Hate Speech: भड़काऊ भाषणों के बढ़ते मामलों के लिए न्यायपालिका की कमियां भी ज़िम्मेदार!
Hate Speech अर्थात भड़काऊ भाषण के मुद्दे पर माननीय सुप्रीम कोर्ट की सख्ती स्वागत योग्य है, लेकिन इसके कई पहलू हैं, जिन्हें सावधानी से देखे जाने की ज़रूरत है। आज अगर देश में धर्म के नाम पर घृणा का माहौल देखने को मिल रहा है, तो ऐसा लोकतंत्र के सभी अंगों की विफलता के कारण हो रहा है, जिसमें स्वयं न्यायपालिका भी शामिल है।
पिछले कुछ महीनों में हेट स्पीच को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने मीडिया और टीवी एंकरों से लेकर सरकार और पुलिस तक सबको लपेटा है, लेकिन न तो वह न्यायिक विफलता के बारे में बात कर रहा है, न ही वह निष्पक्षता से इस समस्या को देखने की कोशिश कर पा रहा है।
एआईएमआईएम के नेता अकबरुद्दीन ओवैसी को हेट स्पीच के एक स्पष्ट मामले में हैदराबाद की विशेष अदालत द्वारा बरी किया जाना जहां न्यायिक विफलता का स्पष्ट उदाहरण है, वहीं नूपुर शर्मा और मोहम्मद जुबैर के मामलों में जस्टिस एसएन ढींगरा जैसे कई पूर्व न्यायविदों ने स्वयं सुप्रीम कोर्ट के जजों की टिप्पणियों को पक्षपातपूर्ण और गैरज़रूरी माना था।
सुप्रीम कोर्ट की ताज़ा टिप्पणियां भी किसी निष्पक्ष व्यक्ति, संगठन या अधिवक्ता की याचिका पर नहीं आई हैं, बल्कि एक ऐसी एकतरफा याचिका पर आई हैं, जिसमें कहा गया है कि देश में मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाने और उन्हें आतंकित करने की कोशिशें की जा रही हैं। यानी केवल एक ही समुदाय को पीड़ित की तरह प्रोजेक्ट किया गया है, जबकि हिंसा और भड़काऊ बयानबाज़ियों में कथित रूप से यह पीड़ित समुदाय सबसे आगे है।
अर्द्धसत्य पर आधारित इस याचिका को दायर करने वाले सज्जन हैं शाहीन अब्दुल्ला और उनके पैरवीकार वकील हैं कपिल सिब्बल, जो पहले कांग्रेस के नेता रहे और अब समाजवादी पार्टी के नेता हैं।
सवाल है कि क्या अर्द्धसत्य पर आधारित तथ्यों और दलीलों वाली इस तरह की एकपक्षीय याचिका को सुनकर सांप्रदायिकता और हेट स्पीच जैसे संवेदनशील मामलों में निष्पक्षतापूर्वक सही निष्कर्ष और समाधान तक पहुंचना संभव है?
हेट स्पीच के मामलों से सख्ती से निपटा जाना चाहिए, इस बात से रत्ती भर भी इनकार नहीं किया जा सकता। लेकिन जब मीडिया रिपोर्ट्स में न्यायपालिका द्वारा यह कहा गया बताया जाता है कि "हमने ऐसी स्थिति पहले नहीं देखी" तो हैरानी होती है।
सत्य और तथ्य से परे ऐसी टिप्पणियां उस देश में की जा रही हैं, जिस देश का धर्म के नाम पर लाखों बेगुनाह लोगों के कत्लेआम के उपरांत विभाजन तक हो चुका है और जिस देश के उत्तरी राज्य जम्मू और कश्मीर में धर्म के नाम पर ही कश्मीरी पंडितों का जातीय सफाया करने की कोशिशें तक की जा चुकी हैं। इसके फलस्वरूप विस्थापित हुए लाखों लोगों को आज 32 साल बाद भी वापस बसाया नहीं जा सका है।
धर्म के नाम पर ही इस देश ने संसद और लाल किले से लेकर अनेक शहरों, बाज़ारों, मंदिरों, मस्जिदों, होटलों, रेलवे स्टेशनों, बसों, रेलगाड़ियों इत्यादि पर ऐसे-ऐसे आतंकवादी हमले भी झेले हैं, जिनमें हज़ारों बेगुनाह लोगों की जानें गई हैं। हैरानी की बात यह भी है कि आज़ाद भारत में जिस समुदाय की आबादी सबसे तीव्र गति से बढ़ी है, उसे ही एकतरफा तरीके से पीड़ित बताने का छद्म रचा जा रहा है।
ऐसे में न्यायपालिका को भी यह सुनिश्चित करना होगा कि सांप्रदायिकता और हेट स्पीच जैसे संवेदनशील मामलों में राजनीतिक मकसद वाले लोग उसका या उसकी टिप्पणियों और फैसलों का इस्तेमाल अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए न कर सकें। साथ ही, उसे पूरी तरह से निष्पक्ष रहते और दिखते हुए बिल्कुल व्यावहारिक समाधान पेश करने होंगे।
खबरों के मुताबिक, सुप्रीम कोर्ट ने हेट स्पीच को रोकने की ज़िम्मेदारी काफी हद तक पुलिस पर डाल दी है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि बिना शिकायत या एफआईआर दर्ज हुए भी वह हेट स्पीच के मामलों में स्वतः संज्ञान लेकर त्वरित कार्रवाई करे। सवाल है कि क्या बिना शिकायत या बिना एफआईआर के पुलिस द्वारा अपने विवेक से किसी को भी उठा लिया जाना एक किस्म की अराजकता को जन्म नहीं देगा?
