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मध्य प्रदेश: शहडोल लोकसभा सीट के राजनीतिक इतिहास पर एक नजर

नोटबंदी के फैसले के बाद माना जा रहा था कि बीजेपी को नुकसान उठाना पड़ सकता है लेकिन यहां कांग्रेस को हार झेलनी पड़ी।

By Brajesh Mishra
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भोपाल। बीजेपी सांसद दलपत सिंह परस्ते के निधन के बाद शहडोल लोकसभा सीट पर हुए उपचुनाव में बीजेपी के ही ज्ञान सिंह ने जोरदार जीत दर्ज की। इस सीट पर 17वीं बार हुए चुनाव में बीजेपी और कांग्रेस के बीच सीधा मुकाबला था। नोटबंदी के फैसले के बाद माना जा रहा था कि बीजेपी को नुकसान उठाना पड़ सकता है लेकिन यहां कांग्रेस को हार झेलनी पड़ी। 1952 के आम चुनावों से लेकर अब तक शहडोल लोकसभा सीट के राजनीतिक इतिहास पर एक नजर-

सोशलिस्ट विचारधारा को कांग्रेस ने दी थी टक्कर

सोशलिस्ट विचारधारा को कांग्रेस ने दी थी टक्कर

राजनीतिक समीकरणों और आंकड़ों पर गौर करें तो 1952 से लेकर 2016 तक शहडोल में सीधी टक्कर ही देखने को मिली है। हर बार बीजेपी और कांग्रेस में जोरदार मुकाबला हुआ। शुरुआती समय में यहां सोशलिस्ट विचारधारा का राज था। 1962 तक यहां सोशलिस्ट विचारधारा की पकड़ मजबूत रही और सात में से पांच विधानसभा सीटें सोशलिस्ट के खाते में रहीं। लेकिन इसके बाद धीरे-धीरे यहां कांग्रेस ने खुद को मजबूत किया, जिसे कुछ समय बाद जनता पार्टी और जनता दल ने टक्कर देनी शुरू की।

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बीजेपी को भारी पड़ा था ये फैसला

बीजेपी को भारी पड़ा था ये फैसला

1996 में बीजेपी ने कांग्रेस के अभेद किले में फतह की। इसके पहले बीजेपी यहां सिर्फ मुकाबला करती रही लेकिन जीत का स्वाद नहीं चख पाई थी। बीजेपी ने 2009 के आम चुनावों में अपना उम्मीदवार बदल दिया और इसका फायदा कांग्रेस को मिला। यहां कांग्रेस की राजेश नंदिनी सिंह ने बीजेपी उम्मीदवार को हरा दिया और एक बार फिर सीट कांग्रेस के कब्जे में चली गई।

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यहां कद्दावर नेताओं को भी मिली हार

यहां कद्दावर नेताओं को भी मिली हार

इस लोकसभा सीट में हमेशा से किसी न किसी पार्टी के उम्मीदवार को जीत मिली लेतिन 1971 का चुनाव लोगों के जेहन में अब भी है। तब रीवा महराजा का समर्थन पाए निर्दलीय उम्मीदवार धनशाह प्रधान ने चुनाव में मैदान मार लिया। राजनीतिक दलों के लिए यह बड़ा झटका था। आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र होने के बाद भी यहां के वोटर नेताओं को सबक सिखाने में पीछे नहीं रहे। दिवंगत सांसद दलवीर सिंह और अजीत जोगी जैसे कद्दावर नेताओं को भी यहां हार का स्वाद चखना पड़ा। केंद्रीय राज्य मंत्री की कुर्सी तक पहुंचे दलवीर सिंह को इस सीट ने राजनीति के हासिए पर पहुंचा दिया तो अजीत जोगी को आखिरकार छत्तीसगढ़ का रुख करना पड़ा।

हर चुनाव में दिखती है किसी एक की लहर

हर चुनाव में दिखती है किसी एक की लहर

शहडोल लोकसभा सीट में अब तक हुए आम चुनावों पर गौर करें तो 1977 से लेकर 2004 तक लोकसभा आम चुनाव और उपचुनाव में हर बार किसी खास लहर का प्रभाव दिखा। हालांकि यहां मतदाताओं के रुझान में कुछ बदलाव भी देखने को मिले। 1984 में बीजेपी को यहां महज 16.92 फीसदी वोट मिले थे। धीरे-धीरे यहां बीजेपी का ग्राफ बढ़ा और 1996 के लोकसभा चुनाव में 33.92 फीसदी वोट पाकर बीजेपी ने जीत दर्ज कर ली। 1998 में भी बीजेपी के वोट प्रतिशत में 10 फीसदी का इजाफा हुआ। लेकिन 2004 के चुनावों में बीजेपी को यहां 30 फीसदी का नुकसान देखने को मिला।

कांग्रेस को लगता रहा झटके-पे-झटका

कांग्रेस को लगता रहा झटके-पे-झटका

अगर कांग्रेस के इतिहास पर नजर डालें तो 1991 में उसे यहां 47.68 फीसदी वोट मिले थे जिसमें धीरे-धीरे और कमी आई। 1998 में यह आंकड़ा 37.9 फीसदी तक पहुंच गया। हालांकि 1999 में कांग्रेस ने उछाल मारी और 41.57 फीसदी वोट हासिल किए लेकिन मतदाताओं के बीच पैठ बनाने में नाकाम रही। 2004 के चुनावों में कांग्रेस के वोटों में 6 फीसदी की कमी आई और 35.47 फीसदी तक ही पहुंच पाई। हालांकि 2009 के चुनावों में कांग्रेस को एक बार फिर बढ़त मिली और आंकड़ा 41.86 फीसदी पहुंच गया। लेकिन इस चुनाव में 39.73 फीसदी वोट पाने वाली बीजेपी ने 2014 के लोकसभा चुनावों में फिर वापसी की और 55 फीसदी वोटों के साथ सीट पर कब्जा किया। इस चुनाव में कांग्रेस का वोट घटकर 30 फीसदी हो गया। मंगलवार को आए उपचुनाव के परिणामों में एक बार फिर बीजेपी का वोट प्रतिशत बढ़ा है। बीजेपी ने यहां 60.3 फीसदी वोटों के साथ जीत दर्ज की है। जबकि कांग्रेस को 34.7 प्रतिशत वोट मिले हैं।

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English summary
Brief history of Shahdol loksabha constituency elections since 1952.
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