प्यार-परीक्षा-बेचैनी, कहीं आप भी तो नहीं हैं शिकार?
ऐंग्ज़ाइटी डिस्ऑर्डर कई तरह का हो सकता है. इसके अलग-अलग लेवल होते हैं. इसका सबसे सामान्य है फ़ोबिया.
क्या आपको भी लोगों से मिलने में डर लगता है? कमरे में बैठकर आपको लगता है कि कोई आपको मार देगा? एक अनजाना डर आपको हर समय सताता रहता है? मुमकिन है कि आपको ऐंग्ज़ाइटी डिस्ऑर्डर हो.
ब्रिटनी निकोल मोरफ़ील्ड मेकअप आर्टिस्ट हैं और ऐंग्ज़ाइटी डिस्ऑर्डर से पीड़ित भी. फ़ेसबुक पर उन्होंने इससे जुड़ी एक पोस्ट लिखी है.
वो कहती है कि इससे पीड़ित होने का मतलब अंधेरे में खो जाना है. किसी रात 3 बजे अचानक से डरकर जग जाते हैं. बहन को फ़ोन कर देते हैं. ये सोचकर कि शायद उसके पास आपकी परेशानी का समाधान होगा.
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क्या ये किसी ख़ास किस्म के लोगों को ही होता है...?
ऐसा लोग सोचते हैं, पर ग़लत सोचते हैं. ये परेशानी किसी को भी हो सकती है. हां, इसका लेवल हर किसी में अलग हो सकता है.
3 साल तक सिविल्स की तैयारी करने के बाद टीचिंग को पेशा बना चुके अभिषेक कहते हैं कि तैयारी के पहले साल इतनी परेशानी नहीं हुई थी.
''पहले साल ही प्री में हो गया था तो तनाव ज़्यादा नहीं था लेकिन मेन्स में नहीं हुआ. परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं तो टेंशन तो होगी ही. सेलेक्ट नहीं होने का डर बहुत बड़ा होता है.''
अभिषेक ने तीन साल में दो बार सुसाइड के बारे में भी सोचा. वो पूछते हैं कि क्या ये सब हेल्थ प्रॉब्लम थी?
''तैयारी के दौरान साथ पढ़ने वाली एक लड़की से दोस्ती हो गई थी. लेकिन तैयारी और दोस्ती साथ नहीं चल सकी.''
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"मेरे अंदर का डर बढ़ता गया"
अभिषेक अपनी दोस्ती के बारे में बताते हैं, ''शुरुआत में सब ठीक था लेकिन बाद में हालात ख़राब होने लगे. उसके घर में शादी की बात चल रही थी. उस पर प्रेशर पड़ा तो असर मुझ पर भी हुआ.''
''एक ही रट...अगर इस बार तुम्हारा नहीं हुआ तो? दूसरे फॉर्म भी भरा करो. सब आईएएस ही थोड़े बनते हैं. उसकी इस बातों से मेरे अंदर का डर बढ़ता गया. मेरा आत्मविश्वास बुरी तरह हिल गया था.''
कुछ ऐसी ही कहानी विशाल (बदला हुआ नाम) की भी है. विशाल बताते हैं कि स्नातक करने के बाद सिविल्स की तैयारी शुरू की. ग्रेजुएशन के समय से ही उनकी गर्लफ्रेंड थी. वो डिज़ाइनिंग का कोर्स कर रही थी.
वे बताते हैं, ''मैं प्रतापगढ़ से दिल्ली आ गया, वो वहीं रही. उसकी क्लास सुबह 9 से 1 बजे तक ही होती थी. मेरी टाइमिंग उससे बिल्कुल अलग. मैं रातभर पढ़ता था, दिन में सोता था. बात कम होने लगी और झगड़े बढ़ने लगे.''
''इसके बाद इतने तनाव में रहने लगा कि शायद कुछ हफ्तों तक पढ़ाई ही नहीं कर पाया. मन के एक कोने में एक डर घर करने लगा कि अगर सेलेक्ट नहीं हुआ तो...घर पर सब सबसे क्या कहूंगा. कमरे में लेटा रहता था. कई दिन नहाया भी नहीं. दिनभर मोबाइल में अचीवर्स थॉट पढ़ता था. सोशल ऐंक्ज़ाइटी का शिकार हो गया था.''
