इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में 1923 से रहा छात्रसंघ, 96 साल बाद अब छात्र परिषद
इलाहाबाद/प्रयागराज। इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में आखिरकार छात्रसंघ खत्म हो गया। अंग्रेजों के समय में 1923 में छात्रसंघ को इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में लागू किया गया था और 96 साल बाद छात्रसंघ का ऐतिहासिक सफर समाप्त हो गया है। देश को राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री समेत सैकड़ों की संख्या में देश की नामचीन हस्तियों के चरित्र जीवन के निर्माण के गवाह रहे छात्रसंघ में जब भी चुनाव हुआ पूरे देश की नजरे यहां रही। और यहां से निकलने वाले पदाधिकारियों ने देश की राष्ट्रीय राजनीति में गहरा प्रभाव छोड़ा। फिलहाल इलाहाबाद यूनिवर्सिट में अब छात्र परिषद अस्तित्व में आ गया है और शनिवार को इसे आधिकारिक रूप से मंजूरी दे दी गयी है। कार्य परिषद की बैठक में इस पर मुहर लगने के बाद रजिस्ट्रार ने नोटिफिकेशन भी जारी कर दिया है। हालांकि छात्र परिषद का बेहद ही कड़े तरीके से छात्रनेता विरोध कर रहे हैं और शनिवार को जब छात्रपरिषद को मंजूरी के लिये प्रशासनिक मीटिंग चल रही थी, तब नेताओं ने जमकर बवाल काटा, जिस पर लाठी चार्ज कर पुलिस ने दर्जनों लोगों को गिरफ्तार किया और स्थिति को नियंत्रित किया।
ब्रिटिश शासन काल में भंग हुआ था छात्रसंघ
इलाहाबाद यूनिवर्सिटी का छात्रसंघ ब्रितानिया सरकार में भी बैन किया गया था। पहली बार 1942 में ब्रितानिया सरकार को छात्रसंघ भंग करना पड़ा था। दरअसल उस समय देश में भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत हुई और अंग्रेजों ने बड़े नेताओं को तत्काल गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया। ऐसे में आंदोलन को धार देने के लिये इलाहाबाद में छात्रसंघ के पदाधिकारियों ने ही कंमान संभाली और अंग्रेजों की चूलें हिला दीं। छात्रशक्ति देखकर अंग्रेजों को एहसास हो गया कि ऐसे में उनका तो इलाहाबाद से शासन ही खत्म हो जायेगा। कई दिनों तक लगातार हजारों छात्रों के सड़क पर उतर कर विरोध करने और जबर्दस्त संघर्ष किए जाने के कारण ब्रिटिश शासकों ने यूनियन को भंग कर दिया था। विवि छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष एवं कांग्रेस के वरिष्ठ नेता श्याम कृष्ण पांडेय बताते हैं कि तत्कालीन दिग्गज छात्र नेता नारायण दत्त तिवारी के नेतृत्व में छात्रसंघ बहाली के लिये आंदोलन शुरू हुआ और आंदोलन के आगे ब्रिटिश हुकूमत को झुकना पड़ा। कुछ समय बाद छात्रसंघ यूनियन को बहाल कर दिया गया।
2005 में भी हुआ था बैन
इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में छात्रसंघ के चलते बवाल और खराब माहौल को देखते हुये वर्ष 2005 में चुनाव बैन कर दिया गया था। उस चुनाव के दौरान जीतने वाले प्रत्याशी द्वारा शैक्षिक रेकॉर्डों में हेरफेर करने पर विरोध में जमकर बवाल हुआ था। जिसके बाद तत्कालीन कुलपति प्रोफेसर राजेंद्र हर्षे ने विश्वविद्यालय में छात्रसंघ व्यवस्था को समाप्त कर दिया था। इसके बाद 7 साल तक छात्रसंघ चुनाव नहीं हुए थे। लंबे आंदोलन के बाद फिर छात्रसंघ का चुनाव हुआ, लेकिन चुनाव ने माहौल को फिर से अराजकता में ढकेल दिया है। जिसके चलते शैक्षिक माहौल अब खत्म हो चुका है और देश की चुनिंदा बेहतर यूनिवर्सिटी में गिना जाने वाला पूरब का आक्सफोर्ड अब अपने सबसे खराब दौर से गुजर रहा है। