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क्या मुहम्मद गौरी की सेना में शामिल थे अजमेर दरगाह वाले मोईनुद्दीन चिश्ती?

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अजमेर स्थित ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह और वहां के खादिम अक्सर ख़बरों में छाये रहते हैं। लेकिन सूफी परंपरा के मोईनुद्दीन चिश्ती के बारे में भारत के अधिकांश लोगों को सही जानकारी नहीं है। ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़मोड़ कर चिश्ती के भारत आने और जादुई कारनामे दिखाकर लोगों को प्रभावित करने की झूठी कहानियों से परे जाकर यह जानना जरुरी है कि आखिर सही तथ्य क्या हैं।

Was Ajmer Dargah Moinuddin Chishti included in Muhammad Ghoris army?

कौन थे मोईनुद्दीन चिश्ती?

भारत की सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेम्बली के सदस्य रहे, हर बिलास सारदा 1941 में प्रकाशित अपनी पुस्तक 'अजमेर : हिस्टोरिकल एंड डिस्क्रिप्टिव' में लिखते है, "मोईनुद्दीन का जन्म 1143 में सिस्तान (पूर्वी ईरान और दक्षिणी अफगानिस्तान) में हुआ था। 1156 में इसके पिता गयासुद्दीन की मौत हो गयी और वह 1165 ख्वाजा उस्मान चिस्ती हारुनी का शागिर्द बन गया। ख्वाजा उस्मान चिस्तिया पंथ का अनुसरण करता था इसलिए मोईनुद्दीन ने भी अपने नाम के साथ चिश्ती जोड़ लिया।" (पृष्ठ 83-84) सारदा के अनुसार, चिश्ती ने दो निकाह किये थे। चिश्ती ने दूसरा निकाह अपने निधन से कुछ साल पहले ही किया था।

वह भारत कब आये?

यह एक गलत अवधारणा फैलाई गयी है कि मोईनुद्दीन चिश्ती, भारत पर मोहम्मद गौरी के हमले से पहले से पृथ्वीराज चौहान शासन के दौरान अजमेर में रहते थे। चिश्ती के गौरी के साथ भारत आने का प्रमाणिक इतिहास मिनहाजुद्दीन सिराज द्वारा 1260 में लिखित 'तवकाते नासिरी' में मिलता है। सिराज की इस पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद एक ब्रिटिश इतिहासकार एच.जी. रवार्टी ने 1873 में किया, जिसके पृष्ठ 464-465 पर लिखा है, "सुलतान-ए-गाजी (मोहम्मद गौरी) ने हिंदुस्थान पर हमला करने के लिए इस्लाम की एक सेना बनाई। वह अपनी पिछली हार का बदला लेना चाहता था। मुझे (सिराज) किसी विश्वासपात्र ने तूलक (अफगानिस्तान के घोर प्रान्त में स्थित एक स्थान) के मशहूर आदमी के बारे में बताया था, जिसे मोईनुद्दीन उर्शी के नाम से जानते है। वह कहता है कि वो सुलतान-ए-गाजी (मोहम्मद गौरी) की सेना में शामिल था।" यह मोईनुद्दीन उर्शी ही मोईनुद्दीन चिश्ती थे।

यह गौरी और महाराजा पृथ्वीराज चौहान के बीच तराइन का दूसरा युद्ध (1192) था। इससे पहले 1191 में भी तराइन का पहला युद्ध हुआ था, जिसमें गौरी हार गया था। सिराज की पुस्तक से तो स्पष्ट है कि 1191 में भी गौरी की 'इस्लाम सेना' में मोईनुद्दीन चिश्ती शामिल थे। वर्ष 1929 में प्रकाशित क्षितिमोहन सेन की पुस्तक 'Medieval Mysticism of India' के अनुसार चिश्ती 1193 में दिल्ली में थे, उसके बाद वह पहले पुष्कर गए और आखिर में अजमेर में जाकर बस गए। इस पुस्तक की प्रस्तावना रविन्द्र नाथ टैगोर ने लिखी है। (पृष्ठ 14)

चिश्ती के अजमेर में रहते क्या हुआ?

