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कोरोना: लॉकडाउन की फिर से क्यों हुई वापसी, क्या नाकाम रहा पिछला लॉकडाउन?

भारत के कई प्रदेशों और शहरों में फिर से लॉकडाउन लगा दिया गया है. क्या है इसकी वजह? पिछले लॉकडाउन का क्या हुआ असर?

By अपूर्व कृष्ण
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बेंगलुरू
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वो 22 मार्च का दिन था - जब भारत में जनता ने देशहित में ख़ुद अपने आप पर कर्फ़्यू लगा लिया. इससे बहुत कम लोगों की ज़िंदगी में खलल पड़ा, क्योंकि वो संडे का दिन था. और प्रधानमंत्री मोदी ने दो दिन पहले, गुरुवार 19 मार्च को ही इसके बारे में बता भी दिया था.

देश को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा था, "साथियों, 22 मार्च का हमारा ये प्रयास हमारे आत्मसंयम और देशहित में हमारे कर्तव्य पालन के संकल्प का एक मज़बूत प्रतीक है."

दो दिन बाद, 24 मार्च की शाम आठ बजे प्रधानमंत्री मोदी फिर बोले, और देश 21 दिन के लिए बंद हो गया.

प्रधानमंत्री उस दिन बोले,"आनेवाले 21 दिन हर नागरिक के लिए, हर परिवार के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण हैं, हेल्थ एक्सपर्ट्स की मानें तो कोरोना वायरस का साइकिल तोड़ने के लिए 21 दिन का समय बहुत अहम है. अगर ये 21 दिन नहीं संभले तो देश और आपका परिवार 21 साल पीछे चला जाएगा."

वो 24 मार्च की रात थी, आज 17 जुलाई है. देश के कई हिस्सों में लॉकडाउन फिर पहले जैसा लौट रहा है. ऐसा क्यों हो रहा है, इसका जवाब प्रधानमंत्री मोदी के 24 मार्च के भाषण में ही छिपा है - कोरोना वायरस का साइकिल नहीं टूटा. 21 दिनें में स्थिति नहीं संभली.

तो क्या लॉकडाउन नाकाम रहा?

ये सवाल तो पहले ही लॉकडाउन के दौरान उठने लगा था और जानकारों को गड़बड़ी का अंदाज़ा भी हो गया था.

पहले लॉकडाउन की अवधि ख़त्म होने के चंद रोज़ पहले, भारत सरकार की पूर्व स्वास्थ्य सचिव के सुजाता राव ने आउटलुक पत्रिका से ये कहा था, "मुझे चिंता है, मैं उम्मीद करूँगी कि महामारी हमारे नियंत्रण से बाहर ना हो जाए. मुझे लगता है भारत ने सरकार के लॉकडाउन के फ़ैसले का बड़ी अच्छी तरह पालन किया है, प्रदेशों ने भी मामलों के सूत्र को खोजने के मामले में अच्छा काम किया है. सरकारी डेटा देख मुझे लगा कि इसे कन्टेन (नियंत्रित) कर लिया गया है, ये समुदायों में नहीं फैल रहा. तो नियंत्रित स्थिति के साथ-साथ अगर पूरे देश में लॉकडाउन है, तो ग्राफ़ सपाट होना चाहिए था. पर ऐसा हुआ नहीं, और ये चिंता की बात है."

सुजाता राव ने ये चिंता अप्रैल में जताई थी, पहले लॉकडाउन के दौरान. और आज जुलाई में भी ठीक वैसी ही बातें हो रही हैं. चिंता कम नहीं हो रही, बढ़ गई है.

और यही वजह है कि या तो लॉकडाउन लगाना पड़ रहा है, या फिर उसे बढ़ाना पड़ रहा है या ढील देने के बाद उसे फिर से सख़्त करना पड़ रहा है. संक्रमण का साइकिल टूट नहीं रहा और स्थिति संभल नहीं रही.

लॉकडाउन
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साइकिल तोड़ने में नाकाम?

मार्च से अप्रैल हुआ, अप्रैल से मई, मई से जून और अब जुलाई. शुरू वाले 21 दिन तक तो याद रहा, फिर दिन, सप्ताह, महीने, तारीख - इनको दिमाग़ में बिठाना मुश्किल होता गया और लोगों ने इसकी कोशिश भी छोड़ दी.

