Kashi Tamil Sangamam: उत्तर-दक्षिण के दिलों की दूरियां पाटने का सार्थक प्रयास
Kashi Tamil Sangamam: वाराणसी के सांसद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल पर काशी तमिल संगम के आयोजन को लेकर उत्तर भारत में जहां उत्साह का माहौल है, वहां तमिलनाडु में मिश्रित प्रतिक्रिया देखने को मिल रही है।
तमिलनाडु में करीब 85 साल से जारी उत्तर भारत के विरोध वाली फितरत तमिल वैचारिकी के एक खेमे के दिलों में इतनी गहराई तक उतर चुकी है कि उसे ऐसे हर आयोजन संदिग्ध ही लगने लगते हैं। हिंदी और संस्कृत की बात हो तो तमिल उपराष्ट्रीयता उबाल मारने लगती है। ऐसे कदमों को वह अपनी उपराष्ट्रीयता पर हमले के रूप में प्रचारित करने लगती है। यह बात और है कि अब ऐसी आवाजें मद्धम पड़ने लगी हैं।
काशी तमिल समागम को उत्तर में मिल रहे समर्थन और इसे लेकर दक्षिण की उदारवादी सोच ने आर्य और द्रविड़ की संकल्पना पर सवाल उठाना शुरू कर दिया है। सवाल उठने लगा है कि क्या आर्य द्रविड़ का बंटवारा भारतीयता की अवधारणा में दरार डालने की कोशिश थी?
अगर आर्य और द्रविड़ संस्कृतियां अलग हैं तो प्राचीन काल से द्वादश ज्योतिर्लिंगों के उत्तर भारतीय केंद्रों के दर्शन के लिए सुदूर दक्षिण के लोग क्यों आते रहे? उत्तर भारत का हिंदू श्रद्धालु जब काशी की यात्रा करता है तो जरूरी नहीं कि वह प्रयागराज के पवित्र संगम का भी दर्शन करे। लेकिन दक्षिण का श्रद्धालु जब भी बाबा विश्वनाथ की नगरी में बाबा का दर्शन करने जाता है तो वह अपनी तीर्थयात्रा को संपूर्णता प्रदान करने के लिए प्रयागराज की यात्रा और संगम में स्नान का पुण्यलाभ जरूर लेता है।
प्रयाग में जब भी कुंभ या अर्धकुंभ लगता है, चिर सत्य है कि दक्षिण का श्रद्धालु प्रयागराज के बाद काशी विश्वनाथ के दर्शन के लिए जरूर जाता है। उत्तर और दक्षिण को आर्य और द्रविड़ के तौर पर बांटने के संदर्भ में उठने वाले प्रश्नों का जवाब ही माना जाना चाहिए कि हर साल फाल्गुन मास की महाशिवरात्रि के दिन वाराणसी की गलियां कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु के तीर्थयात्रियों की बसों, कारों और उनके हुजूम से भर जाती हैं।
केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने कहा है कि सरदार वल्लभ भाई पटेल अगर भारत के राजाओं को एक कर उनका विलय सुनिश्चित कर पाये तो इसका श्रेय शंकराचार्य को जाता है। यह आदि शंकराचार्य ही थे जिन्होंने उत्तर से दक्षिण तक भारत को धार्मिक रूप से एक राष्ट्र के रूप में एकीकृत किया।
उन्होंने यह व्यवस्था दी कि उत्तर के केदारनाथ धाम में दक्षिण के ब्राह्मण और दक्षिण के रामेश्वरम में उत्तर के ब्राह्मण बतौर पुजारी नियुक्त होगें। इसी तरह पश्चिम की द्वारका में पूरब के और पूरब की पुरी में पश्चिम के पंडित को बतौर पुजारी रखने की अवधारणा भी दरअसल भारत को जोड़ने और एक रखने का विचार था।
एकीकरण की यह अवधारणा ईसा से कई शताब्दियों पहले से चलती आ रही है। आदि शंकराचार्य का जन्म उसी दौर में माना जाता है। लेकिन अंग्रेजी राज्य के विस्तार के बाद कथित आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के वाहक बने ईसाई मिशनरियों ने भारत को कुछ विचार दिए। शुरूआती दौर में वे विचार स्वीकार्य नहीं हो पाए। लेकिन जैसे-जैसे अंग्रेजी साम्राज्यवाद बढ़ता गया, और उसके सहारे अंग्रेजी शिक्षा पैर फैलाती गई, वैसे-वैसे भारतीयता की अवधारणा पर लगातार चोट बढ़ती गई।
तमिल और संस्कृत का विभेद कथित आधुनिकता की ही देन है। यही ग्रंथि बढ़ते- बढ़ते उत्तर-दक्षिण विभेद के साथ ही भाषायी सोच के संकुचन का आधार बनी। अंग्रेजी शिक्षा का जैसे-जैसे विस्तार होता गया, वैसे-वैसे यह सोच और बढ़ती ही गई।
