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Caste Politics in Bihar: जातीय उन्माद के सहारे राजनीति चमकाने की कोशिश

बिहार की राजनीतिक पार्टियां असमय चुनावी मोड में चली गई हैं। लेकिन इसके लिए उन्होंने जनता के जरूरी मुद्दों को नहीं, जातीय उन्माद, सामाजिक ध्रुवीकरण को ही अपना प्रमुख औजार बना लिया है।

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Caste Politics in Bihar infighting between the parties leaders of Nitish govt formed by alliance

Caste Politics in Bihar: सात दलों के गठबंधन से बनी बिहार की नीतीश सरकार ने साल भर भी पूरा नहीं किया है, लेकिन पार्टियों के बीच अंतर्कलह, अविश्वास, अस्त-व्यस्तता सातवें आसमान पर है। राज्य की मौजूदा विधानसभा का कार्यकाल अभी करीब तीन साल बचा हुआ है, लेकिन ऐसा आभास होता है जैसे हर पार्टी चुनाव की आपात तैयारी में जी-जान से जुट गई है।

नेताओं के बयान, आचरण, कार्यक्रमों को देखकर कहीं से नहीं लगता कि सरकार के कार्यकाल को लेकर वे किसी तरह आश्वस्त हैं। मुख्य सत्ताधारी दल मसलन राजद और जद-यू के नेताओं द्वारा जिस प्रकार भड़काऊ बयान दिए जा रहे हैं, उससे स्पष्ट है कि पार्टियों का ध्यान सरकार चलाने पर कम, अगले चुनाव के लिए वोट बैंक बनाने पर अधिक है। इसे हाल के दिनों में विभिन्न नेताओं के द्वारा दिए गए विभिन्न आपत्तिजनक भड़काऊ बयानों से समझा जा सकता है।

डॉ चंद्रशेखर नीतीश सरकार में राजद के कोटे से शिक्षा मंत्री हैं। उन्होंने नालंदा ओपन यूनिवर्सिटी के दीक्षांत समारोह में बतौर अतिथि छात्र-छात्राओं को संबोधित करते हुए कहा, 'रामचरित मानस समाज में दलितों-पिछड़ों और महिलाओं को पढ़ाई से रोकता है। उन्हें उनका हक दिलाने से रोकता है। यह समाज में नफरत फैलाने वाला ग्रंथ है।' इस बयान पर राज्य के अंदर और बाहर कई दिनों तक भारी प्रतिक्रिया देखने को मिली। लेकिन मंत्री अपने बयान पर कायम रहे, इसे जातीय रंग देते रहे, लेकिन राजद प्रमुख की ओर से न तो कोई प्रतिक्रिया आई, न ही शिक्षा मंत्री पर कोई कार्रवाई हुई। इसके कुछ ही दिन बाद राजद कोटे के ही एक और मंत्री आलोक मेहता ने जातीय उकसावे का बयान दिया।

उन्होंने एक जनसभा को संबोधित करते कहा, 'जिन्हें आज दस फीसदी में गिना जाता है वे पहले मंदिर में घंटी बजाते थे और अंग्रेजों के दलाल थे।' इस पर काफी विवाद हुआ और इसे सवर्ण समाज के खिलाफ दिया गया बयान माना गया। लेकिन भारी आलोचना के बावजूद राजद नेतृत्व की ओर से इस पर भी न तो कोई खंडन आया न ही मंत्री पर कोई कार्रवाई हुई। बल्कि कुछ ही दिन बाद 2 फरवरी को पूर्व समाजवादी नेता जगदेव प्रसाद (जिन्हें पिछड़े वर्गों का प्रसिद्ध राजनीतिक मसीहा माना जाता है) की जयंती पर आलोक मेहता ने बयान में और विस्तार किया। उन्होंने जगदेव प्रसाद के नारे को याद दिलाते हुए लोगों से अपील की, 'दस का शासन नब्बे पर नहीं चलेगा... सौ में नब्बे हमारा है, वोट हमारा राज तुम्हारा, नहीं चलेगा, नहीं चलेगा...'

वैसे तो इस तरह के उन्मादी बयान की इन दिनों बिहार में झड़ी लगी हुई है और छोटे स्तर के नेताओं को ऐसी बयानबाजी करने की पूरी छूट दे दी गई है। लेकिन इसके पीछे की राजनीति को समझने के लिए दोनों मंत्रियों के बयानों का विश्लेषण किया जा सकता है। सवाल है कि किसी विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में धर्म ग्रंथ की अनावश्यक समीक्षा का क्या तुक है? न तो वहां किसी धार्मिक शास्त्रार्थ का कार्यक्रम था और न ही मंत्री डॉ चंद्रशेखर की पहचान धर्म शास्त्र के ज्ञाता के रूप में है? स्पष्ट है कि उन्होंने सोची-समझी रणनीति के तहत यह बयान दिया, ताकि हिंदुत्व की ओर उन्मुख हो रही पिछड़ी जाति के वोटर को वापस जातीय लाइन पर ध्रुवीकृत किया जाए।

