कारगिल युद्ध: पाकिस्तानी हमले के जवाब में भारतीय सेना की वीरता और विजय की अंतरराष्ट्रीय सराहना
भारत के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 7 जून 1999 को राष्ट्र के नाम एक संबोधन दिया। प्रधानमंत्री के संबोधन का विषय भारतीय सीमा के अंदर स्थित कारगिल की पहाड़ियों पर पाकिस्तानी सेना की घुसपैठ था। उन्होंने इस हमले को गंभीर स्थिति बताते हुए कहा, "कोई भी देश इस तरह के आक्रमण को सहन नहीं करेगा, कम-से-कम हमारी सरकार तो नही। हमारे सशस्त्र बलों ने पाकिस्तान की सेना को पीछे खदेड़ने के लिए बड़ा अभियान शुरू कर दिया है।" प्रधानमंत्री वाजपेयी ने सेना पर भरोसा जताते हुए आगे कहा, "इस अभियान को हमारे जवान समाप्त करेंगे और सुनिश्चित किया जायेगा कि भविष्य में ऐसा अपघात करने की कोई हिम्मत नहीं करेगा।"
तत्कालीन वाजपेयी सरकार ने कारगिल में पाकिस्तानी हमले का मुंहतोड़ जवाब देने का पक्का इरादा बना लिया था। शुरूआती भारतीय कार्यवाही से ही पाकिस्तान को अपनी हार दिखाई देने लगी इसलिए पाकिस्तान के विदेश मंत्री सरताज अजीज 12 जून 1999 को ही युद्ध समाप्ति की घोषणा के साथ नई दिल्ली पहुंच गए। उन्होंने भारत के समक्ष तीन सूत्रीय प्रस्ताव रखे, (1) युद्ध विराम, (2) नियंत्रण रेखा की समीक्षा और निर्धारण के लिए एक संयुक्त कार्यदल बनाया जाए और (3) आगामी सप्ताह में इसी प्रकार भारतीय मंत्री की पाकिस्तान यात्रा।
लेकिन वाजपेयी सरकार ने इन प्रस्तावों को सीधे ठुकरा दिया। भारतीय विदेश मंत्री जसवंत सिंह ने स्पष्ट शब्दों में पाकिस्तान को बताया कि जब तक पाकिस्तानी सेना भारतीय इलाके से पूरी तरह नहीं हट जाती, तब तक भारत किसी भी परिस्थिति में समझौता नहीं करेगा।
सरताज की असफल भारत यात्रा के बाद पाकिस्तान सरकार युद्ध समाप्ति के दूसरे तरीके ढूंढने लगी। इंडिया टुडे में 26 जुलाई 2004 को छपे नवाज शरीफ के साक्षात्कार के अनुसार वे युद्ध का कैसे भी अंत चाह रहे थे। उन्होंने अमेरिका के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन से भी हस्तक्षेप की गुहार लगाई। नवाज ने पहले क्लिंटन से फोन पर बात की, जिसका कोई समाधान नहीं निकला। नवाज एकदम हतोत्साहित हो गए थे, इसलिए 3 जुलाई को यानि युद्ध के दौरान ही वाशिंगटन पहुँच गए।
राष्ट्रपति क्लिंटन अपनी किताब 'माय लाइफ' में इस यात्रा का विवरण लिखते हैं, "मैंने उन्हें (नवाज़ शरीफ) जोर देते हुए कहा कि वे अमेरिका दो बातों को ध्यान में रखकर आयें, पहला उन्हें अपने सैनिकों को नियंत्रण रेखा से पीछे हटाने पर सहमत होना पड़ेगा और दूसरा, मैं कश्मीर मामले में हस्तक्षेप करने के लिए तैयार नहीं हूँ।"
राष्ट्रपति क्लिंटन ने प्रधानमंत्री वाजपेयी को भी उसी समय अमेरिका आने के लिए निमंत्रण भेजा लेकिन भारतीय प्रधानमंत्री ने सांकेतिक रूप से वहां आने से इंकार कर दिया। अमेरिका और पाकिस्तान के राष्ट्राध्यक्षों की बैठक के बाद एक संयुक्त बयान का प्रारूप बनाया गया। अमेरिकी राष्ट्रपति के विशेष सहायक और उत्तर पूर्व एवं दक्षिण एशिया मामलों के वरिष्ठ निदेशक ब्रूस रिडेल लिखते हैं, "क्लिंटन ने वाजपेयी को फोन किया कि संयुक्त बयान पर हस्ताक्षर होने से पहले वे इसे देख ले।" यह भारत की कूटनीतिक तौर पर बढती हुई साख की एक सुखद तस्वीर थी। स्वाधीनता के बाद अमेरिका ने पहली बार पाकिस्तान का पक्ष न लेकर भारत का मजबूती से समर्थन किया।
