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बढ़ रही है विज्ञान विषयों में छात्राओं की दिलचस्पी

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नई दिल्ली, 21 जुलाई। धीरे-धीरे ही सही, लेकिन भारत में विज्ञान विषयों में छात्राओं की दिलचस्पी बढ़ रही है. अब स्थिति यह हो गई है कि यहां साइंस, इंजीनियरिंग, टेक्नोलॉजी और मैथेमेटिक्स यानी स्टेम विषयों में महिला ग्रेजुएट्स की संख्या ने अमेरिका, ग्रेट ब्रिटेन और फ्रांस जैसे विकसित देशों को पीछे छोड़ दिया है. भारतीय तकनीकी संस्थान (आईआईटी) और भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम) जैसे संस्थानों में छात्राओं की बढ़ती तादाद भी इसका सबूत है. केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने लोकसभा में बताया कि स्टेम में जहां छात्राओं की तादाद लगातार बढ़ रही है वहीं छात्रों की संख्या में लगातार गिरावट आ रही है.

Provided by Deutsche Welle

भारत में हाल के दशक तक उच्च शिक्षा में महिलाओं की स्थिति बेहद दयनीय थी. खासकर हिंदी भाषी प्रदेशों में तो लड़कियों को किसी तरह ग्रेजुएशन तक की पढ़ाई करा दी जाती थी ताकि शादी में सहूलियत हो सके. ज्यादातर मामलों में पढ़ाई का सिलसिला शादी की मंजिल तक पहुंच कर खत्म हो जाता था. लेकिन अब यह तस्वीर बदल रही है. कुछ प्रतिष्ठित संस्थानों के आंकड़े भी इसकी गवाही देते हैं. मिसाल के तौर पर आईआईएम, कोझिकोड में इस साल पीएचडी में प्रवेश लेने वाले छात्रों में 53 फीसदी यानी आधे से ज्यादा महिलाएं हैं. इसी तरह एमबीए में उनकी तादाद 39 फीसदी है. आईआईएम, अहमदाबाद में अबकी छात्राओं की संख्या पिछले साल के मुकाबले छह फीसदी बढ़ कर 28 फीसदी तक पहुंच गई है. आईआईएम, रोहतक ने तो वर्ष 2021-23 के बैच में 69 फीसदी छात्राओं के साथ एक नया रिकॉर्ड बनाया है.

लड़कियों की दिलचस्पी बढ़ने की वजह

लेकिन आखिर ऐसा क्या हुआ कि छात्राओं की तादाद लगातार बढ़ने लगी. समाजशास्त्रियों की राय में अर्थव्यवस्था की बदलती तस्वीर और समाज के नजरिए में बदलाव इसकी प्रमुख वजहें हैं. इसके साथ ही अब लड़कियों में भी उच्च शिक्षा की महत्वाकांक्षा जोर पकड़ने लगी है. यही वजह है कि आए दिन अखबारों में किसी बेहद गरीब चायवाले और सब्जीवाले की बेटी के आईआईटी, आईआईएम और आईएएस या आईपीएस में चयन की खबरें छपती रहती हैं. पश्चिम बंगाल के मालदा जिले में एक चाय वाले हरिसाधन मंडल की बेटी सुपर्णा मंडल ने हाल में एक अखिल भारतीय प्रतियोगी परीक्षा में शीर्ष दस उम्मीदवारों की सूची में जगह बनाई है. इसी तरह हावड़ा जिले में बसी उत्तर प्रदेश की रिंकी सिंह ने पश्चिम बंगाल सिविल सर्विस की परीक्षा में टॉप किया है.

क्लासरूमों में बढ़ रही है महिलाओं की तादाद

सुपर्णा मंडल ने अपने परिवार में ही नहीं बल्कि पूरे गांव में मिसाल कायम की है. उसने बी.टेक की डिग्री ली है. लेकिन आखिर उसके मन में इंजीनियरिंग का ख्याल कैसे आया? वह बताती हैं, "अब पहले जैसा जमाना नहीं रहा. पहले पति की कमाई से घर चल जाता था. मौजूदा परिदृश्य में यह संभव नहीं है. इसके अलावा आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर होने का सुख अलग है." दरअसल, वह दसवीं पास अपनी बड़ी बहन को शादी के बाद बच्चों और चूल्हा-चौकी में पिसते देख चुकी है. उसके बाद ही उसने उच्च शिक्षा हासिल कर अपने पैरों पर खड़े होने का फैसला किया. आर्थिक रूप से कमजोर होने के बावजूद उसने छात्रवृत्ति के सहारे इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी की और कैंपस प्लेसमेंट में एक आईटी कंपनी में नौकरी भी हासिल की. लेकिन उसे इससे संतोष नहीं हुआ. इसके बाद उसने सरकारी नौकरी के लिए प्रतियोगी परीक्षाएं देने का मन बनाया और दो साल की मेहनत के बाद उसे आखिरकार कामयाबी मिल ही गई.