आलोक मेहता के बयान को लें तो सभी जानते हैं कि बिहार की सत्ता की कमान पिछले 33 वर्षों से पिछड़ी जातियों के नेताओं के हाथ में है। मुख्यमंत्री, उप-मुख्यमंत्री समेत विधानसभा से पंचायती राज तक के प्रमुख राजनीतिक पदों पर पिछड़े वर्गों का स्पष्ट प्रभुत्व है। इसके बावजूद दशकों पुराना 'वोट हमारा, राज तुम्हारा' जैसे सवर्ण समुदाय की ओर इंगित आक्रामक नारे लगवाने का क्या अर्थ है? सिवाय इसके कि हिंदू समाज में लगातार कमजोर पड़ रहे अगड़ा-पिछड़ा ध्रुवीकरण में नई जान फूंकी जा सके और भाजपा की ओर जाने वाले संभावित पिछड़े वर्गों के वोट को अपनी ओर मोड़ा जा सके।

इस राजनीति में भले ही आम लोगों की कोई दिलचस्पी नहीं है, लेकिन भाजपा की ओर से भी जवाबी हमला शुरू कर दिया गया है। भाजपा ने ऐसे बयानों का काउंटर करने के लिए पिछड़ी जातियों के अपने नेताओं को मोर्चा पर लगा दिया है। बिहार विधान परिषद के नेता प्रतिपक्ष सम्राट चौधरी ने जवाबी बयान में कहा, 'बिहार के माहौल को विषाक्त कर वोट की फसल काटने की तैयारी की जा रही है। मंत्री आलोक मेहता का जातीय विद्वेष से भरा हुआ बयान हो या शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर यादव का रामचरितमानस पर दिया गया विवादित बयान और जदयू एमएलसी गुलाम रसूल बलियावी का शहरों को कर्बला बना देने वाला भड़काऊ बयान। ये सभी बिहार के माहौल को विषाक्त बना रहे हैं।'

यहां एक स्वभाविक सवाल उठता है कि आखिर राज्य की सत्तारुढ़ पार्टियां इतनी विचलित क्यों हैं? खासकर तब जब प्रदेश में उनकी सरकार चल रही है। जब विपक्ष में रहते हुए वे इतने असंयत नहीं थे तो सत्ता में आने के बाद आपात चुनावी मोड में क्यों चले गए हैं?

दरअसल, यह सब अकारण नहीं है। इसकी वाजिब वजहें हैं। नीतीश कुमार के रणनीतिक प्रयास से राज्य में महागठबंधन की सरकार तो बन गई, लेकिन दिल नहीं मिले। जद-यू और राजद के साथ सात दलों का गठबंधन भले हो गया, जमीनी स्तर पर कार्यकर्ता एक दूसरे से दूर हैं। दोनों दलों के विधायक भ्रम में हैं। राजधानी पटना में भी सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। जानकार मानते हैं कि नीतीश कुमार ने जब से महागठबंधन के नेता के रूप में सीएम की कुर्सी संभाली है, उनकी अपनी राजनीतिक चुनौतियां लगातार बढ़ती चली जा रही हैं।

पहले जद-यू के दिग्गज नेता और पूर्व पार्टी अध्यक्ष आरसीपी सिंह ने नीतीश कुमार के खिलाफ बगावत की। पार्टी से हटने के बाद वे लगातार नीतीश कुमार पर हमलावर हैं। पिछले कुछ दिनों से नीतीश के पुराने सहयोगी उपेंद्र कुशवाहा नीतीश की पोल खोल रहे हैं। उधर राजद कोटे के पूर्व मंत्री सुधाकर सिंह भी लगातार नीतीश कुमार की नीतियों को चुनौती दे रहे हैं। ऐसा माना जा रहा है कि ऐसी परिस्थिति में गठबंधन की सभी पार्टियां और विधायक भारी संशय में हैं।

नीतीश कुमार का आगामी रूख क्या होगा, वे कब तक गठबंधन में रहेंगे या गठबंधन को एकजुट रख सकेंगे, इसे लेकर भ्रम की स्थिति है। चूंकि भाजपा की ओर से सरकार बनाने की किसी कूटनीति का संकेत नहीं दिख रहा है। ऐसा कहा जा रहा है कि भाजपा अपनी सरकार बनाने से अधिक प्रयास जमीनी स्तर पर अपनी पकड़ बनाने के लिए कर रही है। तो इसी काल्पनिक भय में सभी पार्टियां अभी से भाजपा से निपटने की तैयारी में लग गई हैं।

ऊपरी तौर पर भले राजद नेतत्व स्वयं को संयत दिखा रहे हैं, लेकिन अंदरुनी स्तर पर राजद नेतृत्व से अधिकतर राजद विधायक संतुष्ट नहीं हैं। इसके अपने कारण हैं। जानकार मानते हैं कि नीतीश कुमार ने अभी तक सत्ता की असली बागडोर से आरजेडी को दूर रखा है। मुख्यमंत्री ने उन बोर्ड, निगमों और आयोगों के पदों को भी नहीं भरा है, जिनमें आरजेडी अपने नेताओं को जगह दिला सके। उन्होंने अति-पिछड़ा आयोग का गठन किया, लेकिन आरजेडी नेताओं को जगह नहीं दी।

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कुल मिलाकर बिहार की राजनीति अभूतपूर्व संशय, दांव-पेंच, अनिश्चितता से दो-चार है। इसका तात्कालिक असर सरकार के प्रशासनिक क्रिया-कलाप पर स्पष्ट दिखने लगा है और दूरगामी प्रभाव भी निराशाजनक ही प्रतीत होता है।

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(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं। लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)

English summary
Caste Politics in Bihar infighting between the parties leaders of Nitish govt formed by alliance
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