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हर छठा इंसान है इससे पीड़ित
विशाल बताते हैं, ''खुद के लिए ही बुरा लगने लगा था. घर से भी कनेक्शन ख़त्म हो गया था. एक दिन मैंने ब्रेकअप कर लिया. अब भी तैयारी कर रहा हूं. अब वो सिर्फ़ दोस्त है. हाय-हैलो होती है लेकिन लड़ाई नहीं है अब.''
''कई बार अकेलापन महसूस होता है, लगता है डिप्रेशन में जा रहा हूं पर अब ये सिर्फ़ पढ़ाई के प्रेशर की वजह से है. कुछ दोस्त हैं जिनके साथ शाम को कोचिंग के बाद का समय बिताता हूं.''
सिविल्स की परीक्षा पास कर चुके एक शख़्स ने नाम न बताने की शर्त पर कहा कि तैयारी के दौरान शायद ही कोई ऐसा होता होगा जो ऐंग्ज़ाइटी डिस्ऑर्डर या डिप्रेशन से नहीं जूझता होगा.
वे कहते हैं, ''आपके आस-पास इतना कॉम्पटीशन होता है कि आप चैन से रह ही नहीं पाते. पिछड़ने का डर, लगभग हर शादी-समारोह से दूर रहने की तक़लीफ, ये सब परेशान ही तो करेंगे.''
इस बारे में जब हमने साइकोलॉजिस्ट डॉ. प्रवीण त्रिपाठी से बात की तो उन्होंने बताया कि ऐंग्ज़ाइटी डिस्ऑर्डर, सबसे सामान्य साइकोलॉजिस्ट डिस्ऑर्डर है. हर छठा इंसान इससे पीड़ित है.
उन्होंने बताया कि यह कई तरह का हो सकता है. इसके अलग-अलग स्तर होते हैं. इसका सबसे कॉमन रूप है फ़ोबिया.
फ़ोबिया परिस्थिति के हिसाब से भी हो सकता है और किसी सब्जेक्ट से भी. इससे जूझ रहा शख़्स एक ऐसी चीज़ या स्थिति से डरने लगता है जो कभी हुई ही नहीं होती है.
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आखिर होता क्या है?
डॉ. प्रवीण बताते हैं, ''दरअसल, होता यह कि सच्चाई भले ही उतनी ख़तरनाक न हो लेकिन पीड़ित शख़्स उसकी कल्पना कर लेता है.''
उनके अनुसार, ''इससे जूझ रहे शख़्स को पहचानने के लिए ध्यान देना होता है. मान लीजिए कोई शख़्स लोगों से मिलने-जुलने में कतराता हो, अकेले में रहने पर डरता हो, पसीना खूब आता हो, चेहरा अचानक से लाल हो जाता हो, कंपकंपी हो, बार-बार वॉशरूम जाता हो तो संभव है कि उसे यह समस्या हो.''
डॉक्टर प्रवीण कहते हैं कि ऐंग्ज़ाइटी प्रॉब्लम नहीं है लेकिन ऐंग्ज़ाइटी डिस्आर्डर प्रॉब्लम है. कई बार बेचैनी का होना सही भी होता है. वो कहते हैं कि थोड़ी ऐंग्ज़ाइटी होना फ़ायदेमंद भी है लेकिन अगर वो हमेशा ही बनी रहती हो तो ये प्रॉब्लम है.
मान लीजिए कोई बच्चा परीक्षा देने वाला है और ऐंग्ज़ाइटी के चलते वो पढ़ाई में फ़ोकस कर पा रहा है तो यह अच्छा है लेकिन अगर वो इस कदर परेशान है कि पढ़ ही नहीं पा रहा तो ये परेशानी है.
डॉक्टर के अनुसार कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिनको हर छोटी-बड़ी बात की टेंशन रहती है. मसलन मेड देर से क्यों आ रही है, पानी नहीं आ रहा तो ये भी जनरलाइज़्ड ऐंग्ज़ाइटी डिस्आर्डर है.
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क्या है समाधान?
किसी भी ऐंग्ज़ाइटी डिस्आर्डर को ट्रीट करने के दो तरीक़े हैं. पहला तो फार्मियोथेरेपी मतलब दवाइयों से ट्रीटमेंट और दूसरा काउंसलिंग. दवाइयों और काउंसलिंग का कॉम्बिनेशन ही बेस्ट रिज़ल्ट देता है.
ये डिस्ऑर्डर तीन चरणों में हो सकता है. माइल्ड, मॉड्यूल और सीवियर.
डॉक्टर प्रवीण कहते हैं कि इन दवाइयों की लत नहीं लगती और न ही इन्हें ज़िंदगीभर लेने की ज़रूरत होती है.