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में छात्रसंघ को बैन कर छात्र परिषद का मॉडल लागू करने का क्रम 2005 में भी हुआ था। यूनिवर्सिटी में खराब शैक्षणिक माहौल व अराजकता फैलने पर एकेडमिक कौंसिल की बैठक हुई और उसमें निर्णय लिया गया कि छात्रसंघ को समाप्त कर देना चाहिये। हालांकि छात्र परिषद का मॉडल लागू किए जाने के निर्णय का जबर्दस्त विरोध हुआ था। यूनिवर्सिटी कैंपस में लगातार बमबाजी और बवाल के बाद छात्रसंघ का चुनाव बैन कर दिया गया। इस मामले में कई दिग्गज नेताओं ने दुबारा से छात्रसंघ चुनाव के लिये प्रयास किया, जिसमें राहुल गांधी का भी नाम प्रमुख रहा और राहुल गांधी के हस्तक्षेप के बाद वर्ष 2012 में फिर से छात्रसंघ का चुनाव हुआ। हालांकि बीच में 7 साल तक छात्रसंघ का चुनाव बैन रहा था।
शुरुआत में ऐसे होता था चुनाव
इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के छात्रों के संगठन के तौर पर इलाहाबाद विश्वविद्यालय यूनियन की स्थापना वर्ष 1923 में हुई थी। शुरूआत में यह व्यवस्था की गयी थी कि जब छात्र यूनिवर्सिटी में एडमिशन लेता था उसी समय शिक्षा शुल्क के साथ यूनियन का सदस्यता शुल्क भी जमा करा लिया जाता था। यह क्रम लंबे समय तक चलता रहा। सबसे खास बात यह थी कि इस दौरान चुनाव 1 साल के लिये न होकर मात्र 4 महीने के लिये होता था। यानी हर 4 महीने पर नये पदाधिकारी चुने जाते थे। हर चार माह पर चुनाव होता था और इसका क्रम 1923 से लेकर 1937 तक अनवरत चलता रहा। हालांकि इस व्यवस्था में बदलाव की गुंजाइश 1937 के चुनाव के बाद आ गयी और जल्दी जल्दी चुनाव न होने के लिये सहमति बनने के बाद 1938 में हुआ चुनाव 6 महीने की व्यवस्था वाला लागू हुआ। यानी तब सालभर में तीन की जगह सिर्फ 2 चुनाव होने थे और पदाधिकारियों का कार्यकाल 6 महीने का होने लगा। लगभग 15 सालों तक यह व्यवस्था भी निरंतर चलती रही। इस बीच देश आजाद हो गया और आजाद हिंदुस्तान की सरकार में छात्रसंघ को और अधिक मजबूती देने के लिये वकालत शुरू हुई, सिफारिशों के दौर में छात्रसंघ के चुनाव में 1 साल के कार्यकाल के लिये ब्लू प्रिंट तैयार किया गया। 1953 में 6 महीने पर चुनाव की व्यवस्था खत्म हुई और नये शैक्षणिक सत्र यानी 1954-55 में यूनियन के पदाधिकारियों का कार्यकाल एक वर्ष कर दिया गया। इसके बाद 31 अगस्त को प्रतिवर्ष चुनाव की तिथि और एक वर्ष पूरा होने पर 20 जुलाई को निर्वाचित पदाधिकारियों का कार्यकाल समाप्त होने की तिथि निर्धारित की गई। मौजूदा समय में भी 1 साल का ही कार्यकाल था, जो अब छात्रसंघ खत्म होने के कारण इतिहास के पन्नों पर सिमट जायेगा।
छात्रसंघ से ये चमके राजनीत के पटल पर
