कारसेवकों पर Mulayam Singh सरकार की गोलीबारी: जब खून से लाल हो गयी थी अयोध्या में सरयू नदी
मुलायम सिंह यादव अपने जीवन के 82 साल पूरे करके 10 अक्टूबर को परलोक चले गये। लेकिन भारत में आज भी एक वर्ग ऐसा है जो मुलायम सिंह को सम्मान की दृष्टि से नहीं देखता। मुलायम सिंह यादव के नाम दो ऐसे कुख्यात गोलीकांड दर्ज हैं जो कभी भुलाये नहीं जा सकते।
पहला गोलीकांड 2 नवंबर 1990 का, जब मुलायम सिंह यादव के आदेश पर अयोध्या में निहत्थे रामभक्तों पर गोलियां चली थीं और दूसरा गोलीकांड है उत्तराखंड आंदोलनकारियों पर जब 2 अक्टूबर 1994 को उन्होंने मुजफ्फरनगर के रामपुर तिराहा पर गोलियां चलवा दी थी।
मुलायम सिंह यादव के मुख्यमंत्री रहते इस दोहरे गोलीकांड का असर इतना गहरा है कि आज भी बहुत बड़े वर्ग को उसकी टीस बनी हुई है। इसमें हम चर्चित अयोध्या गोलीकांड को देखते हैं कि आखिर उस दिन अयोध्या में हुआ क्या था?
मुख्यमंत्री की कुर्सी पर मुलायम
राजनीति का यह भी अजीबो गरीब संयोग ही था। मुलायम सिंह यादव उस वीपी सिंह के प्रधानमंत्री रहते उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने जिनके मुख्यमंत्री रहते वो इटावा से साइकिल पर चलकर दिल्ली आये थे। ऐसा किसी रैली के कारण नहीं किया था।
असल में वीपी सिंह ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहते चंबल के डाकुओं के खिलाफ एक अभियान चलाया था। मुलायम सिंह यादव पर आरोप था कि वो डाकू छविराम को संरक्षण दे रहे थे। उन्हें डर था कि उन पर भी पुलिस कार्रवाई न हो जाए, इसलिए पुलिस कार्रवाई से बचने के लिए रातों रात भागकर दिल्ली आ गये थे।
मुख्यमंत्री के रूप में अपने पहले कार्यकाल की दो तिथियां उनके जीवन से ऐसी जुड़ी कि वो मुलायम सिंह यादव से मुल्ला मुलायम हो गये। 30 अक्टूबर और 2 नवंबर 1990 को उन्होंने अयोध्या में कारसेवकों पर खुलेआम गोली चलाने का आदेश दिया था। मुलायम सिंह यादव के आदेश पर हुए इस गोलीकांड में कितने कारसेवक मारे गये इसका सही आंकड़ा कभी सामने नहीं आया।
दिल्ली से लेकर यूपी तक उन्हीं जनता दल वालों की सरकार थी जिन्होंने गोली चलाने का आदेश दिया था। लेकिन उस समय मुलायम सिंह के आदेश पर हुए इस गोलीकांड के बारे में कहा जाता है कि 2 नवंबर को सरयू नदी का पानी कारसेवकों के खून से लाल हो गयी थी।
30 अक्टूबर 1990 और अयोध्या की घेरेबंदी
यूपी में मुख्यमंत्री के तौर पर मुलायम सिंह यादव वीपी सिंह की पसंद नहीं थे। इसलिए प्रधानमंत्री के तौर पर वीपी सिंह जहां बातचीत से अयोध्या में होने वाली कारसेवा को रोकना चाहते थे, वहीं मुलायम सिंह यादव इसे कानून और प्रशासन की सख्ती से रोकने का प्रयास कर रहे थे। दोनों अपने अपने तरीके से अपनी सरकार बचाने का प्रयास कर रहे थे।
विश्व हिन्दू परिषद ने अयोध्या में गर्भगृह निर्माण के लिए रामभक्तों की कारसेवा का ऐलान किया था। 30 अक्टूबर से अयोध्या में कारसेवा शुरु होनी थी।
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मुलायम सिंह यादव को भरोसा था कि कारसेवा को प्रशासनिक सख्ती से रोका जा सकता है। इसलिए उन्होंने पूरे प्रदेश पर पुलिस का पहरा बिठा दिया। प्रदेश की सीमाएं सील हो गयीं और रेलगाड़ियों के आवागमन को भी बाधित कर दिया गया।
फैजाबाद, गोंडा, गोरखपुर, बहराइच सहित चौदह जिलों में कर्फ्यू लागू कर दिया गया। प्रदेशभर में धारा 144 लगा दी गयी। शवयात्राओं में भी 'राम नाम सत्य है' का उच्चारण करने की पाबंदी लगा दी गयी।
इतनी सख्ती के बावजूद कारसेवक अयोध्या और आसपास के जिलों में पहुंचने में कामयाब हो गये। लोगों ने अपने घरों के दरवाजे कारसेवकों के लिए खोल दिये। संघ और विश्व हिन्दू परिषद के कार्यकर्ता ही नहीं, साधु संतों ने बड़ी संख्या में कारसेवकों को ठहराने की व्यवस्था की।
मुलायम सिंह के कठोर आदेश के बावजूद पुलिस प्रशासन में भी कारसेवकों को लेकर नरमी का रुख था। आखिर राम काज के लिए कौन आड़े आना चाहेगा? प्रभु रामचंद्र के जन्मस्थान पर उनका मंदिर बने यह किसकी इच्छा नहीं रही होगी?
