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जोशीमठों की कीमत पर बिजली चाहिए या नहीं चाहिए?

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जोशीमठ

पेशे से किसान शिव लाल पूरा हफ्ता ढंग से नहीं सो पाए हैं. अपनी जमीन औरगांव में आस-पास के घरों में तेजी से बढ़ती दरारों ने उनकी और उन जैसे सैकड़ों लोगों की नींद उड़ा रखी है. 2 और 3 जनवरी की रात शिव लाल जैसे जोशीमठ के ये सैकड़ों निवासी जगे, तो घरों में दरारें पड़ चुकी थीं. सिर्फ घर नहीं, सड़कें और खेत भी ऐसे फट गए थे, जैसे कोई तेज भूकंप आया हो और धरती फट गई हो.

लाल बताते हैं, "मैंने अपने पोते-पोतियों और पत्नी को बगल के एक स्कूल में रहने के लिए भेज दिया है क्योंकि घर में रहना सुरक्षित नहीं है." समुद्र तल से करीब छह हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित उत्तराखंड के जोशीमठ की दरारें जो अब पूरी दुनिया को दिखाई दे रही हैं, वहां के लोगों को महीनों से परेशान कर रही थीं.

शिव लाल कहते हैं कि होटलों का बेतहाशा निर्माण और एनटीपीसी की पनबिजली परियोजना के कारण पहाड़ों में खोदी गई सुरंग इस स्थिति के लिए जिम्मेदार है. वह कहते हैं, "इस टूरिज्म या एनटीपीसी की परियोजना से हमें क्या मिला? पता नहीं कितने दिन से मैं ना ढंग से सोया हूं ना खा पाया हूं."

भारत में ऊर्जा की कमी को पूरा करने के लिए पनबिजली परियोजनाओं पर पूरा जोर है. 2030 तक 500 गीगावाट कार्बन-रहित बिजली हासिल करने का लक्ष्य पूरा करने के लिए सरकार पनबिजली पर बहुत ज्यादा भरोसा कर रही है. फिलहाल देश के कुल बिजली उत्पादन का 13 प्रतिशत, यानी 47 गीगावाट बिजली पानी से बन रही है.

हालांकि एनटीपीसी के अफसर और कुछ भूगर्भ विज्ञानियों ने इस बात से असहमति जताई है कि सुरंग बनाने के कारण जोशीमठ में जमीन खिसकी है. फिर भी इस पूरे संकट ने पनबिजली परियोजनाओं के औचित्य और सुरक्षा को लेकर पुरानी बहस को फिर से छेड़ दिया है.

उत्तराखंड पहले ही बादलों के फटने और भूस्खलन जैसे खतरों की जद में रहा है. इस छोटे से राज्य में दस पनबिजली परियोजनाएं काम कर रही हैं, जबकि 75 और निर्माणाधीन हैं. इनमें एनटीपीसी का तपोवन-विष्णुगढ़ हाइड्रोपावर प्लांट भी है.

पनबिजली की कीमत?

अब कई पर्यावरणविद कह रहे हैं कि जोशीमठ के संकट को देखते हुए पहाड़ी इलाकों में पनबिजली परियोजनाओं पर पुनर्विचार होना चाहिए. हैदराबाद स्थित इंडियन स्कूल ऑफ बिजनस के इंस्टिट्यूट ऑफ पब्लिक पॉलिसी में शोध निदेशक अंजल प्रकाश कहते हैं, "90 प्रतिशत समस्या तो पनबिजली परियोजनाओं के कारण है. सुरंग बनाने की प्रक्रिया घातक रही है."

2019 और 2022 में अंतरदेशीय जलवायु परिवर्तन पैनल की रिपोर्ट लिखने वालों में शामिल रहे प्रकाश कहते हैं, "भारत को पुनर्विचार करना चाहिए और हिमालयी क्षेत्रों में पनबिजली परियोजनाओं पर रोक लगनी चाहिए."

जोशीमठ ही नहीं, उत्तराखंड और अन्य हिमालयी राज्यों के कई शहरों में निर्माण कार्य लगातार बढ़ रहे हैं. हाल के सालों में विशेषज्ञों ने कई बार इन निर्माण कार्यों के खतरों के प्रति चेताया भी है. उत्तराखंड आपदा शमन एवं प्रबंधन विभाग के निदेशक पीयूष रौतेला कहते हैं कि इस महीने जोशीमठ में जो हुआ है, उसकी वजह पहाड़ के अंदर एक जलभर में छेद हो जाना है और ऐसा कैसे हुआ, इसकी जांच की जा रही है.