लेकिन इस सोच में कितनी खोट है, इसका जवाब साल 1995 में दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में आयोजित एक कार्यक्रम में तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त टी एन शेषन के एक कथन से मिलता है। तब उन्होंने कहा था कि उनकी दादी तमिल के अलावा अन्य किसी भाषा का एक शब्द भी नहीं जानती थी। लेकिन वह चारों धाम की यात्रा कर आई।
शेषन ने तब सवाल पूछा था कि जब रेलगाड़ी की इतनी सुविधा नहीं, फोन नहीं, सहूलियतें नहीं, तब भी उनकी दादी का उत्तर भारत के तीर्थों से दर्शन के बाद लौट आना क्या साबित करता है? शेषन भी मूलत: तमिलनाडु के ही थे। अपने इस कथन के जरिए उन्होंने यह साबित किया कि भारत एक ही सांस्कृतिक इकाई रहा है और उत्तर एवं दक्षिण का भेद कभी रहा ही नहीं।
यह सच है कि हिंदी और उसके जरिए उत्तर भारतीय की राजनीति को लेकर दक्षिण, विशेषकर तमिलनाडु की राजनीति सशंकित रही है। लेकिन यह भी सच है कि तमिल राजनेता भी मानते हैं कि अखिल भारतीय छवि के लिए उन्हें उत्तर के साथ ही हिंदी की जानकारी होना जरूरी है। कांग्रेस के ताकतवर नेता के कामराज नेहरू के निधन के बाद प्रधानमंत्री पद के दावेदार के तौर पर उभरे थे। वे तब कांग्रेस के अध्यक्ष थे, लेकिन हिंदी ना बोल पाने की वजह से उन्होंने अपने पैर पीछे खींच लिए थे।
हिंदी के मूर्धन्य विद्वान और सरस्वती पत्रिका के संपादक रहे आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की जन्मस्थली उत्तर प्रदेश के रायबरेली में हाल में ही एक संगम हुआ था। वहां चेन्नई से आए हिंदी विद्वान डॉ.वासुदेवन शेष ने भी एक व्याख्यान दिया था। उन्होंने एक अच्छा सुझाव दिया था। उनका कहना था कि उत्तर के लोग तो हिंदी के विद्वान हैं हीं, लेकिन दक्षिण में भी बहुत लोग हिंदी के गहरे जानकार हैं। ऐसे लोगों को उत्तर भारत में बुलाकर सुना जाना चाहिए, इससे हिंदी को लेकर दक्षिण में बनी संकुचित अवधारणाएं कमजोर पड़ेंगी। भरोसा बहाल होगा और उत्तर- दक्षिण के मध्य नया वैचारिक सेतु विकसित होगा। काशी तमिल संगम इसी सोच का विस्तार लगता है।
तमिल और काशी के बीच सांस्कृतिक संबंधों को लेकर जहां तक ऐतिहासिक तथ्य की बात है तो चोल काल के समय के तमिलनाडु में कई ऐसे शिलालेख हैं, जिनमें वाराणसी की चर्चा है। उत्तर भारत में वाराणसी के अतिरिक्त शायद ही कहीं काशी विश्वनाथ मंदिर हों, लेकिन तमिलनाडु में कई जगहों पर ना सिर्फ काशी विश्वनाथ, बल्कि विशालाक्षी यानी पार्वती के मंदिर मौजूद हैं। तमिलनाडु में काशी नाम का शहर भी है। इतना ही नहीं, वाराणसी में तमिलनाडु के निवासियों की अच्छी-खासी जनसंख्या है।
ऐतिहासिक साक्ष्य है कि 17वीं शताब्दी में शैव कवि कुमारागुरूपरार तमिलनाडु से काशी आये और यहां मठ स्थापित किया। बाद में यह मठ तंजावुर ज़िले में चला गया, लेकिन तमिलनाडु में आज भी वह काशी मठ के नाम से ही प्रसिद्ध है। साफ है कि उत्तर-दक्षिण के बीच सांस्कृतिक जुड़ाव काफी गहरा है।
तमिलनाडु निवासी मशहूर और तेजतर्रार नेता सुब्रमण्यम स्वामी यह कहने से नहीं हिचकते कि दक्षिण में सूरज की किरणें कहीं ज्यादा तीखी होने के कारण वहां के लोगों की त्वचा का रंग गहरा है। अन्यथा जीन उनका उत्तर के लोगों की तरह है। साफ है कि आर्य और द्रविड़ की संकल्पना को यह तथ्य वैज्ञानिक चुनौती देता है।
तमिल और उत्तर के दिलों में किंचित जो दरार है, राजनीति की वजह से जो दूरियां हैं, काशी-तमिल संगम जैसे आयोजन दूर करने में सहायक होंगे। उत्तर भारत ने इस तरफ हाथ बढ़ाया है, ना सिर्फ उसका स्वागत होना चाहिए, बल्कि प्रयागराज-तमिल या प्रयागराज-कन्नड़, हरिद्वार-केरल जैसे तमाम सम्मेलन होने चाहिए, ताकि उत्तर और दक्षिण के दिलों की दूरियों को पूरी तरह पाटा जा सके।
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