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तालिबान और इस्लामिक स्टेट के बीच क्या हैं समानताएं और फ़र्क क्या हैं?

अमेरिका और यूरोपीय देशों ने आईएसआईएस को एक 'आतंकवादी समूह' माना है, लेकिन तालिबान को एक 'आतंकवादी आंदोलन' नहीं माना है.

By BBC News हिन्दी
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हेबतुल्ला अखुंदज़ादा, अबू इब्राहिम अल-हाशिमी अल-क़ुरैशी
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हेबतुल्ला अखुंदज़ादा, अबू इब्राहिम अल-हाशिमी अल-क़ुरैशी

अफ़ग़ानिस्तान की राजधानी काबुल पर तालिबान के क़ब्ज़ा करने और अफ़ग़ान ना​गरिकों के एयरपोर्ट की ओर भागने वाले वीडियो बीते दिनों सोशल मीडिया पर जंगल की आग की तरह फैल गए. इस घटना पर अरब जगत में अलग-अलग प्रतिक्रियाएं देखने को मिलीं.

एक ओर वैसे लोग थे, जो अफ़ग़ानों के समर्थन में अपनी एकजुटता दिखा रहे थे. वहीं कइयों ने तालिबान की जीत की तारीफ़ की और इसे 'पश्चिमी शक्तियों पर मुसलमानों की जीत' क़रार दिया. ऐसे लोगों का तर्क था कि तालिबान इस्लाम का दुरुपयोग करने वाले कथित चरमपंथी समूह 'इस्लामिक स्टेट' की तरह क्रूर नहीं है.

ऐसे में सवाल उठता है कि तालिबान से अरब जगत के सहमत और असहमत होने की क्या वज़हें हो सकती हैं. और क्या इस्लामिक स्टेट (आईएसआईएस), तालिबान के लिए ख़तरा बन सकता है?

पंथ

तालिबान आंदोलन और तथाकथित 'इस्लामिक स्टेट' दोनों ही पहले के सलाफ़ी-जिहादी संगठनों से पैदा हुए हैं. तालिबान का उदय नब्बे के दशक की शुरुआत में हुआ था और अफ़ग़ानिस्तान से सोवियत संघ की सेना की वापसी के बाद 1994 में उत्तरी पाकिस्तान में इसका सितारा बुलंद हुआ.

हालांकि तालिबान के बनने में अपनी भागीदारी से पाकिस्तान लगातार इनकार करता आया है. लेकिन लोगों का मानना है कि यह आंदोलन सबसे पहले पाकिस्तान के रूढ़िवादी मज़हबी संगठनों में देखा गया. इन संगठनों का वित्तपोषण मुख्य रूप से विदेशों से मिलने वाले गैर-अधिकृत धन से होता रहा है.

1990 के दशक के मध्य में तालिबान जब अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता में आया था, उसे केवल तीन देशों ने मान्यता दी थी: पाकिस्तान, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात. तालिबान का नेतृत्व उस वक्त मुल्ला उमर के हाथों में था.

मुल्ला उमर के 2013 में मारे जाने के बाद मुल्ला मंसूर ने संगठन का नेतृत्व संभाला. 2016 में एक अमरीकी हमले में मंसूर की मौत हो गई जिसके बाद उनके नायब हेबतुल्ला अखुंदज़ादा ने तालिबान का कार्यभार संभाला. माना जाता है कि अखुंदज़ादा कट्टर विचारधारा को मानने वाले थे.

कारनेगी एंडाउमेंट के एक अध्ययन के अनुसार, कुछ जानकार इस्लामिक स्टेट के उदय के पीछे कई कारणों को जिम्मेदार मानते हैं. इनमें 2003 में इराक़ पर अमेरिका के हुए हमले, शिया मिलिशिया संगठनों को ईरान के समर्थन और इलाके में राजनीतिक इस्लाम की मौज़ूदगी को 'आईएसआईएस की कट्टरता का इनक्यूबेटर' माना जाता है.