और लॉकडाउन का नाम लोगों की ज़ुबान से हटा भी नहीं था कि 68 दिन बाद, 31 मई को एक और नया लफ़्ज़ आ गया - अनलॉक-1.

गृह मंत्रालय ने कन्टेनमेंट क्षेत्रों को छोड़, बाक़ी जगहों से लगभग सारी पाबंदियाँ हटा लीं. और तब से लॉकडाउन के साथ-साथ अनलॉक के भी कई संस्करण आते जा रहे हैं.

लेकिन लॉकडाउन को लेकर वो सवाल फिर भी बार-बार आता-जाता रहा और ख़बरों का हिस्सा बनता रहा. जैसे कि 5 जून को आया कांग्रेस नेता राहुल गांधी का एक ट्वीट जिसमें स्पेन, जर्मनी, इटली और ब्रिटेन के ग्राफ़ के साथ भारत की तुलना कर उन्होंने लिखा, "एक नाकाम लॉकडाउन ऐसा दिखता है."

ये जुलाई है, अब ना प्रधानमंत्री उस तरह बोलते हैं, ना राहुल उस तरह के ट्वीट करते हैं, ना लोगों को लव अग्रवाल और पुण्य सलिला श्रीवास्तव की रोज़ाना की ब्रीफ़िंग का इंतज़ार रहता है, ना केरल के मुख्यमंत्री के ट्वीट्स की चर्चा होती है.

कमाल की हेडलाइन लिखनेवाले पत्रकारों ने भी हथियार डाल दिए हैं, उनके हाथों से रोज़ यही लाइनें निकलती हैं - आज रिकॉर्ड संख्या में संक्रमण के आँकड़े आए, अगले दिन फिर यही लाइन, उसके अगले दिन फिर यही लाइन. रिकॉर्ड रोज़ टूट रहे हैं लेकिन साइकिल नहीं टूट रहा.

तो सवाल है कि ऐसा क्यों हो रहा है?

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संकट बद-से-बदतर

जानकारों का मत है कि इसकी जड़ में है भारत का कमज़ोर सरकारी स्वास्थ्य तंत्र.

भारत सरकार के पूर्व स्वास्थ्य सचिव केशव देसिराजू ने बीबीसी से कहा, "अगर आपका बुनियादी तंत्र मज़बूत नहीं है तो किसी आपात स्थिति का सामना करना बहुत मुश्किल है. अगर भारत की बुनियादी स्वास्थ्य व्यवस्था पर ध्यान दिया जाता, अगर वो काम करता, अगर उसके पास साधन होते, तो संकट की स्थिति में वो बेहतर तरीक़े से इसका सामना करते. अगर वो सिस्टम नहीं है, तो संकट बद-से-बदतर होता चला जाएगा."

जैसे-जैसे वक्त बीता संकट बद-से-बदतर होता गया. इसकी गवाही आँकड़े देते हैं. 24 मार्च के दिन जब प्रधानमंत्री ने लॉकडाउन का एलान किया था, उस दिन देश में कोरोना संक्रमित रोगियों की संख्या 560 के क़रीब थी और इससे 10 लोगों की मौत हुई थी.

फिर लॉकडाउन लगा दिया गया. 21 दिनों का लॉकडाउन ख़त्म होने वाले दिन, 14 अप्रैल तक ये संख्या बढ़कर 10,815 हुई. इसके बाद 1 मई तक 35,365, 1 जून तक 1,90,535, 1 जुलाई तक 5,85,493 और 16 जुलाई तक 9,68,876 हो गई है.

यानी लॉकडाउन शुरू होने से पहले जो संख्या साढ़े पाँच सौ के क़रीब थी, वो चार महीने में बढ़कर लगभग 10 लाख होने जा रही है - 24 मार्च की संख्या से 1800 गुना ज़्यादा.

हालाँकि संख्या का बढ़ना कोई हैरानी वाली बात नहीं है. जानकार बताते हैं, टेस्टिंग बढ़ने और लॉकडाउन खुलने से ये होना ही था.