लेकिन मुलायम सिंह यादव कारसेवकों को रोकने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते थे। अकेले अयोध्या के आसपास एक लाख पुलिस और अन्य अर्धसैनिक बल के लोग तैनात किये गये। अयोध्या की ओर जानेवाली हर सड़क को सील कर दिया गया था।
30 अक्टूबर को जिस दिन कारसेवा की घोषणा की गयी थी, उस दिन देवोत्थान एकादसी भी थी जब अयोध्या में पंचकोसी परिक्रमा करनेवालों का जमावड़ा होता था।
कारसेवकों को रोकने के लिए मुख्यमंत्री मुलायम ने उस दिन रामभक्तों की पंचकोसी परिक्रमा और अयोध्या प्रवेश पर भी रोक लगा दी थी। हालांकि अदालती आदेश से इस परिक्रमा और अयोध्या प्रवेश से लगी रोक हट गयी और इसी ने 30 अक्टूबर की तिथि को महत्वपूर्ण बना दिया।
अब तक जो कारसेवक नहीं थे, वो भी कारसेवक के रूप में अयोध्या में प्रविष्ट हुए। ये कारसेवक सरयू पुल के दूसरी ओर इकट्ठा हो गये थे।
वो सब अयोध्या नगरी में प्रविष्ट होना चाहते थे। लेकिन सरयू पुल पर पुलिस की गोलीबारी ने उन्हें प्रवेश करने से रोक दिया। इस गोलीबारी में कुछ कारसेवक मारे गये। लेकिन अब भी मामला इतना नहीं बिगड़ा था। लोग इसे प्रशासनिक व्यवस्था मानकर वापस लौटने का विचार कर रहे थे।
लेकिन मामला तब बिगड़ा जब प्रशासन ने मल्लाहों की कुछ नावों को पानी में डुबा दिया ताकि वो कारसेवकों को नदी के रास्ते अयोध्या न पहुंचा पाये। मल्लाहों ने इसे अपने अपमान के बतौर लिया और कुछ कारसेवकों को नदी पार करवा दी।
30 अक्टूबर को कर्फ्यू के बावजूद अयोध्या की गलियां कारसेवकों से भर गयीं। इसमें बाहर से आनेवाले कारसेवकों के अलावा पहले से आश्रमों में रुके कारसेवक भी शामिल थे। जब ये कारसेवक विवादित परिसर की ओर बढने लगे तो उन पर लाठीचार्ज, गोलीबारी करके रोकने का प्रयास किया गया।
लेकिन सरयू पुल पर हुई गोलीबारी से कारसेवक गुस्से में थे और पुलिस प्रशासन की सारी सख्ती के बावजूद बाबरी ढांचे को कारसेवकों ने चारों ओर से घेर लिया। पुलिस से हल्की झड़प के बाद सैकड़ों कारसेवक बाबरी ढांचे के अंदर थे और उस दिन उन्होंने बाबरी ढांचे पर भगवा झंडा लहरा दिया था।
2 नवंबर 1990 और मुलायम सिंह का "बदला"
हालांकि 30 अक्टूबर को हुई कारसेवा अपेक्षाकृत शांतिपूर्ण रही और अर्धसैनिक बलों ने थोड़ी ही देर में कारसेवकों को विवादित परिसर से बाहर भगा दिया। लेकिन अयोध्या से दूर लखनऊ में बैठे सेकुलर मुलायम ने इसे एक चुनौती के रूप में लिया।
तत्काल लखनऊ में दस अफसरों की अगुवाई में एक टीम का गठन हुआ और अयोध्या को कारसेवकों से खाली कराने का आदेश जारी हुआ। विवादित परिसर में कारसेवकों के प्रवेश से जहां रामभक्तों को विजय का अहसास हुआ वहीं मुलायम सिंह यादव ने इसे अपनी राजनीतिक पराजय के रूप में देखा। वो इस पराजय का बदला लेना चाहते थे।