मोहम्मद गौरी एक तुर्क हमलावर लुटेरा था। उसने अपने गुलाम सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक के साथ मिलकर भारत के कई हिन्दू राजाओं से युद्ध किये। कुछ में उसे हार का सामना करना पड़ा तो कई स्थानों पर जीत भी हासिल हुई। जैसे 1193 में गौरी ने कन्नौज पर हमले का प्रयास किया लेकिन गाहडवाल सेना से हुई इन झडपों में वह हार गया। जिसके बाद उसने फिर से एक संगठित सेना के साथ हमला किया। यह युद्ध कुतुबुद्दीन ऐबक और जयचंद्र के बीच फिरोजाबाद के समीप चन्दावर में हुआ। जिसमें जयचंद्र की आँख में अचानक से तीर लगा और वह पराजित हो गया। इसके बाद तुर्कों ने बनारस तक जाकर लूटपाट मचाई।

गौरी का समकालीन इतिहासकार हसन निजामी 'ताजुल मसिर' में लिखता है कि इस लूट के माल को गौरी 1400 ऊँटों पर लादकर अपने साथ लेकर गया था। (अनुवाद : एच.एम. इलियट, द हिस्ट्री ऑफ इंडिया एज टोल्ड बाय इट्स ओन हिस्टोरियंस, खंड 2, 1869, पृष्ठ 251) यहाँ इन तुर्कों ने 1,000 मंदिरों का विध्वंस किया और उनमें से कुछ के स्थान पर मस्जिदें बनवा दी। (उक्त, पृष्ठ 223) इस हमलें में विश्वनाथ और अविमुक्तेश्वर दोनों मंदिरों का विध्वंस हो गया था। अगले लगभग 50 सालों तक यह मंदिर ऐसे ही जीर्ण-शीर्ण अवस्था में रहे।

चंदरबरदाई के अनुसार तराइन के दूसरे युद्ध (1192) के बाद गौरी पृथ्वीराज चौहान को अपने साथ बंदी बनाकर गजनी ले गया और वहां उनका वध कर दिया था। लेकिन हसन निजामी ने चौहान को पकड़कर अजमेर ले जाने का जिक्र किया है। वह लिखता है कि पृथ्वीराज चौहान को वहां कुछ दिनों तक कैद में रखा गया और बाद में हत्या कर दी गयी। फिर भी निजामी और चंदरबरदाई दोनों के तथ्य कुछ-कुछ मेल खाते है। क्योंकि गौरी अजमेर आया था और उसके बाद वह सीधे दिल्ली न जाकर गजनी लौट गया था।

हसन निजामी ने गौरी के अजमेर में रुकने के सन्दर्भ में लिखा है, "इतनी अधिक लूट और धन प्राप्त किया कि कहा जा सकता है जैसे समुद्रों और पहाड़ियों के गुप्त भंडार मिल गए हो।" (इलियट, पृष्ठ 215) निजामी आगे लिखता है, "उस दौरान उसने मंदिरों के खंभों एवं नींवों को नष्ट कर उनके स्थान पर मस्जिदों तथा मदरसों का निर्माण करवाया और इस्लाम के उपदेश, और कानून के रीति-रिवाजों की घोषणा कर उन्हें स्थापित कर दिया।" (इलियट, पृष्ठ 215)
जैसाकि मिनहाजुद्दीन सिराज ने बताया कि मोईनुद्दीन चिश्ती 1193 के आसपास अजमेर आये थे। वही निजामी भी उसी दौर में गौरी के वहां रहने और मंदिरों के विध्वंस की जानकारी देता है। इसलिए यह पूरी संभावना है कि गौरी के साथ ही चिश्ती अजमेर आये। हालाँकि, जब मंदिरों को तोड़ा जा रहा था तो चिश्ती के द्वारा इन कार्यवाहियों को रोकने की कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। अतः मंदिरों के विध्वंस की मौन स्वीकृति पर प्रश्न खड़ा होना स्वाभाविक है।

ऐसा मानते हैं कि मोईनुद्दीन चिश्ती 1193 से लेकर 1233 में अपने निधन तक अजमेर में रहे। इस कालखंड में वहां कुतुबुद्दीन ऐबक और ऐबक के गुलाम इल्तुतमिश का शासन रहा। मगर अजमेर के हिन्दुओं ने इन तुर्कों की सत्ता को कभी स्वीकार नहीं किया। इसलिए ऐबक और इल्तुतमिश को वहां के हिन्दू राजाओं से लगातार कई युद्ध लड़ने पड़े। इसमें सबसे अधिक वीरता के किस्से पृथ्वीराज चौहान के भाई राजा हरिराज के है। ऐबक को तीन बार हिन्दू राजाओं से युद्ध के लिए अजमेर आना पड़ा।

