अफ़ग़ानिस्तान: आतंकी ठिकानों पर पश्चिमी देश कैसे रख पाएंगे नज़र?
पश्चिमी देशों को डर है कि कहीं अफ़ग़ानिस्तान अंतरराष्ट्रीय चरमपंथ का गढ़ ना बन जाए. ऐसे में उन पर नज़र रखने की क्या तैयारी है.
ब्रिटेन के विदेश मंत्री डॉमिनिक राब ने एक बयान में कहा कि "ब्रिटेन इस्लामिक स्टेट से हर मुमकिन तरीके से लड़ेगा." उन्होंने कहा कि वो इस समूह के नेता को पकड़ने के लिए "राष्ट्रीय स्तर पर मौजूद सभी ताक़तों को इस्तेमाल करेंगे."
लेकिन इन बयानों का क्या अर्थ निकलता है? ब्रिटेन आख़िर किन तरीकों का इस्तेमाल करेगा या फिर ये सिर्फ़ बढ़ा-चढ़ा कर दिया गया एक बयान है, जैसा कि आलोचकों का मानना है.
पश्चिमी देशों की सैन्य ताक़तें और ख़ुफ़िया एजेंसियों को इस बात का अंदाज़ा नहीं था कि तालिबान इतनी तेज़ी से अफ़ग़ानिस्तान की सेना को हरा देगा. ऐसा लगा जैसे कि अफ़ग़ान सेना ने तालिबान के प्रति नरम रवैया अपनाने में ज़रा भी देरी नहीं की.
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सीआईए के डायरेक्टर विलियम बर्न्स ने कथित तौर पर तालिबान के अफ़ग़ानिस्तान के काबुल पर कब्ज़ा करने के कुछ ही घंटो के भीतर, काबुल में तालिबान के राजनीतिक प्रमुख मुल्ला बरादर से बात की.
अफ़ग़ानिस्तान को चरमपंथ का गढ़ बनने से रोकने की कोशिश
कोशिश है कि अफ़ग़ानिस्तान को अंतरराष्ट्रीय चरमपंथ का गढ़ बनने से बचाया जा सके. एमआई6 के पूर्व प्रमुख सर एलेक्स यंगर ने बीबीसी से कहा, "मुझे नहीं लगता कि तालिबान में ये करने की क्षमता है. अगर वो ऐसा करना चाहते हों तब भी ये संभव नहीं."
"ये ज़रूरी होगा कि पड़ोसी देशों को कहा जाए कि तमाम विरोधाभासों से बावजूद, हम सब की एक ही दिक्क़त है और इससे निपटने के लिए हमें साथ मिलकर काम करना होगा."
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पाकिस्तान इस उद्देश्य को पाने में अहम भूमिका निभा सकता है. एमआई6 के मौजूदा प्रमुख रिचर्ड मूर ने इसे लेकर सेना प्रमुख से बात भी की है. पाकिस्तान की इंटेलीजेंस एजेंसी आईएसआई ने इन इलाकों में कई इस्लामिक चरमपंथियों की मदद की है. इसके बावजूद पाकिस्तान को अपने देश में ही कई हमलों का शिकार होना पड़ा है.
ख़ुफ़िया एजेंसियों के लिए बढ़ी मुश्किलें
एमआई6 के ख़ुफ़िया अधिकारियों ने भी कथित तौर पर तालिबान से काबुल और दोहा में बातचीत की है. उन्होंने तालिबान से कहा है कि अफ़ग़ानिस्तान में उनके राज को अगर वैश्विक स्तर पर मान्यता चाहिए तो अफ़ग़ानिस्तान को चरमपंथ का गढ़ बनने नहीं दिया जा सकता.
एमआई6 का तालिबान से बात करना नया नहीं है. लेकिन काबुल में चरमपंथ के खिलाफ़ अमेरिकी अभियान 15 अगस्त को तालिबान के काबुल में घुसते ही बदल गया.