क्या माननीय सुप्रीम कोर्ट को इस बात का अंदाज़ा है कि इनमें कितनी कार्रवाइयां सही होंगी, कितनी कार्रवाइयां सत्तारूढ़ दलों के राजनीतिक हितों को साधने के लिए की जा सकती हैं और कितनी कार्रवाइयां स्वयं पुलिस के लोग उत्पीड़न और वसूली के मकसद से कर सकते हैं?
फिर यह भी सवाल है कि क्या पुलिस न्याय करने में सक्षम प्राधिकरण बन गया है? अगर वाकई पुलिस ऐसा करना शुरू कर दे, तो अदालतों में केवल हेट स्पीच के ऐसे कितने सारे मामलों की बाढ़ आ जाएगी?
फिर जब मामला अदालतों में आएगा, तो क्या गारंटी है कि वहां एआईएमआईएम नेता अकबरुद्दीन ओवैसी की तरह अन्य अनेक लोगों को भी बरी नहीं कर दिया जाएगा? क्या अकबरुद्दीन ओवैसी जैसे मामलों में न्यायपालिका की भी जवाबदेही सुनिश्चित किये बिना सुप्रीम कोर्ट कोई समाधान प्रस्तुत कर सकता है?
अकबरुद्दीन ओवैसी पर 2012 के भड़काऊ भाषण पर लोअर कोर्ट का फैसला 10 साल बाद 2022 में आया, वह भी त्रुटिपूर्ण। सोचने की बात है कि ऐसे मामलों के सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचते-पहुंचते और न्याय होते-होते न जाने कितने दशक लग जाएंगे। क्या इस तरह की लेट-लतीफी और ढिलाई से हेट स्पीच जैसे गंभीर अपराधों को रोका जा सकता है?
यहां यह बात भी गौर करने लायक है, कई मामलों में स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने ही पुलिस को निर्देशित किया है कि शिकायत या एफआईआर दर्ज किये जाने के बाद भी मामले की ठीक से छानबीन किये बिना किसी की गिरफ्तारी न हो। एससी-एसटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट का 2018 का फैसला इसका उदाहरण है, जिसे दलित समुदाय के विरोध के बाद केंद्र सरकार ने पलट दिया था। लेकिन हेट स्पीच के मामले में वही सुप्रीम कोर्ट कह रहा है कि शिकायत हो न हो, एफआईआर हो न हो, स्वतः संज्ञान लेकर तुरंत कार्रवाई कीजिए।
क्या इस तरह के विरोधाभासी निर्देशों, टिप्पणियों और फैसलों की बजाय न्यायपालिका को व्यावहारिक रुख नहीं अपनाना चाहिए? क्या सुप्रीम कोर्ट को लगता है कि इस देश की पुलिस वाकई इतनी सक्षम, ईमानदार, स्वतंत्र और निष्पक्ष है कि उसके कंधों पर स्वविवेक का झोला भी टांग दिया जाए?
यदि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है और सुप्रीम कोर्ट पर देश के संविधान की रक्षा की ज़िम्मेदारी है, तो स्वयं सुप्रीम कोर्ट भी एक ऐसा तंत्र क्यों विकसित नहीं करता, जिसकी सहायता से ऐसे मामलों में वह खुद भी स्वतः संज्ञान लेकर कार्रवाई कर सके? सुप्रीम कोर्ट तो वह सक्षम प्राधिकरण है, जो सरकार और पुलिस को नोटिस भी जारी कर सकता है, निर्देश भी दे सकता है और सुनवाई करके त्वरित न्याय और फैसले भी कर सकता है।
इसकी बजाय देश में हेट स्पीच देने वाले को पकड़ने के लिए हर आदमी के पीछे पुलिस कॉन्सटेबल छोड़ देने से क्या हासिल होगा? आवश्यकता तो है शीर्ष पर बैठे लोगों के हेट स्पीच को पकड़ने की, जो देश का माहौल खराब करने में अग्रणी भूमिका निभाते हैं।
अगर शीर्षस्थ लोगों के खिलाफ कार्रवाइयां होने लगेंगी, तो नीचे के लोग तो खुद ही हेट स्पीच बंद कर देंगे। क्या सुप्रीम कोर्ट स्वयं भी एक ऐसा मॉनिटरिंग सेल नहीं बना सकता, जो मेनस्ट्रीम मीडिया में आने वाले नेताओं के बयानों की संविधान के आईने में समीक्षा करे और उसके असंवैधानिक पाए जाने की स्थिति में स्वतः संज्ञान लेकर कार्रवाई करे?
लोकतंत्र के दूसरे स्तंभों से ज़िम्मेदारी की अपेक्षा करना अच्छी बात है, लेकिन सवाल यह है कि न्यायपालिका स्वयं भी अधिक ज़िम्मेदारी से काम करने के लिए क्या कदम उठा रही है?
(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)