ऐबक के दूसरे युद्ध के बाद निजामी लिखता है, "इस्लाम को वहां स्थापित किया और मूर्ति-पूजा को जड़ से ही बिलकुल समाप्त कर दिया गया।" (इलियट, पृष्ठ 226) ऐबक की मौत के बाद जब इल्तुतमिश ने कमान संभाली तब भी भारत को तुर्कों से स्वाधीन कराने के भरसक प्रयास जारी थे। आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव अपनी पुस्तक 'दिल्ली सल्तनत' में लिखते है, "ऐबक की मृत्यु के बाद के काल में देशवासियों ने विदेशियों की दासता से अपने को मुक्त करने का जबरदस्त प्रयत्न किया। प्रत्येक स्थान पर राजपूतों ने साहस से काम लिया और तुर्की सूबेदारों को मार भगाने का भरसक प्रयत्न किया।" इल्तुतमिश को अजमेर सहित पूरे राजपूताना के हिन्दू राजाओं से अनेक संघर्ष करने पड़े थे। 1226 से लेकर 1231 तक वो लगातार हिन्दू राजाओं से लड़ता रहा।

उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि हिन्दुओं ने तुर्कों को सिरे से नकार दिया था और वे लगातार उन्हें भारत से भगाने की कोशिश करते रहे। इस दौरान अजमेर सहित अन्य स्थानों पर प्राचीन एवं प्रसिद्द मंदिर तोड़ दिए गए। निजामी ने हिन्दुओं द्वारा जौहर करने का भी उल्लेख किया है। तुर्क हमलावरों के आदेश पर हिन्दुओं पर जबरन इस्लाम थोपा गया। इन विपरीत परिस्थियों में इस बात की संभावना बहुत ही कम है कि अजमेर और उसके आसपास के हिन्दुओं ने मोईनुद्दीन चिश्ती को किसी संत के रूप में स्वीकार किया होगा।

जब तक इस्लाम का केंद्र अरब तक सीमित था तो इस्लाम में कला एवं साहित्य पर एकदम प्रतिबन्ध था। 11वीं सदी के आसपास इस्लाम का विस्तार तुर्कों एवं मंगोलों में होना शुरू हुआ और उसका केंद्र ईरान बन गया। तब यह महसूस किया गया कि यूरोप और भारत के नए मुस्लिम धर्मंतारितों को इस्लाम के करीब लाने के लिए कला एवं साहित्य पर भी जोर देना होगा।

मोईनुद्दीन चिश्ती ईरान से ही आये थे और इस्लाम की गैर-पारंपरिक शैली - सूफी परंपरा को अपनाया था। चूँकि, हिन्दुओं में प्राचीन काल से कला एवं साहित्य के प्रति आकर्षण रहा है इसलिए यह एक संभावना हो सकती है कि इस नाते कुछ हिन्दुओं का चिश्ती से संपर्क स्थपित हुआ होगा। मगर मोईनुद्दीन चिश्ती जीवनभर मुसलमान ही रहे और उन्होंने अपनी सूफी परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए अपने साथ आये ईरान के मुसलमानों को ही अपना शागिर्द चुना। मृत्यु के बाद उनकी कब्र अजमेर में ही बनाई गयी लेकिन वहां ज्यादा लोगों का आना-जाना नहीं रहा।

चिश्ती का सर्वाधिक प्रचार किसने किया?

गौरी के समकालीन इतिहासकारों में से निजामी ने मोईनुद्दीन चिश्ती का कोई जिक्र नहीं किया है। उसका एकमात्र उल्लेख मिनहाजुद्दीन सिराज ने ही किया है। उसके बाद चिश्ती के बारे में प्रमाणिक लेखन सीधे मुगल बादशाह अकबर के कालखंड में इतिहासकारों द्वारा किया गया है। यानि यह स्पष्ट है कि चिश्ती अपने जीवन काल में और उसके बाद सदियों तक अजमेर में न तो बहुत अधिक लोकप्रिय थे और न ही हिन्दुओं ने उन्हें स्वीकार किया।