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रसंघ से जुड़े सैकडों ऐसे पदाधिकारी और नेता रहे जो न सिर्फ राजनीति में आगे बढ़कर बड़ा नाम कमाने में सफल रहे, बल्कि बड़ी संख्या में राष्ट्रीय पटल पर उन्होंने अपनी अमिट छाप छोड़ी है। पूर्व राष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा, पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह, यूपी के पूर्व सीएम गोविंद बल्लभ पंत, पूर्व लोकसभा महासचिव सुभाष सचिव, यूपी के पूर्व सीएम एनडी तिवारी, मध्य प्रदेश के पूर्व सीएम डॉण् कैलाशनाथ काटजू, अर्जुन सिंह, विहिप के अंतर्राष्ट्रीय महासिचव अशोक सिंहल, दिल्ली के पूर्व सीएम मदन लाल खुराना, पूर्व केंद्रीय मंत्री जनेश्वर मिश्र, पूर्व केंद्रीय मंत्री राजमंडल पांडेय समेत सैकड़ों की संख्या में छात्र व छात्र नेताओं ने राष्ट्रीय पटल पर इलाहाबाद यूनिवर्सिटी की साख को बढाया था। यहां से गुच्छों में आईएएस व पीसीएस निकलते रहे। लेकिन अब छात्रसंघ बैन के साथ राजनीति की नर्सरी रहे इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के स्वर्णिम अध्याय का लेखन बंद हो गया है।
छात्रों का हित छोड़कर सबकुछ होता है
चूंकि इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के चुनााव में राजनैतिक पार्टियों के अंदर तक दखल के बाद अब यह चुनाव छात्रों का ना होकर राजनैतिक दलों का हो गया है, यहां अब छात्रों का हित छोड़कर सबकुछ होता है । बीजेपी, कांग्रेस, सपा, बसपा, कम्युनिस्ट हर किसी के समर्थित प्रत्याशी, छात्र संगठन और पैनल तैयार होते हैं और यहीं से छात्रवाद की बजाय जातिवाद की नर्सरी तैयार होने लग रही है। प्रत्याशी का चुनाव प्रसाद सांसद विधायकों के चुनाव से भी अधिक लाइमलाइट में रहता है और सैकड़ों गाडियों का काफिला, धन बल बाहुबल का प्रदर्शन बगैर यहां प्रत्याशी का रुतबा तय ही नहीं होता। चुनाव प्रचार से लेकर, नामांकन और मतदान तक बमबाजी यहां की संस्कृति बन गयी है। दूसरी ओर छात्रसंघ की वजह से लगातार वर्ष के हर दिन बवाल, बमबाजी, फायरिंग, मारपीट, हत्या, अराजकता, गुंडई, कोचिंगों में हफ्ता वसूली और चुनाव के लिये चंदा आदि के नाम पर यूनिवर्सिटी समेत पूरे प्रयागराज शहर को अराजकता की भेंट चढ़ा दिया जाता है। जिसके चलते कैंपस का माहौल पठन पाठन के योग्य नहीं रह गया है और देश की टॉप यूनिवर्सिटी रही इलाहाबाद को अब 200 की सूची तक से बाहर होना पड़ा है। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी की गरिमा को वापस लाने और पूरब के आक्सफोर्ड को फिर से उसका रुतबा लौटाने के लिये अब छात्रसंघ के नाम पर अराजकता फैलााने वाले माहौल को खत्म किया जा रहा है।
क्या
है
सिफारिश
जिस
लिंगदोह
कमेटी
की
सिफारिश
को
आधार
बनाकर
अब
छात्रसंघ
चुनाव
को
खत्म
किया
जा
रहा
है,
उस
शिफारिश
को
सुप्रीम
कोर्ट
ने
खुद
लागू
किया
है।
लिंगदोह
कमेटी
की
सिफारिश
के
क्लॉज
6.1.2
के
अंतर्गत
यह
कहा
गया
है
कि
जहां
विश्वविद्यालय
परिसर
का
माहौल
अशांत
हो
या
शांतिपूर्ण
तरीके
से
चुनाव
की
संभावना
न
हो
वहां
छात्र
परिषद
की
व्यवस्था
की
जाए।
चूंकि
सेंट्रल
यूनिवर्सिटी
बनने
के
बाद
से
इलाहाबाद
विश्वविद्यालय
परिसर
में
ऐसा
कोई
चुनाव
नहीं
हुआ
जब
उपद्रव
ना
हुआ
हो।
अलबत्ता
साल
के
हर
दिन
यहां
अराजकता
का
माहौल
और
बवाल
का
क्रम
जारी
रहता
है।
पिछले
एक
साल
से
तो
लगातार
छात्रनेताओं
की
हत्या
जैसी
घटनाओं
ने
जोर
पकड
लिया
है।
इन्ही
सब
आधारों
पर
हाईकोर्ट
की
सहमति
से
इलाहाबाद
यूनिवर्सिटी
कार्य
समिति
ने
छात्र
परिषद
पर
मुहर
लगाते
हुये
नोटीफिकेशन
जारी
कर
दिया
है
और
अब
आगे
के
वर्षों
में
छात्रसंघ
का
चुनाव
होता
नहीं
दिखेगा।