिए पैसा कहां से आता था? वो कहते हैं, ''ये ग़ैर-लिखित बात है लेकिन उस ज़माने में पैसा ऐसे ही आता था. अब के समय में बिज़नेसमैन पार्टियों को चंदा देते हैं, लेकिन पहले ऐसी ही तमाम डील से पैसा आता था.''
किसी नेता का नाम क्यों नहीं आता?
हाल ही में अगस्टा वेस्टलैंड डील में कथित मिडिलमैन की भूमिका निभाने वाले क्रिश्चियन मिशेल को भारत लाया गया. यूपीए सरकार में हुए इस सौदे में गड़बड़ी के आरोप लगे हैं. इस मामले में सेना के अफ़सर भी घिरे हैं. हालांकि मिशेल ने अब तक कोई ख़ास जानकारी नहीं दी है.
इन सौदों में किसी नेता को सज़ा न होने के सवाल पर रिटायर्ड मेजर जनरल अशोक मेहता कहते हैं, ''सरकारों ने सबक सीखा है. इन डील में जो पैसों का लेन-देन होता है वो मनी ट्रेल नहीं खुलनी चाहिए. बोफ़ोर्स में भी यही हुआ. अगस्टा डील में भी यही हुआ. कोई मनी ट्रेल नहीं है. भले ही सरकार मिशेल को ले आई हो और उनके बयान के आधार पर दबाव बनाने की कोशिश कर रही हो लेकिन साढ़े चार साल में वो मनी ट्रेल नहीं साबित कर पाई.''
इस सवाल पर राहुल बेदी बताते हैं, ''बराक मिसाइल डील भी विवादों में रही. उसमें भी बिचौलियों को पैसे देने की बात सामने आई. उसमें एडमिरल सुशील कुमार का नाम भी सामने आया लेकिन वो केस भी बंद हो गया. सीबीआई के पास इतनी क़ाबिलियत नहीं है कि वो ऐसे मामलों को निपट पाए. अब हम बराक मिसाइल ले रहे हैं, वो डील आगे बढ़ रही है.''
कब से सक्रिय हैं बिचौलिए?
रक्षा विशेषज्ञ राहुल बेदी का मानना है कि इन सौदों में बिचौलिए 60-70 सालों से सक्रिय हैं. इनके बिना सौदा नहीं हो सकता. ये तय है. पहले इनको मिलने वाली रकम फ़िक्स रहती थी और हर महीने उतना पैसे उन्हें दिया जाता था, लेकिन मिडिलमैन का रोल बोफ़ोर्स डील में खुलकर सामने आया.
बेदी कहते हैं, ''बोफ़ोर्स डील रक्षा सौदों में घोटालों का टर्निंग प्वाइंट था. बोफ़ोर्स में करीब 400 तोपें ख़रीदी थीं. 86-87 में इस पर खूब हंगामा हुआ और राजीव गांधी इसकी वजह से चुनाव हार गए लेकिन इससे सबक लेकर कांग्रेस पार्टी ने हर डील में इंटेग्रिटी पैक्ट शामिल किया, जिसमें कहा गया कि अगर पता चलता है कि कंपनी ने किसी ऐसे आदमी या एजेंसी को हायर किया है तो कॉन्ट्रैक्ट पूरा होने के बाद भी रद्द किया जा सकता है और कंपनी पर जुर्माना भी लगाया जा सकता है. ये कंपनी की मजबूरी है. लेकिन एनडीए की सरकारों ने बिचौलियों को रेगुलर करने के लिए भी क़दम उठाए.''
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सेना के अफ़सरों की क्या भूमिका है?
सरकार उन्हीं चीज़ों के लिए कंपनियों या दूसरे देशों से सौदा करती है जो सेना, एयरफोर्स और नेवी उसे बताती है. हथियार, लड़ाकू विमान और सबमरीन की डील भी सेना की ज़रूरतों के आधार पर तय होती है. यानी प्रोडक्ट कैसा हो, इसकी ख़ासियत क्या हो.
जैसे अगस्टा वेस्टलैंड डील की बात करें तो आपको कैसा हेलिकॉप्टर चाहिए, कैसे फीचर्स होंगे, कितनी ऊंचाई पर उड़ सकता है, ये सारे फीचर्स तय किए जाते हैं. ऐसे ही बाक़ी डील में भी सेना, एयरफोर्स और नेवी के अधिकारी टेक्निकल ट्रायल में शामिल होते हैं, फंक्शन तय होते हैं.
रिटायर्ड मेजर जनरल अशोक मेहता कहते हैं, ''सेना के अधिकारी ट्रायल और फंक्शनिंग तय करने तक तो होते हैं लेकिन कॉन्ट्रैक्ट की बारी आती है तो वो नेता देखते हैं. ऐसे में उनके पास छोटा पैसा तो आता है लेकिन बड़ा पैसा नेताओं के पास जाता है. कॉन्ट्रैक्ट लेवल की बात बाबू (सेक्रेटरी) तय करते हैं.''
