बिहार : कोरोना ने मार दी इंसानियत, कल तक जो आंखों के तारे थे अब वो बेसहारे थे...
पटना। क्रूर कोरोना ने इंसान को इंसान का दुश्मन बना दिया। मौत सामने है तो जिंदा रहने की ख्वाइश कुछ और बढ़ गयी है। इसे एहतियात कह लें या खुदगर्जी, लेकिन इंसान बहुत बदल गया है। कोई झूठ बोल रहा है। कोई झांसा दे रहा है। कोई एक झटके में रिश्तों की डोर तोड़ दे रहा है। 15 दिन में ही कितना बदल गया इंसान। अभी होली को गुजरे कितने दिन हुए हैं। तब तक तो बिहार में सब कुछ ठीक था। 10 मार्च तक भारत में कोरोना मरीजों की संख्या 45 थी लेकिन बिहार बिल्कुल अछूता था। सावधानी और कुछ बंदिशें थीं लेकिन खौफ बिल्कुल न था। 21 मार्च तक बिहार में एक भी कोरोना मरीज नहीं था। लेकिन जैसे ही 22 मार्च को मुंगेर के मरीज की मौत हुई बिहार का माहौल ही बदल गया। कोरोना के काल ने सबको डरा दिया है। रिश्ते-नाते सब बेमानी हो गये हैं। कल तक जो आंखों का तारा था, अपना था, दुलारा था आज हालात हदल गये तो वह बेसहारा था।

चटक गयी रिश्तों की डोर
बेगूसराय के बछवाड़ा इलाके में पांच दिन पहले एक व्यक्ति तमिलनाडु से आया था। इसकी सूचना पर बछवाडा अस्पताल की मेडिकल टीम ने उसकी स्क्रीनिंग की थी। जांच के बाद इस व्यक्ति को होम क्वारेंटाइन में रहने का निर्देश दिया गया था। गुरुवार को इस व्यक्ति की मौत हो गयी। जैसे ही उसकी मौत हुई घर वाले डर गये। उन्होंने घर छोड़ दिया। तमिलनाडु से आये व्यक्ति की मौत गुरुवार दो पहर को मौत हुई थी लेकिन शुक्रवार तक उसका शव घर में पड़ा रहा। अंतिम संस्कार के लिए घर और गांव के लोग शव छूने के लिए तैयार ही नहीं थे। तब प्रशासन को इसके लिए पहल करनी पड़ी। उन्हें समझाया गया कि मौत की वजह अभी स्पष्ट नहीं है। जांच के बाद ही उसके बारे में कुछ कहा जा सकता है। बहुत समझाने के बाद परिजन अंतिम संस्कार के लिए राजी हुए। इसी तरह बेगूसराय जिले के ही साहेबपुर कमाल इलाके में एक वृद्ध महिला की मौत हो गयी थी। वह भी कुछ दिन पहले दिल्ली से घर लौटी थी। उसका भी शव एक दिन तक पड़ा रहा था। अंत में प्रशासन के सहयोग से उसका अंतिम संस्कार किया गया। बिहार से बाहर काम करने वाले बड़े अरमान से अपने घर लौट रहे हैं। लेकिन जब हालात बिगड़ जाते हैं तो अपने भी मुंह फेर ले रहे हैं।

घर वाले भी फेर ले रहे मुंह
दरभंगा इलाके का एक गांव। इस गांव का रहने वाला एक युवक पुणे में काम करता था। कोरोना संदिग्ध होने पर उसे पुणे के एक आइसोलेशन वार्ड में रखा गया था। लेकिन एक दिन वह किसी तरह वहां से भाग कर दरभंगा के अपने गांव पहुंच गया था। यह हैरानी की बात है कि वह पुणे से कैसे अपने गांव आ गया जब कि उसके शरीर पर पुणे के अस्पताल की मुहर लगी हुई थी। माना जा रहा है कि वह युवक स्क्रीनिंग सिस्टम को झांसा देकर अपने गांव पहुंचा था। लेकिन जैसे ही वह अपने गांव पहुंचा घर के लोगों ने उससे मुंह फेर लिया। गांव के लोगों ने उसे एक एम्बुलेंस में बैठा कर जबरन अस्पताल भेज दिया। यह युवक जैसे ही प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र पहुंचा वहां के सारे अस्पतालकर्मी भाग खड़े हुए। बाद उसको आइसोलेट कर दिया गया।

क्या अपना, क्या पराया ?
रोजी-रोटी के लिए बिहार से बाहर गये लोग अब अपने घर लौटने के लिए आतुर हैं। पैदल चल कर घऱ पहुंचने वाले लोगों को मीडिया ने जिस तरह हाइलाइट किया उसको देख अन्य भी ऐसा करने के लिए प्रेरित हुए। सम्पूर्ण लॉकडाउन के बाद भी दिल्ली-यूपी बोर्डर पर हजारों लोगों की भीड़ रेले की तरह उमड़ी हुई है। इतना ही नहीं पटना में रहने वाले अलग-अलग जिलों से आये मजदूर भी अब पैदल ही घर लौट रहे हैं। ये एक टोली के रूप में एक दूसरे से सटे हुए रास्त तय कर रहे हैं। इससे सोशल डिस्टेंसिंग का फरमान तार-तार हो गया है। यह भीड़ एक चलती-फिरती दहशत से कम नहीं है। अभी जिस तेजी से कोरोना का संक्रमण बढ़ रहा है उसको देख कर यह प्रवृति एक बड़े खतरे का संकेत है। अगर ये लोग बिहार स्थित अपने घर लौटेंगे तो क्या अपने परिजनों को मुश्किल में नहीं डालेंगे ? क्या घर लौटने के बाद उनकी समस्याएं खत्म हो जाएंगी ? जिस तरह से गांव के लोग बाहर से आने वालों को घर में घुसने नहीं दे रहे हैं, उससे तो उन्हें और भी दिक्कत होने वाली है।
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