अयोध्या में घटित हो रही घटनाओं के प्रत्यक्षदर्शी रहे जवाहरलाल कौल अपनी पुस्तक "विस्फोट" में लिखते हैं कि "2 नवंबर को स्वामी वामदेव के नेतृत्व में कारसेवकों का एक दल फिर से विवादित ढांचे की ओर बढा। इस बार पुलिस प्रशासन मानों सबक सिखाने के मूड में था। उन्हें रोकने की बजाय कर्फ्यू में ढील देकर भीतर आने दिया गया।"
इससे अयोध्या की गलियां फिर से कारसेवकों से भर गयीं। लोग रामधुन गाते हुए धीरे धीरे आगे बढ रहे थे कि अचानक से गोलियां चलनी शुरु हो गयीं। गोलियां सामने से ही नहीं बल्कि छतों पर बैठे पुलिसवाले भी कर रहे थे। पूरे अयोध्या में उस दिन कारसेवकों पर बंदूकों की नाल खोल दी गयी थी। मानों, उन्हें आज सिर्फ गोलियां चलानी थी और जो कारसेवक जहां मिले उसे जान से मार देना था।
2 नवंबर को ही बीकानेर से आये कोठारी बंधुओं को एक संकरी गली में घेरकर गोली मार दी गयी। यह किसी भी प्रकार से बचाव या रोक की कार्रवाई नहीं थी। स्वाभाविक है, उस दिन मुलायम सिंह यादव 30 अक्टूबर का बदला ले रहे थे। उस वक्त फैजाबाद के डीएम रामशरण श्रीवास्तव ने बयान दिया था कि "मुझे नहीं मालूम गोली चलाने का आदेश किसने दिया था। मेरी तो कोई सुनता ही नहीं।" स्वाभाविक है, गोली चलाने का आदेश सीधे लखनऊ से आया था जिसके सामने जिला प्रशासन बेबस था।
2 नवंबर के बाद अयोध्या में शांति तो आयी लेकिन मरघट वाली शांति आयी। अयोध्या की गलियों से निकली चीख पुकार अगले दिन देश भर के अखबारों में सुनाई दे रही थी।
मुलायम सिंह के गोलीकांड का दिल्ली में एक वर्ग विशेष ने बचाव भी किया लेकिन देशभर में इसका संदेश कुछ दूसरा गया। आज भी वही वर्ग नहीं चाहता कि अयोध्या की उस गोलीबारी कांड का जिक्र मुलायम सिंह के नाम से किया जाए लेकिन जनमानस में आज भी उस निर्मम गोलीकांड की यादें ताजा हैं।
मुलायम सिंह यादव ने हालांकि इस गोलीकांड को अपनी मजबूरी भी बताया लेकिन अयोध्या की गलियों और सरयू नदी को कारसेवकों के खून से लाल कर देने वाले मुलायम सिंह यादव को रामभक्त आज भी माफ नहीं कर पाये हैं।
आज मुलायम सिंह यादव के निधन पर सबसे अधिक शोक दिल्ली से लेकर लखनऊ तक भाजपा नेता ही व्यक्त कर रहे हैं। हो सकता है उनकी राजनीति अब इतनी परिपक्व हो गयी हो कि ऐसी बातों से उनके ऊपर कोई फर्क न पड़ता हो।
लेकिन इसे देख सुनकर निश्चित ही उन कारसेवकों की आत्मा एक बार फिर भाजपा नेताओं की बोलियों से छलनी हो रही होगी जो 30 अक्टूबर और 2 नवंबर की गोलीबारी में अयोध्या से जिन्दा बचकर लौट आये थे।
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