गुजरात के गांधीनगर में स्थित इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ़ पब्लिक हेल्थ के निदेशक और अमरीका की जॉन्स हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी के पूर्व छात्र प्रोफ़ेसर दिलीप मावलंकर कहते हैं कि लॉकडाउन का असर तो हुआ है.

प्रोफ़ेसर मावलंकर ने बीबीसी से कहा, "बहुत दिनों तक संख्या कम रही, दूसरे देशों को देखें तो वहाँ भी लॉकडाउन तक संख्या कम थी, अब लॉकडाउन खुलने के बाद वहाँ भी संख्या बढ़ रही है. तो वो तो स्वाभाविक है."

लेकिन उन्होंने साथ ही ये भी कहा कि लॉकडाउन के दौरान जो तैयारी की जानी चाहिए थी वो नहीं हुई.

प्रोफ़ेसर दिलीप मावलंकर

दिलीप मावलंकर कहते हैं,"लॉकडाउन का उद्देश्य तो स्पष्ट था कि हम इन दो-तीन महीनों में तैयारी करें. तो जहाँ-जहाँ हम अभी अस्पताल बना रहे हैं, वो उस समय बन सकते थे. टेस्टिंग, कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग, उसकी व्यवस्था और कितनी बेहतर हो सकती है, ये देखना चाहिए था. जो तैयारी अभी हम कर रहे हैं, वो तैयारी पहले की होती तो ये नहीं होता."

हालाँकि, पब्लिक हेल्थ फ़ाउंडेशन ऑफ़ इंडिया संस्थान के महामारी विशेषज्ञ डॉक्टर गिरिधर बाबू ने बीबीसी के सहयोगी पत्रकार इमरान क़ुरैशी से कहा, "लॉकडाउन वायरस को फैलने से रोकने के लिए सबसे ज़रूरी उपाय होता है. सरकार को इस दौरान बिस्तरों, ऑक्सीजन, वेंटिलेटर आदि की व्यवस्था करनी होती है. अब वो हो पाया या नहीं, इसका पता तो तभी चलेगा जब लॉकडाउन ख़त्म होगा."

अभी क्या हो?

आगे क्या होगा - ये किसी को नहीं पता. लेकिन ये ज़रूर है कि लोग लॉकडाउन से ऊब चुके हैं.

वहीं एक बहुत बड़ा तबक़ा है जिसकी आजीविका पर संकट आ खड़ा हुआ है, वो जल्द-से-जल्द सामान्य ज़िंदगी की ओर लौटना चाहते हैं. मगर वो असमंजस में हैं - क्योंकि संक्रमितों की संख्या लगातार बढ़ रही है.

केशव देसिराजू

केशव देसिराजू कहते हैं कि ये एक असाधारण संकट है, और लॉकडाउन को जारी रखना सरकार के लिए भी बेहद मुश्किल फ़ैसला है.

पर साथ ही वो सरकार को ये सलाह देते हैं, "सारी दिक़्क़तों के बावजूद सरकार को अपने तंत्र को मज़बूत करते रहना चाहिए, केंद्र को ये सुनिश्चित करना चाहिए कि राज्यों के पास पैसे हैं, जिससे वो स्वास्थ्य सेवाओं को और मज़बूत कर सकें. सरकार को अपनी संस्थाओं में पैसा लगाते रहना चाहिए, डॉक्टरों, नर्सों के लिए सुरक्षा की चीज़ें ख़रीदनी चाहिए, अतिरिक्त जगहों पर बेड्स लगाने, जैसे काम करना चाहिए. संकट के इस चरण में ये सुनिश्चित करना सबसे ज़रूरी है."

वहीं प्रोफ़ेसर मावलंकर कहते हैं कि अभी सबसे ज़रूरी है कि जो वृद्ध, बीमार और अशक्त आबादी है, उनके जीवन की रक्षा का इंतज़ाम होना चाहिए.

वो कहते हैं, "लॉकडाउन से वायरस भाग तो नहीं जाएगा. लॉकडाउन खुलने पर केस भी बढ़ेंगे, वो स्वाभाविक है. पर मृत्यु कम हो ये देखना चाहिए."

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English summary
Corona: Why did the lockdown return again, did the previous fail?
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