आर्थिक आत्मनिर्भरता पर जोर

समाजशास्त्री प्रोफेसर हिरण्यमय मुखर्जी कहते हैं, "अब हाल के दशकों में इंटरनेट की पहुंच बढ़ने के बाद एक और जहां सामाजिक नजरिया तेजी से बदला है, वहीं अब छात्राओं को आर्थिक आत्मनिर्भरता की कीमत भी समझ में आने लगी है. यही वजह है कि उनमें खासकर विज्ञान विषयों में करियर बनाने की होड़ लगी है. अब पिछड़े इलाकों की युवतियां भी उच्च शिक्षा या शोध के लिए सात समंदर पार विदेशों का रुख करने लगी हैं." उनके मुताबिक, महिलाओं को विज्ञान विषयों में पढ़ाई के लिए प्रोत्साहित करने के मकसद से शुरू की गई कई स्कॉलरशिप योजनाओं ने भी इस मामले में अहम भूमिका निभाई है.

समाज विज्ञान के अध्यापक दिनेश कुमार माइती बताते हैं, "विज्ञान में अध्ययन और शोध में प्रवेश लेने वाली महिलाओं की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है. यह केवल विज्ञान के कुछ विषयों या देश के कुछ हिस्सों तक ही सीमित नहीं है. पुरुषों की तुलना में उच्च शिक्षा के हर क्षेत्र में लगातार महिलाओं के दाखिला लेने और कामयाबी के झंडे गाड़ने के मामले बढ़ रहे हैं." उनका कहना है कि साठ के दशक में विज्ञान के ज्यादातर विषयों में महिलाओं की गैरहाजिरी को ध्यान में रखें तो मौजूदा स्थिति तक आना सराहनीय उपलब्धि है.

आईआईटी जैसे तकनीकी संस्थानों में महिलाओं की तादाद कम

महिला अधिकार कार्यकर्ता दीपशिखा गांगुली कहती हैं, "पहले समाज में लड़कियों के लिए बहु और मां बनना ज्यादा जरूरी माना जाता था. यह भूमिकाएं गलत नहीं हैं. लेकिन लड़कों के मामले में शुरू से ही करियर और पहचान बनाना अधिक जरूरी माना जाता रहा है. यहीं से तय हो जाता है कि लड़कियां कितना पढ़ेंगी, उनकी पढ़ाई पर कितना खर्च होगा और वे करियर बनाएंगी भी या नहीं."

क्या कहते हैं सरकारी आंकड़े

केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने सोमवार को लोकसभा में पूछे गए एक लिखित सवाल के जवाब में बताया कि वर्ष 2016 में भारत में स्टेम स्नातकों में महिलाओं की भागीदारी जहां 42.72 फीसद थी, वहीं अमेरिका में 33.99, जर्मनी में 27.14, ब्रिटेन में 38.10, फ्रांस में 31.81 व कनाडा में 31.43 फीसद थी. यह परंपरा वर्ष 2017 और 2018 में भी बनी रही जब स्टेम स्नातक महिलाओं का हिस्सा क्रमश: 43.93 व 42.73 था. प्रधान ने उच्च शिक्षा पर अखिल भारतीय सर्वे (एआईएसएचई) का आंकड़ा भी साझा किया है. उसमें बताया गया है कि स्टेम स्नातक पुरुषों की संख्या वर्ष 2017-18 में 12.48 लाख थी जो वर्ष 2019-20 में घटकर 11.88 लाख रह गई. लेकिन इस दौरान महिलाओं की संख्या 10 लाख से बढ़कर 10.56 लाख हो गई.

विज्ञान विषयों में लड़कियों की बढ़ती रुचि के पीछे नौकरी पाने की संभावना की भी भूमिका है. लेकिन जानकारों की राय में विज्ञान विषयों में महिलाओं की तादाद बढ़ाने के लिए अभी और भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है. समाज के दूसरे हिस्सों की तरह शिक्षा और रोजगार में लैंगिक भेदभाव को जड़ से खत्म करने के लिए सामाजिक जागरूकता अभियान चलाना तो जरूरी है ही, ऐसी और योजनाएं भी बनानी होंगी जिनसे इन विषयों में उच्च शिक्षा और शोध की महिलाओं की राह आसान बन सके.

Source: DW

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English summary
education interest of girl students in science subjects in India
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