इस इलाक़े में, आईएसआईएस के तेजी से विकास और विस्तार में सीरिया के गृहयुद्ध ने एक उर्वर माहौल प्रदान किया. सामान्य तौर पर, इस्लामिक स्टेट और तालिबान, दोनों ख़ुद को इस्लाम का सच्चा प्रतिनिधि क़रार देते हैं. दोनों संगठन इस्लाम का वह रूप स्वीकार करते हैं, जिसका पालन शुरुआती "पूर्वज" मुसलमानों ने किया था. इस चलते, वे इस्लाम की मुख्यधारा से अलग चरमपंथी विचारों को अपनाते हैं.

अपने हिंसक व्यवहारों को सही ठहराने के लिए ये दोनों संगठन इब्न तैमियाह जैसे अतिवादी मौ​लवियों की किताबों और संदर्भों के साथ इस्लामी इतिहास के शुरुआती क़िताब हदीस का सहारा लेते हैं.

पश्चिमी संस्कृति को लेकर डराने और खारिज करने की नीति

ये दोनों संगठन हिंसा और प्रबंधन के क्रूर तरीकों में यकीन करते हैं, क्योंकि उनका मानना है कि "परिणाम ज़रूरी है, जबकि युद्ध केवल वहां तक पहुंचने का रास्ता है."

दोनों ही संगठनों का मानना है कि वे 'अल्लाह की क़िताब और उनके पैगंबर की सुन्नत' में कही गई बातों को लागू करके बिल्कुल सही करते हैं. इसलिए, उनका कोई भी विरोध अल्लाह और उनके पैगंबर का विरोध करने के समान है. इसके आधार पर वो मानते हैं कि अपने विरोधी को ख़त्म करने या उसे दबाने के लिए वो सभी तरह के साधनों का उपयोग करने का अधिकार रखते हैं. हत्या के लिए सार्वजनिक फांसी देने, व्यभिचार के लिए पत्थर मारने, और चोरी करने वालों के हाथ काटने की सज़ा इसके उदाहरण हैं.

वे दोनों पश्चिमी देशों की लोकतांत्रिक सिद्धांतों, जैसे पुरुषों और महिलाओं के बीच समानता, बहुलतावाद, मानवाधिकार, अभिव्यक्ति की आज़ादी और अन्य आधुनिक अवधारणाओं के विरोधी हैं. और अपने ख़िलाफ़ होने वाले किसी भी विरोध या विद्रोह को शुरू में ही कुचल देने के लिए सख़्त कदम उठाते हैं.

तालिबान और आईएस, दोनों दावा करते हैं कि वे काफ़िरों और पाखंडियों से लड़ रहे हैं, और इसके लिए वे धार्मिक पुस्तकों और संदर्भों के आधार पर व्यवहार करने पर भरोसा करते हैं.

कई समानताओं के बावज़ूद, तालिबान और इस्लामिक स्टेट में कई महत्वपूर्ण अंतर भी हैं.

तालिबान, इस्लामिक स्टेट
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तालिबान, इस्लामिक स्टेट

सामाजिक जीवन और महिलाएं

दोनों संगठन, महिलाओं की भूमिका बच्चे पैदा करने और उनकी देखभाल करने के साथ उन्हें घर के कामों तक सीमित रखना, ही मानते हैं. दोनों महिलाओं को हिजाब और नक़ाब पहनने को मज़बूर करते हैं, जबकि पुरुषों से वो दाढ़ी बढ़ाने को कहते हैं.

तालिबान और आईएस, दोनों ने लोगों के मनोरंजन वाले टीवी शो देखने, संगीत सुनने और सिनेमा देखने जाने पर भी प्रतिबंध लगाए हैं.

इन दोनों ने स्टोर मालिकों को महिलाओं के फ़ैशन का प्रदर्शन न करने और स्टोर में ध्यान खींचने के लिए रखे जाने वाली गुड़िया के चेहरों को ढंकने को बाध्य किया. तालिबान ने दस साल की उम्र की लड़कियों के स्कूल जाने पर रोक लगा दी थी.