मोईनुद्दीन चिश्ती के मरने के 267 सालों बाद, 1500 ईस्वी में अजमेर के गवर्नर मल्लू खान ने चिश्ती की पक्की कब्र बनवाई। 1557 में अजमेर पर अकबर का कब्जा हो गया तो उसने वहां कई निर्माण कार्य करवाए। एक प्रकार से उसने अजमेर को अपनी सैनिक छावनी में बदल दिया था। अकबर के समकालीन लेखक अब्दुल कादिर बदायूंनी की पुस्तक 'मुन्तखाब-उत-तवारीख' में बादशाह के कई बार चिश्ती की मजार पर जाने का जिक्र है। उसने मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह को कई गाँव और जमीन मुफ्त में बांटी थी। अतः अकबर द्वारा ही चिश्ती को देशभर में लोकप्रिय बनाया गया।

अकबर का चिश्ती के प्रति लगाव कैसे पैदा हुआ इस पर तो किसी भी इतिहासकार ने नहीं लिखा है। हालाँकि, अकबर की नजर हमेशा से ही राजपूताना, विशेषकर चितौड़ हथियाने पर लगी रहती थी। अजमेर इस राजपुताना का प्रवेश द्वार था इसलिए अकबर ने वहां चिश्ती की मजार को बहुत ज्यादा अहमियत देनी शुरू कर दी। एक बार तो उसने यहाँ तक कहा कि अगर चितौड़ उसके कब्जे में आ जाता है तो वह मोईनुद्दीन चिश्ती की मजार पर इबादत करने जायेगा।

स्वाधीन भारत में चिश्ती की दरगाह का क्या हुआ?

16 अक्टूबर 1936 को सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेम्बली में जियाउद्दीन अहमद द्वारा 'द दरगाह खवाजा साहब विधेयक' पेश किया गया। जिसका उद्देश्य दरगाह के प्रशासन और उसकी जमीनों को नियमित करना था। असेम्बली में इस विधेयक पर एक हिन्दू सदस्य, लालचंद नवलराय को छोड़कर बोलने वाले सभी सदस्य मुसलमान थे। नवलराय ने मुसलमानों को इस विधेयक के लिए बधाई दी लेकिन यह भी कहा कि सिंध सहित भारत के दूसरे स्थानों पर ऐसी कई दरगाह एवं हिन्दू मंदिर है जिन्हें इस प्रकार के कानून की जरुरत है।

1936 में लेजिस्लेटिव असेम्बली और कौंसिल ऑफ़ स्टेट दोनों ने इस विधेयक को अपनी मंजूरी दे दी। फिर स्वाधीन भारत में जनवरी 1948 में दरगाह के प्रशासन पर सुझाव के लिए एक समिति का गठन किया गया। फिर केंद्रीय गृह मंत्री, सरदार पटेल ने 9 मार्च 1950 को दरगाह ख्वाजा साहब (आपातकालीन प्रावधान) विधेयक को प्रोविजनल पार्लियामेंट के समक्ष रखा। यहाँ भी सदन के सदस्य, विश्वनाथ दास ने एक आपत्ति जताई कि सरकार को इस प्रकार के धार्मिक मामलों में नहीं पड़ना चाहिए। सरदार पटेल ने उन्हें समझाया कि यह विधेयक दरगाह की इबादत करने वालों के हित के लिए है।

सरकार का इसमें कोई लाभकारी हित नहीं है। यह विधेयक यहाँ से भी पारित होकर कानून बन गया।
मुस्लिम वक्फ विधेयक 1952 पर बनी संसदीय सेलेक्ट कमिटी ने मार्च 1954 में सुझाव दिया कि अजमेर दरगाह के लिए पहले से ही 1936 और 1950 के कानून पारित हो चुके है। अतः वक्फ के विशेष कानून में दरगाह को शामिल न किया जाये। इस आधार पर 4 अगस्त 1955 को लोकसभा, और 25 अगस्त 1955 को राज्यसभा में दरगाह खवाजा साहब 1955 विधेयक पारित किया गया। हालाँकि, इस बार भी जिन हिन्दू सदस्यों ने चर्चा में हिस्सा लिया, उन सभी का कहना था कि सिर्फ दरगाह ही क्यों, अन्य हिन्दू और मुसलमानों के धार्मिक स्थानों के लिए भी इस प्रकार के विधेयक पारित करने चाहिए।

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(इस लेख में व्यक्त विचार, लेखक के निजी विचार हैं. आलेख में दी गई किसी भी सूचना की तथ्यात्मकता, सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं।)

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