जोशीमठ के नुकसान का आकलन कर रहे अधिकारी और भूविज्ञानी मानते हैं कि 2021 में बादल फटने से यह समस्या शुरू हुई थी. उस घटना में 200 से ज्यादा जानें चली गई थीं और ऋषिगंगा लघु पनबिजली परियोजना बह गई थी.

देहरादून स्थित शोध संस्थान, इंस्टिट्यूट ऑफ हिमालयन जिओलॉजी में वैज्ञानिक स्वप्नामिता चौधरी वैदेश्वरन कहती हैं, "घरों में दरारें आने की खबरें तभी से आनी शुरू हो गई थीं." वैदेश्वरन उस समिति की सदस्य हैं, जो सरकार ने समस्या का आकलन करने के लिए बनाई है. वह कहती हैं कि एनटीपीसी की सुरंग प्रभावित इलाके से इतनी दूर है कि उसका असर नहीं हो सकता.

एनटीपीसी परियोजना पर इल्जाम

520 मेगावाट बिजली क्षमता वाली तपोवन-विष्णुगढ़ परियोजना की शुरुआत 2008 में हुई थी. धौलीगंगा पर बनाई जा रही इस परियोजना के 2022 में पूरा होने की संभावना है. एनटीपीसी की इस परियोजना को जोशीमठ त्रासदी के लिए जिम्मेदार माना जा रहा है. हालांकि निगम के अधिकारी इससे साफ इनकार करते हैं.

एनटीपीसी अधिकारियों का कहना है कि उनकी सुरंग ने नहीं, बल्कि जोशीमठ में हो रहे नए निर्माण ने इस समस्या को जन्म दिया है. उनका कहना है कि उनकी सुरंग तो कस्बे से करीब एक किलोमीटर दूर है और सतह से बहुत ज्यादा गहराई में है.

एक अधिकारी ने नाम प्रकाशित ना करने की शर्त पर बताया, "शहरों में मेट्रो ट्रेन चलाने के लिए जो सुरंगें बनती हैं, वे तो सतह से कुछ ही मीटर नीचे होती हैं. वे भी इमारतों को कोई नुकसान नहीं पहुंचातीं."

एनटीपीसी ने इस बात से भी इनकार किया है कि उन्होंने किसी जलभर को नुकसान पहुंचाया. उनका कहना है कि परियोजना जारी रहेगी. हालांकि समस्या के सामने आने के बाद भी काम जारी रहने के कुछ वीडियो वॉट्सऐप पर शेयर हुए, तो लोगों में गुस्सा भड़क गया था. अधिकारी कहते हैं कि फिलहाल काम रोक दिया गया है, लेकिन परियोजना बंद नहीं होगी.

अधिकारी ने कहा, "परियोजना चालू है. मौजूदा समस्या से हमारा कोई संबंध नहीं है." वह कहते हैं कि इस परियोजना ने 1,100 लोगों को रोजगार दिया है, जिनमें अधिकतर स्थानीय हैं. नौकरी पाने वालों में शिव लाल का भतीजा भी है, जो प्लांट में प्लंबर का काम करता था. हालांकि शिव लाल कहते हैं कि उसे कुछ ही समय तक काम मिला.

अब कस्बे के वे घर गिराये जा रहे हैं जिन्हें प्रशासन ने पूरी तरह असुरक्षित माना है. करीब 4,500 इमारतों में से 128 पर लाल निशान लगा दिया गया है और 170 परिवारों को होटलों, स्कूलों और शहर की अन्य सुरक्षित इमारतों में रहने के लिए भेजा गया है.

अपने घर के सामने बैठे शिव लाल कहते हैं, "मैं स्कूल में बने कैंप में जाता हूं और फिर लौट आता हूं. कल रात चार बजे के आसपास नींद आई. मैं यहीं सोना चाहता हूं."

वीके/एसएम (रॉयटर्स)

Source: DW

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English summary
sinking-himalayan-town-puts-spotlight-on-indias-hydropower-rush
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