हालाँकि, महिलाओं के प्रति तालिबान की नीति के विपरीत, इस्लामिक स्टेट जानता था कि संगठन की सेवा में लगी महिलाओं और उनकी क्षमताओं का बेहतर दोहन कैसे किया जाए. उसने उन्हें प्रोपैगेंडा और लड़कियों की ऑनलाइन भर्ती करने के लिए प्रशिक्षित भी किया था. इसलिए महिलाओं को डॉक्टरों, नर्सों, शिक्षकों और कर्मचारियों के रूप में काम करने की अनुमति दी थी. कुछ महिलाओं ने लोगों की निगरानी का काम भी किया था.

इराक़ के मोसूल और सीरिया के रक़्क़ा शहरों पर नियंत्रण बढ़ाने के बाद आईएस ने तो एक महिला पुलिस बटालियन की भी स्थापना की थी, जिसका नाम 'अल-ख़ानसा ब्रिगेड' रखा गया था.

अफ़ग़ानिस्तान, पश्चिमी सेना
AFP
अफ़ग़ानिस्तान, पश्चिमी सेना

क्या उनका कोई साझा दुश्मन है?

नहीं! आईएसआईएस एक विस्तारवादी संगठन है, जो सीमाओं के परे काम करता है. वहीं, तालिबान एक क्षेत्रीय आंदोलन है, जिसमें पश्तूनों के इलाक़े के बाहर उनकी कोई सक्रियता नहीं है. इसके अधिकांश सदस्य पश्तून ही हैं.

इस्लामिक स्टेट का मानना है कि इस्लाम के सबसे बड़े दुश्मन इसी धर्म के भीतर हैं, न कि इससे बाहर. वे मानते हैं कि आंतरिक दुश्मनों पर हमला करके वो बाहरी दुश्मनों को भी अपनी ओर खींच सकते हैं. वो पश्चिम देशों के साथ संबंध रखने वाले मुस्लिम देशों की सरकारों और इस्लाम के अन्य संप्रदायों को दुश्मन मानते हैं.

सीरिया और इराक में वास्तव में यही हुआ, जहां आईएस ने दर्जनों यूरोपीय देशों को युद्ध में घसीट लिया था.

आईएस पूरी दुनिया को अपना दुश्मन मानता है, क्योंकि वो मानता है कि उनके धार्मिक विश्वास 'अल्लाह की क़िताब पर आधारित नहीं हैं' और उससे अलग हैं.

अमेरिका और यूरोपीय देशों ने आईएसआईएस को एक 'आतंकवादी समूह' माना है, लेकिन तालिबान को एक 'आतंकवादी आंदोलन' नहीं माना है.

तालिबानी आंदोलन पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान जैसे ख़ास इलाकों में सक्रिय है. स्थापना के वक्त से ही इसकी एक कबायली संस्कृति रही है.

उधर, तालिबान के उलट, आईएसआईएस ने शुरू से ही दुनिया भर के विभिन्न जातियों और राष्ट्रीयताओं को अपने साथ जुड़ने का आह्वान किया. उन्होंने अपने साथ अरब, कुर्द, तुर्क़, चेचन, उज़्बेक, कज़ाक, ताजिक, वीगर समुदाय के लोगों को जोड़ने में कामयाबी हासिल की.

आईएसआईएस के नेताओं ने अक्सर, अल-क़ायदा की कबायली संस्कृति के प्रति प्रतिबद्ध रहने के लिए उसकी आलोचना की है. हालांकि आईएसआईएस सीमाओं के बंधन से परे की अपनी विचारधारा का दावा करता रहा है.

अफ़ग़ानिस्तान के स्कूल में लड़कियां, तालिबान
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अफ़ग़ानिस्तान के स्कूल में लड़कियां, तालिबान

स्कूल और शिक्षा

तालिबान अपने शासन के दौरान आधुनिक शिक्षा का कट्टर विरोधी था. उसने कई जगह स्कूलों को पूरी तरह ख़त्म कर दिया, और लोगों के पुरज़ोर विरोध करने पर ही स्कूलों की अनुमति दी. उसने भौतिकी, रसायन जैसे विज्ञान के विषयों को कम करके धार्मिक विषयों जैसे न्यायशास्त्र, हदीस, आदि को पढ़ाना शुरू किया.

