यूपी चुनाव के लिए समाजवादी पार्टी की रणनीति क्या है, 5 प्वाइंट में समझिए
लखनऊ, 17 जून: उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में तकरीबन 8 महीने ही बाकी हैं। सत्ताधारी भाजपा समेत मुख्य विपक्षी समाजवादी पार्टी भी इसके लिए कमर कसने लगी है। जहां तक बहुजन समाज पार्टी का सवाल है तो उसके अंदर ही ऐसा घमासान मचा है कि उसके थमने के बाद ही हाथी किस करवट लेकर उठेगा इसका अंदाजा लग पाएगा। बीजेपी में तो कोरोना की दूसरी लहर के ठहरने के साथ ही लखनऊ से लेकर दिल्ली तक भागम-भाग मच चुकी है। सक्रिय सपा और उसके अध्यक्ष अखिलेश यादव भी हो चुके हैं। पिछले दो चुनावों में मिली सबक के बाद भी वो न संभले तो बुजुर्ग हो चुके पार्टी संस्थापक मुलायम सिंह यादव के भरोसे कब तक रहेंगे! इसलिए पार्टी अबकी बार कोई जोखिम लेने को तैयार नहीं है। रणनीति तय हो चुकी है, बस उसके मुताबिक चुनावी बिसात पर गोटी बिछाने की तैयारी है।
शिवपाल के मोर्चे पर चुनौती खत्म!
अखिलेश यादव के करीबी समाजवादी पार्टी के नेताओं और विधायकों की मानें तो इस चुनाव में मुकाबला भारतीय जनता पार्टी और मुख्य विपक्षी समाजवादी पार्टी के बीच ही रहने वाला है। पार्टी के रणनीतिकार इसके पांच कारण मान कर चल रहे हैं। कुछ सपा नेताओं ने न्यूज18 से जो कुछ कहा है, उसके मुताबिक; पहला, मुलायम परिवार में 5 साल पहले वाले हालात नहीं हैं। अखिलेश के चाचा शिवपाल सिंह यादव ने भी अपनी सियासी जमीन की थाह पा ली है। वह 2017 की तरह भतीजे को निपटाने वाले मूड में नहीं हैं। अखिलेश भी उनकी पार्टी को सपा में विलय कराने को नहीं कह रहे हैं। हाल ही में सपा अध्यक्ष कह भी चुके हैं कि वह चाचा की पार्टी के साथ मिलकर काम करना चाहते हैं और जसवंतनगर में और संभव हुआ तो कुछ और सीटों पर उनके लोगों के खिलाफ टिकट नहीं देंगे।
Recommended Video
कमजोर हुआ बसपा का 'हाथी' ?
दूसरा, बसपा की जो स्थिति दिख रही है, उससे सपा के रणनीतिकार शायद यह मानकर चल रहे हैं कि वह मुसलमानों को यह समझाने में कामयाब रहेंगे कि बीजेपी को हराने के लिए मैदान में अकेले वही हैं। बसपा से निकाले गए 5 विधायकों ने जो अखिलेश से मुलाकात कर आए हैं, उनमें भी मुसलमान हैं। वह यही शिकायत कर रहे हैं कि 'बहनजी' की पार्टी को राज्यसभा सांसद सतीश चंद्र मिश्रा तबाह कर रहे हैं। मतलब, भले ही असदुद्दीन ओवैसी दौड़-दौड़ कर यूपी आ रहे हों और प्रियंका गांधी वाड्रा ट्विटर-ट्विटर खेल रही हों, बिहार में राजद की तरह सपा अबकी बार फिर से यूपी में खुद को मुस्लिम वोट की सबसे मजबूत दावेदार समझ रही है।
कोरोना से बिगड़ेगा बीजेपी का खेल ?
तीसरा- पार्टी यह मानकर भी चल रही है कि कोविड की दूसरी लहर में लोगों ने जो भुगता है, उसके बाद बीजेपी सरकार के खिलाफ लोगों में जबर्दस्त गुस्सा है और इसे भुनाने के लिए सपा के पास बेहतर मौका है। ऊपर से वह यह भी मानकर चल रही है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की वजह से भाजपा के अंदर भी 'राजपूतों' के खिलाफ एक नाराजगी महसूस की जा सकती है। मसलन, पिछले चुनाव में बीजेपी ने किसी को सीएम का चेहरा पेश नहीं किया था। वह पांच बड़े चेहरों को उतारकर जाति समीकरण साधने में सफल हो गई थी। लेकिन, इसबार योगी मैदान में हैं, जिसके चलते गैर-ठाकुर अगड़ी जातियों से भी सपा को फायदा मिल सकता है। ऊपर से भाजपा के करीब 320 विधायक हैं और सबको टिकट दोहराना मुमकिन नहीं है तो हो सकता है कि कुछ साइकिल की सवारी करने में भी गुरेज नहीं करेंगे।
विकास के मोर्चे पर योगी सरकार को घेरने की कोशिश
चौथा, पिछले चुनाव में समाजवादी पार्टी ने अखिलेश के कार्यकाल के दौरान हुए विकास कार्यों की बदौलत 'काम बोलता है' का नारा दिया था। लेकिन, वोटरों ने अखिलेश यादव और कांग्रेस नेता राहुल गांधी की जोड़ी की वाट लगा दी। अब समाजवादी पार्टी इस रणनीति पर बढ़ना चाहती है कि उसके मुताबिक योगी सरकार विकास के मोर्चे पर सफल नहीं रही है, जिसका फायदा भी वह ले सकती है। लेकिन, इस मामले में सपा के सामने सबसे बड़ी चुनौती उसके पिछले कार्यकाल का रिकॉर्ड है, जब यूपी में कानून-व्यवस्था की स्थिति बेहद खराब थी। ऊपर से उसपर भ्रष्टाचार के भी कई गंभीर आरोप लगे थे। जबकि, इन दोनों मोर्चों पर योगी सरकार हालात बदलने का दावा करती है और सीएम योगी आदित्यनाथ पर भ्रष्टाचार के कोई आरोप भी नहीं है। ऊपर से गुंडों और माफियाओं को मिटाने के नाम पर भी उन्होंने एक मजबूत छवि बनाई है।
इसे भी पढ़ें-UP Assembly Election 2022: BSP -BJP के बागियों पर अखिलेश की नजर, बोले सबका स्वागत होगा
पिछले दो चुनावों से लिया सबक
पांचवां, अखिलेश यादव ने 2017 में कांग्रेस के साथ गठबंधन किया था और 2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा के साथ, लेकिन उसे दो-दो बार सबक मिल चुका है। अब पार्टी ऐसी सियासी गलती नहीं दोहराना चाहेगी। वह बड़े दलों की बजाए जाति आधारित छोटी-छोटी पार्टियों से जरूर तालमेल करना चाहती है, जो कि बीजेपी की भी स्ट्रैटजी रही है। पार्टी यह भी उम्मीद लगाए बैठी है कि 2019 में मायावती के साथ आने का फायदा उसे अब ये मिल सकता है कि जो दलित वोटर उससे ढाई दशकों तक अलग रहे थे, उनमें अब समाजवादी पार्टी के लिए उस तरह की नफरत वाली भावना नहीं रह गई है।