इस बारे में सुशांत सिंह कहते हैं, ''टॉप आर्मी ऑफिशियल हों या ब्यूरोक्रेसी हो, वो सिस्टम से काम करती है. किसी एक के कहने से कुछ नहीं होता, पूरी प्रक्रिया से गुजरने के बाद ही डील होती है. कई बार आइटम अच्छा होता है लेकिन विवाद खड़े हो जाते हैं. जैसे बोफ़ोर्स है, विवाद ज़रूर हुआ लेकिन उसी बोफ़ोर्स के दम पर हम कारगिल जीते.''
वो कहते हैं, अभी रफ़ाल का मुद्दा गरमाया हुआ है. लेकिन रफ़ाल डील किसी बिचौलिए की वजह से चर्चा में नहीं आई. इसमें तो सरकार पर एक कंपनी को फ़ायदा पहुंचाने का आरोप है.
बिचौलियों को कौन मैनेज करता है?
कई रक्षा विश्लेषक मानते हैं कि हर डील में बिचौलियों की भूमिका होती है. लेकिन ये बिचौलिए काम कैसे करते हैं और उन्हें मैनेज कौन करता है?
इस सवाल में राहुल बेदी कहते हैं, ''दलाल किसी के नहीं होते. वो बहुत सारे काम करते हैं. वो संसद में सवाल उठाने के लिए सांसदों को पैसे भी देते हैं, हंगामे कराते हैं, उनका गुट बना है जो पूरा माफ़िया नेक्सस जैसा है, जो ऑपरेट करता है. इसमें नेता से लेकर अफ़सर और सर्विंग अफ़सर, रिटायर्ड अफ़सर सब शामिल हैं. ये ऐसा माफ़िया है जिसे तोड़ना बहुत मुश्किल है.''
इस मामले में गौर करने वाली बात ये है कि रक्षा सौदों में सिर्फ सेना के वर्तमान अफ़सर ही नहीं पूर्व अफ़सर भी कहीं न कहीं शामिल होते हैं. लेकिन मिडिलमैन के बिना ये प्रॉसेस संभव नहीं है. कंपनियों से होने वाली डील में ये होना ही है, दूसरी चीज़ ये है कि बाहर के देशों में मिडिलमैन रखना बुरी बात नहीं है.
विवाद से बचने का तरीका क्या है?
बार-बार रक्षा सौदों के विवादों में आने और सेना के पास आधुनिक हथियारों की कमी बड़ी चिंता का विषय है.
यूपीए सरकार के कार्यकाल में जब जनरल वीके सिंह सेना प्रमुख थे तो उन्होंने कहा था कि अगर भारत पर हमला होता है तो सेना के पास सिर्फ़ तीन से चार दिन की लड़ाई के लिए हथियार हैं. लेकिन बीते करीब पांच सालों में भी इसमें कोई इज़ाफ़ा नहीं हुआ.
सुशांत सिंह कहते हैं, डिफे़ंस डील बहुत बड़ी होती हैं. जैसे 60 हज़ार करोड़ की डील है, इतनी बड़ा पैसा शामिल होता है तो हमेशा शक का दायरा बढ़ता है. अलग-अलग तरह के लोग शामिल होते हैं. सरकारों ने सबक पुरानी ग़लतियों से सबक लिए और क़ानून बदले गए हैं, प्रक्रियाएं बदली गई हैं लेकिन प्रक्रिया को इतना भी सख्त नहीं करना कि आप सामान ख़रीद ही न पाएं. प्रक्रिया ऐसी हो कि कम समय में अच्छी डील लेकर सेना को दें.
इसके साथ ही वो यह भी मानते हैं कि रक्षा सौदों को अगर विवादों और घोटालों से बचाना है तो भारत को अपने अधिक से अधिक हथियार देश में ही बनाने होंगे. वो कहते हैं, 'इसे रोकने का तरीका यही है कि देश के अंदर सामान बनाना शुरू करें. आपने कभी नहीं सुना होगा कि तेजस बनाने में कोई करप्शन हुआ है.''
क्या सेना कमज़ोर हो रही है?
रक्षा सौदों में घोटाले और कई सालों तक उनकी डिमांड पूरी न होने के अपने नुकसान हैं.
क्या डील में देरी होने से सेना कमज़ोर हो रही है, इस सवाल के जबाव में अशोक मेहता कहते हैं, ''आर्म्ड फोर्सेज़ को 30 साल तक अगर नई गन नहीं मिलेगी तो वो क्या करेंगे. एके एंटनी रक्षामंत्री होते हुए इतनी नुक्ताचीनी करते थे, इतनी स्क्रूटनी थी कि कोई कंपनी डील के लिए टिक ही नहीं पाती थी. आप कंपनियों को ब्लैकलिस्ट कर देते हैं तो फिर सिंगल वेंडर सिचुएशन में आ जाते हैं. कोई तो कंपटीटर होना चाहिए.''
वो कहते हैं, फौज की तैयारी और ईमानदारी के बीच बैलैंस बनाना कोई मैजिक फॉर्मूला नहीं है, ये पूरी तरह पॉलिटिकल बैलेंस पर निर्भर करता है.
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