यूपी में हार भी गए तो 2019 के लिए मोदी के मुकाबले खड़े होंगे अखिलेश
सपा में मचे घमासान के बीच अखिलेश यादव देश की राजनीत में बड़े नेता के रूप में उभर सकते हैं, 2017 में चुनाव हारने के बाद भी वह केंद्र में बना सकते हैं अपनी जगह
लखनऊ। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया, मुलायम के इस फैसले के बाद अखिलेश की भविष्य की योजना को बड़ा झटका लगा है। वर्ष 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव के मद्देनजर अखिलेश यादव अपनी नजर बनाए थे, इस बीच जिस तरह से सपा के भीतर घमासान मचा है उसने उनकी महत्वाकांक्षा को त्वरित झटका तो दिया है, लेकिन अखिलेश यादव के लिए यह बड़ा मौका है जब वह खुद को स्थापित करके एक बड़े नेता के तौर पर उभर सके।
मोदी
के
समकक्ष
पहुंचते
अखिलेश
देश
में
जिस
तरह
से
प्रधानमंत्री
नरेंद्र
मोदी
का
उदय
हुआ
उस
वक्त
अखिलेश
यादव
ने
अपनी
अलग
छाप
बनाने
में
सफलता
हासिल
की
है,
लिहाजा
यूपी
की
80
लोकसभा
सीटों
पर
अखिलेश
यादव
अपनी
पैठ
को
मजबूत
करने
की
पूरी
कोशिश
करेंगे
और
अगले
ढाई
वर्षों
में
वह
खुद
को
राष्ट्रीय
स्तर
के
नेता
के
तौर
पर
स्थापित
कर
सकते
हैं।
ऐसे
में
केंद्र
की
राजनीति
में
उभरने
का
अखिलेश
यादव
के
सामने
बड़ा
मौका
है।
इस
वर्ष
एक
तरफ
जहां
प्रधानमंत्री
नरेंद्र
मोदी
ने
500
और
1000
रुपए
के
नोट
बंद
करके
बड़ां
दांव
खेला
और
लोगों
के
बीच
यह
संदेश
देने
की
कोशिश
की,
कि
वह
कालाधन
और
भ्रष्टाचार
के
खिलाफ
जंग
छेड़
चुके
हैं,
लेकिन
उनक
लिए
बड़ी
चुनौती
आगामी
बजट
है,
जिसमें
उनके
फैसले
का
समर्थन
करने
वाले
उम्मीद
कर
रहे
हैं
कि
वह
उनकी
उम्मीद
पर
खरे
उतरेंगे
और
अपने
वायदे
को
पूरा
करेंगे।
दूसरी
तरफ
अखिलेश
यादव
भी
वर्ष
2017
में
प्रवेश
कर
रहे
हैं
और
बहुत
बड़े
बदलाव
के
साथ,
वह
लोगों
के
बीच
यह
संदेश
देने
में
सफल
हुए
हैं
कि
भ्रष्ट
और
दागी
छवि
के
नेताओं
के
खिलाफ
उन्होंने
अपनी
जंग
छेड़ी,
ऐसे
में
अगर
वह
2017
के
चुनाव
में
हार
भी
जाते
हैं
तो
अपने
को
बतौर
लोकप्रिय
नेता
के
रूप
में
स्थापित
करने
में
सफल
हो
जाएंगे।
छवि
को
साधने
में
सफल
अखिलेश
हालांकि
अखिलेश
यादव
के
शासनकाल
में
यूपी
में
जमीनी
तौर
पर
कुछ
खास
बदलाव
नहीं
हुआ
है,
लेकिन
अपने
बयानों
से
जिस
तरह
से
उन्होंने
अपनी
अलग
छवि
बनाई
है
उसका
उन्हें
जरूर
लाभ
होगा।
परिवार
के
भीतर
चल
रही
लड़ाई
का
अखिलेश
को
लंबे
समय
तक
लाभ
हो
सकता
है।
मुश्किल
के
समय
में
भी
अखिलेश
यादव
कैमरे
के
सामने
मुस्कुराते
रहते
हैं।
अखिलेश
के
सामने
कई
चुनौतियां