हालांकि इस्लामिक स्टेट ने आधुनिक शिक्षा का विरोध या उन्मूलन नहीं किया, बल्कि कुछ ऐसे विषयों को ख़त्म किया, जो उनके विचारों के अनुकूल नहीं थे, जैसे कि संगीत. उसने विज्ञान, भाषा जैसे आवश्यक विषयों को बरक़रार रखते हुए सिलेबस में और अधिक धार्मिक विषयों को जोड़ा.

अफीम
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अफीम

उन्हें मदद कैसे मिलती है?

कोई क्षेत्रीय या अंतरराष्ट्रीय ताक़तें आधिकारिक तौर पर या फिर खुल कर आईएसआईएस का समर्थन नहीं करता. लेकिन उसे मिलने वाली मदद का मसला काफी जटिल है.

आईएसआईएस ने इराक़ और सीरिया के जीते गए इलाक़ों में मौज़ूद तेल के व्यापार पर नियंत्रण कर लिया था. इस दौरान बहुत सारे अमेरिकी और यूरोपीय सैन्य उपकरण भी उसने ज़ब्त किए थे.

उधर, अफ़ग़ानिस्तान के अधिकांश प्रांतों में फैली अफ़ीम की खेती के साथ तालिबान के पाकिस्तान से संबंध शुरू से ही स्पष्ट रहे और कभी नहीं बदले. पाकिस्तान के पूर्व गृह मंत्री नसीरुल्लाह बाबर और पाक इंटेलिजेंस चीफ़ असद दुर्रानी के बयानों में इसका इशारा मिलता रहा है.

इस्लामिक स्टेट,
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इस्लामिक स्टेट,

क्या इस्लामिक स्टेट तालिबान के लिए ख़तरा है?

इस्लामिक स्टेट भले इराक़ और सीरिया में ध्वस्त हो गया है, पर अफ़ग़ानिस्तान के 'ख़ुरासान प्रांत' में यह अभी भी सक्रिय है. इसे 2015 में पाकिस्तानी तालिबान (या पंजाब तालिबान) और अफ़ग़ान तालिबान दोनों संगठनों के दलबदलू चरमपंथियों ने बनाया था.

आईएसआईएस के साहित्य में, 'ख़ुरासान प्रांत' का मतलब अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान के कुछ हिस्से, ईरान, उज़्बेकिस्तान, कज़ाकिस्तान, किर्गिस्तान, ताजिकिस्तान और तुर्क़मेनिस्तान का पूरा इलाक़ा है. हालांकि यह अफ़ग़ानिस्तान में अभी भी आईएसआईएस के नाम से ही जाना जाता है.

तालिबान नेताओं के साथ मतभेद के बाद इसमें कई सलाफ़ी लोग शामिल हो गए. इनका आरोप था कि तालिबान पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी का एक एजेंट बनकर रह गया है. संगठन का उद्देश्य 'ख़ुरासान प्रांत' में सक्रिय सभी सशस्त्र आंदोलनों चाहे तालिबान हों या अल-क़ायदा, के साथ सरकार से लड़ना है. आईएसआईएस ने अफ़ग़ानिस्तान में कई हमलों को अंजाम दिया है, जिसमें अब तक सैकड़ों लोगों की जान जा चुकी है.

'ख़ुरासान प्रांत' तालिबान और इलाक़े के अन्य सशस्त्र समूह जैसे अपने प्रतिद्वंद्वियों को और इस इलाक़े में अधिक आक्रामक बनने के लिए भड़काता रहता है.

लेकिन ​सबसे ज़रूरी सवाल फिर भी बना हुआ है- विदेशी सेनाओं और भारी हथियारों के अफ़ग़ानिस्तान से चले जाने के बाद, क्या दोनों संगठनों में खूनी संघर्ष छिड़ सकता है? और क्या क्या इस्लामिक स्टेट एक बार फिर तेज़ी से सिर उठाएगा, या फिर ये दोनों संगठन एकदूसरे के साथ देगें?

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English summary
know similarities and differences between the Taliban and the Islamic State?
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