तालिबान के पूरे अफ़ग़ानिस्तान पर कब्ज़ा करने का अर्थ ये है कि पश्चिमी देशों ख़ासतौर पर सीआईए, एमआई6 और दूसरी खुफ़िया एजेंसियों के पास अफ़ग़ानिस्तान में अब कोई सिक्योरिटी सर्विस या अफ़ग़ान स्पेशल फ़ोर्स जैसा कोई भरोसेमंद साथी नहीं रहा.
पिछले 20 सालों से नेटो या कई देशों की सेना अफ़ग़ानिस्तान में रही है, देश के डायरेक्टरेट ऑफ़ सिक्योरिटी से आने वाली ख़ुफ़िया जानकारियां अल-क़ायदा, आईएसआईएस-के और दूसरे जिहादी संगठनों पर नज़र रखने में मदद करती थीं.
किसी अंतरराष्ट्रीय हमले को अंजाम देने से पहले अफ़ग़ान, अमेरिका या ब्रिटेन की स्पेशल फ़ोर्सेस आमतौर पर रात में किसी ऐसे बेस पर डेरा डालती थीं, जहां से हमले को अंजाम दिया जा सके. इसलिए ये दावा किया जाता था कि अफ़ग़ानिस्तान में पिछले 20 सालों में किसी दूसरे देश से हमले को अंजाम नहीं दिया गया.
तो अब क्या? क्या बचा है?
अफ़गान के बेस और लोगों के नेटवर्क का नुकसान पश्चिमी देशों ख़ासतौर पर अमेरिका और ब्रिटेन अब दो दूसरे तरीकों पर निर्भर है - मैसेज के साइबर इंसेप्शन और बिना ज़मीन पर उतरे ड्रोन स्ट्राइक.
अमेरिका पिछले गुरुवार को ब्लास्ट के बाद आईएसआईएस-के के लड़ाकों को ड्रोन से निशाना बनाने में कामयाब रहा था. ये इस बात की ओर इशारा करता है कि ये खेल अभी भी जारी है और किसी दूसरे देश के किसी कोने में क्या हो रहा है, इससे अमेरिका अनजान नहीं है.
अफ़ग़ानिस्तान पर रहेगी नज़र
क़तर के अल उदैद एयरबेस पर अमेरिका की सेंट्रल कमांड फ़ैसिलिटी से अफ़ग़ानिस्तान पर नज़र रखी जाती है और किसी टार्गेट के दिखाई देने पर कई "एसेट" को अलर्ट किया जा सकता है जैसे कि मिसाइलों से लैस ड्रोन, जो बिना नज़र आए घंटों तक किसी इलाक़े के ऊपर घूम सकते हैं.
लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अफ़ग़ानिस्तान ख़ुफ़िया एजेंसियों के लिए मुश्किल जगह बन गया है. वो लोग जो अमेरिका को अहम जानकारियां देते थे, उन्होंने या तो देश छोड़ दिया है या कहीं छिप गए हैं.
एमआई6 जैसी एजेंसियों को अपने ख़ुफ़िया तंत्र को फिर से खड़ा करना पड़ेगा ताकि किसी तरह की चरमपंथी गतिविधियों की जानकारी समय रहते मिल सके. लेकिन इसमें काफ़ी समय लगेगा.
आईएसआईएस-के ने तालिबान और अल क़ायदा दोनों को अपना दुश्मन करार दिया है और वो अफ़ग़ानिस्तान में दिक्क़तें पैदा कर सकते हैं. लेकिन अल क़ायदा का मामला और भी ख़राब है. संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक अल क़ायदा और तालिबान के बीच पुराने संबंध हैं.
ओसामा बिन लादेन के पुराने सुरक्षा सचिव अमीन-उल-हक़ का पिछले हफ़्ते अफ़ग़ानिस्तान लौटना चिंता का विषय है. अमेरिका द्वारा 'विशेष रूप से घोषित वैश्विक आतंकी' का अफ़ग़ानिस्तान वापस लौटने में सुरक्षित महसूस करना कई देशों के आंतक-विरोधी अभियान के लिए चिंताजनक है.
ऐसे में देश कई सालों तक अफ़ग़ानिस्तान से अपनी नज़र हटा नहीं पाएंगे.
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