इस
वर्ष
आई,
जिसमें
उन्हें
अपनी
सौतेली
मां
साधना
का
मुलायम
सिंह
पर
बढ़ता
प्रभाव,
अमर
सिंह
से
सीधी
लड़ाई,
चाचा
शिवपाल
से
तीखी
नोकझोंक
और
तमाम
मंत्रियों
से
दो
चार
होना
पड़ा।
अखिलेश
यादव
ने
केंद्र
में
में
नरेंद्र
मोदी
के
उदय
के
बाद
2014
में
उनपर
लगातार
हमला
जारी
रखा,
उन्होंने
अपने
बयानों
में
राजनीतिक
गंभीरता
का
परिचय
देते
हुए
खुद
को
अलग
नेता
के
रूप
में
स्थापित
किया।
अखिलेश
ने
देशभर
के
राष्ट्रीय
अखबारों
में
प्रचार
देकर
अपने
कामों
को
लोगों
के
बीच
पहुंचाया,
उन्होंने
युवाओं
और
महिलाओं
को
तमाम
मुफ्त
उपहार
बांटकर
अपनी
लोकप्रियता
में
इजाफा
किया।
अपने
पिता
से
इतर
अखिलेश
ने
खुद
को
मुस्लिम-यादव
वोटर
बैंक
से
उपर
उठाया
और
तमाम
वर्ग
के
लोगों
के
बीच
अपनी
पैठ
स्थापित
की।
राहुल
जो
न
कर
सके
अखिलेश
ने
कर
दिखाया
अखिलेश
यादव
और
राहुल
गांधी
की
तुलना
भी
काफी
रोचक
है,
दोनों
ही
नेता
वंशवाद
की
राजनीति
से
आए,
एक
तरफ
जहां
राहुल
गांधी
अपनी
पहचान
बनाने
के
लिए
जूझ
रहे
हैं
तो
दूसरी
तरफ
अखिलेश
यादव
उनसे
कहीं
आगे
निकल
चुके
हैं।
एक
तरफ
जहां
मायावती
अखिलेश
को
बबुआ
कहती
है
और
उनका
मजाक
उड़ाती
हैं
तो
अखिलेश
ने
अपने
तेवर
और
सूझबूझ
दिखाकर
इसका
जवाब
दिया
है,
लेकिन
दूसरी
तरफ
राहुल
गांधी
अभी
भी
अपने
छवि
से
बाहर
निकलते
हुए
कोई
ऐसा
फैसला
नहीं
ले
सके
हैं,
जिससे
पार्टी
के
भीतर
उनकी
अलग
छवि
स्थापित
हो
सके।कांग्रेस
वर्ष
2002
से
सांप्रदायिकता
के
ही
मुद्दे
पर
चुनाव
लड़
रही
है
और
नरेंद्र
मोदी
को
को
केंद्र
में
आने
से
रोकने
के
लिए
तमाम
कोशिशें
की,
लेकिन
बावजूद
इसके
वह
मुस्लिम
वोटबैंक
को
साधन
में
विफल
रहे
हैं।
मुजफ्फरनगर
में
2013
में
हुए
दंगे,
दादरी
में
2015
में
अखलाक
की
हत्या
जिस
तरह
से
अखिलेश
यादव
ने
दंगों
की
सीबीआई
जांच
से
इनकार
किया
और
इसका
ठीकरा
पुलिस
और
अधिकारियों
पर
फोड़ा,
यही
नहीं
अखलाक
की
हत्या
के
बाद
उसके
परिवार
को
बड़ी
आर्थिक
मदद
दी
और
संकेत
देने
में
सफल
हुए
कि
वह
अभी
भी
मुस्लिम
के
सबसे
बड़े
नेता
हैं।
एक तरफ जहां 1980 तक सपा सिर्फ मुलायम सिंह यादव की थी और उन्होंने तीन बार मुख्यमंत्री पद संभाला, लेकिन दूसरी तरफ अखिलेश यादव भी पूर्वी और पश्चिमी यूपी में अपनी अलग पहचान बनाने में कामयाब हुए हैं, परिवार से इतर वह अपनी अलग पहचान बना चुके हैं और मुस्लिम समुदाय में उनकी लोकप्रियता बढ़ी है। 43 वर्ष की उम्र में अखिलेश यादव तकरीबन वह सब हासिल कर लिया है जिसे राहुल गांधी काफी पहले केंद्र की राजनीति में हासिल कर सकते थे।