वाशिंगटन का इस प्रकार भारत की ओर झुकाव भारत-अमेरिका सम्बन्धों में एक महत्वपूर्ण पड़ाव था। इस बीच प्रधानमंत्री वाजपेयी, सुरक्षा सलाहकार बृजेश मिश्र और थल सेनाध्यक्ष वीपी मलिक के बीच 8 जुलाई को एक बैठक हुई। मलिक अपनी पुस्तक 'कारगिल, फ्रॉम सरप्राइज टू विक्ट्री' में लिखते है, "प्रधानमंत्री ने मुझसे पूछा कि शेष पाकिस्तानी सेना को भागने में कितना समय लगेगा?" मैंने उत्तर दिया कि घुसपैठ मुक्त करने के लिए दो से तीन सप्ताह का समय लगेगा। इसके बाद तीनों सेनाओं के प्रमुखों के बीच कई दौर की लम्बी बातचीत हुई। आखिरकार भारतीय सेना ने पाकिस्तान को पूरी तरह से भारतीय सीमा से खदेड़ दिया। कारगिल के बहादुर सैनिकों के सम्मान में 26 जुलाई को कारगिल विजय दिवस के रूप में मनाया जाता है।
हमले की शुरुआत पाकिस्तान ने की लेकिन अंत भी पाकिस्तान की हार के साथ हुआ। गौरतलब है कि इस हमले के दौरान ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान पूरी तरह से अलग-थलग पड़ गया था। 'द न्यूज' ने 25 जुलाई 1999 को लिखा कि "पाकिस्तान की विश्वसनीयता समाप्त हो चुकी है।" जबकि भारत को अपने सफल सैन्य प्रबंधन के लिए एक जिम्मेदार एवं आत्म-नियंत्रण में सक्षम ताकत माना जाने लगा। (प्रोसीडिंग्स एंड डिबेट्स ऑफ द यूएस कांग्रेस - 29 जुलाई 1999)
कारगिल में जीत के साथ भारतीय सेना ने मानवता एवं युद्ध नियमों के पालन की एक अभूतपूर्व मिशाल पेश की। दरअसल, युद्ध में मारे गए पाकिस्तानी सेना के जवानों के पार्थिव शवों को पाकिस्तान ने लेने से इनकार कर दिया था। ये जवान पड़ोसी देश की 12वीं नॉर्दन लाइट इन्फेंट्री और 165 मोर्टार रेजिमेंट से थे। न्यूयॉर्क टाइम्स के 17 जुलाई 1999 को प्रकाशित अंक के अनुसार भारतीय सेना ने इन जवानों को उनके राष्ट्रीय ध्वज में लपेटकर भारतीय जमीन में दफनाया। सभी शवों के अंतिम संस्कार भी इस्लामिक तरीके से किये गए थे।
पाकिस्तान की हार से वहां आंतरिक तौर पर सेना और सरकार दोनों की आलोचना होने लगी। कारगिल युद्ध के कर्ताधर्ता परवेज मुशर्रफ उन समय आर्मी चीफ थे। उन्होंने सितम्बर 2006 में अपनी पुस्तक 'इन द लाइन ऑफ़ फायर: ए मेमोएर' में स्वयं स्वीकार किया है कि पाकिस्तान सेना की 'उपलब्धियां' उसकी असफलताए हैं।
पाकिस्तान की भूतपूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टों ने 'द न्यूज़' को 22 जुलाई 1999 को बताया, "पाकिस्तान के इतिहास में कारगिल सबसे बड़ी गलती थी। पूरा अभियान पाकिस्तान को महंगा पड़ा। इससे भारतीयों में यह भावना घर कर गयी है कि पाकिस्तान ने उसके साथ विश्वासघात किया है और इस क्षेत्र में शांति प्रक्रिया के दौरान पाकिस्तान नेतृत्व ने धोखा दिया।"
पाकिस्तान के भूतपूर्व वायुसेना प्रमुख, एयर मार्शल नूरखान ने भी 'द न्यूज़' को बताया, "इस अभियान को उचित ठहराने का कोई तर्क नहीं है। पाकिस्तान 1947 से ऐसी गलतियां करता रहा है और अपनी गलतियों से हमने कोई सबक नही लिया, जो हमारे शासक करते आये हैं।"
कारगिल युद्ध ने पाकिस्तान में ऐसे हालात पैदा कर दिए कि वहां सेना और सरकार का एक-दूसरे से विश्वास तक उठ गया। वहां के सभी समाचार-पत्र पाकिस्तान सरकार की आलोचना से भर चुके थे। अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने पाकिस्तान द्वारा युद्ध छेड़ने की निंदा की और भारतीय नीति एवं भारतीय सेना की भूमिका की भरपूर सराहना की।
इसलिए जनरल वीपी मलिक लिखते है, "कारगिल युद्ध भारतीय सेना की रणक्षेत्र में प्रदर्शित वीरता, धैर्य और दृढ़ निश्चय की अतुलनीय गाथा के रूप में भारतीय इतिहास में दर्ज रहेगा। यह महान गौरव और प्रेरणा का प्रतीक बनेगा।"
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