योगी आदित्यनाथ: छात्र नेता अजय से 'मुख्यमंत्री-महाराज' बनने का दिलचस्प सफ़र
अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, गोरक्षपीठ, हिंदू युवा वाहिनी और संसद के रास्ते लखनऊ की 'राजगद्दी' तक पहुँचे महंत में एक तबका अब भावी प्रधानमंत्री देखने लगा है.
वे "मुख्यमंत्री श्री योगी आदित्यनाथ जी महाराज" कहलाना पसंद करते हैं. ट्विटर के उनके आधिकारिक अकाउंट से किए हर ट्वीट में उनका नाम इसी तरह लिखा जाता है.
ट्विटर के उनके आधिकारिक अकाउंट में उनका परिचय कुछ इस तरह लिखा गया है - 'मुख्यमंत्री (उत्तर प्रदेश); गोरक्षपीठाधीश्वर, श्री गोरक्षपीठ; सदस्य, विधान परिषद, उत्तर प्रदेश; पूर्व सांसद (लोकसभा-लगातार 5 बार) गोरखपुर, उत्तर प्रदेश.'
भारत के इतिहास में शायद ही कभी ऐसा हुआ हो जब एक जन-प्रतिनिधि संवैधानिक पद पर रहते हुए न सिर्फ़ अपनी धार्मिक गद्दी पर भी विराजमान हो, बल्कि राजकाज में भी उसकी गहरी छाया दिखती हो.
महंत आदित्यनाथ योगी जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने तो धार्मिक के साथ-साथ राजनीतिक सत्ता भी उनके हाथ आई, इसी बात को हमेशा ज़ाहिर करने के लिए 'मुख्यमंत्री श्री योगी आदित्यनाथ जी महाराज' का संबोधन चुना गया.
मुख्यमंत्री और महाराज का ये मिला-जुला नाम, सिर्फ संबोधन नहीं है, यह उनके धार्मिक-राजनीतिक सफ़र की ताक़त, ख़ासियत और कुछ लोगों की नज़रों में ख़ामी भी है.
चरण स्पर्श की संस्कृति
साल 2017 में उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद गोरखपुर प्रेस क्लब ने उन्हें न्योता दिया.
गोरखपुर में वरिष्ठ पत्रकार मनोज सिंह याद करते हैं, "जैसे ही मुख्यमंत्री सभा में दाखिल हुए, संचालन कर रहे पत्रकार अपनी बात रोककर बोले - देखिए, हमारे मुख्यमंत्री आ गए, हमारे भगवान आ गए."
"इसके बाद मुख्यमंत्री मंच पर जाकर बैठ गए और वहां मौजूद सभी पत्रकार उनका स्वागत करने के लिए एक-एक कर मंच पर गए और उनके पैर छुए."
पैर छूकर बड़ों या आदरणीय का आशीर्वाद लेना उत्तर प्रदेश में आम है, लेकिन उस क्षण में पैर महंत के छुए जा रहे थे या मुख्यमंत्री के, यह कहना मुश्किल है.
मनोज सिंह पूछते हैं, "पत्रकार पैर छुएगा, तो पत्रकारिता कैसे करेगा?"
हर तरफ़ भगवा रंग
योगी आदित्यनाथ की दोनों पहचानों को अलग करना इसलिए भी मुश्किल है कि वो ख़ुद उन्हें साथ लेकर चलते हैं.
सरकारी दस्तावेज़ों में उनके नाम के साथ महंत या महाराज नहीं लगाया जाता पर मुख्यमंत्री बनाए जाने के बाद भी गेरुआ वस्त्र पहनने से उनकी वही छवि दिखती है.
लखनऊ में वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ कलहंस बताते हैं, "वो सत्ता में हैं तो लोग वही करते हैं जो उन्हें पसंद है, उनकी कुर्सी के पीछे सफ़ेद की जगह गेरुआ तौलिया टंगा रहता है, शौचालय का उद्घाटन करने भी जाएं तो दीवार को गेरुए रंग से रंग दिया जाता है."
महीने में एक या दो बार वो गोरखपुर जाते हैं और मंदिर में पूजा-अर्चना, धार्मिक परंपराओं और त्योहारों का हिस्सा बनते हैं. सभी धार्मिक गतिविधियों की तस्वीरें उनके सरकारी सोशल मीडिया हैंडलों से बराबर शेयर की जाती हैं.
धर्म वहाँ हर जगह बसा है. पुलिस थानों में छोटे मंदिर बने हैं. गोरखपुर की ज़िला अदालत में हर मंगलवार वकील हनुमान चालीसा पढ़ते हैं.
गिरफ़्तारी और गाय के आँसू
मुख्यमंत्री बनने से दस साल पहले, जनवरी 2007 में गोरखपुर के तत्कालीन सांसद आदित्यनाथ को कर्फ़्यू के दौरान 'सांप्रदायिक भावनाएँ भड़काने वाले भाषण' देने के लिए गिरफ़्तार कर लिया गया था.
मनोज सिंह बताते हैं, "तब भी मौके पर पहुंचे पुलिस अधिकारी ने उन्हें गिरफ़्तार करने से पहले उनके पैर छुए थे."
"आस्था का प्रभाव इतना था कि हिंदी में छपनेवाले एक बड़े अख़बार में उस घटना पर लिखी गई ख़बरों में से एक में, गिरफ़्तारी के बाद गोरखनाथ मंदिर की गोशाला की एक गाय के रोने का विस्तृत ब्यौरा दिया गया था."
योगी आदित्यनाथ का यही धार्मिक प्रभुत्व और उग्र हिंदुत्व की राजनीति उनके शासन-प्रशासन में साफ़ दिखाई देती है. यह योगी आदित्यनाथ तक सीमित नहीं है, राज्य के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक सरकारी हेलिकॉप्टर से कांवड़ियों पर पुष्प-वर्षा कर चुके हैं.
एंटी रोमियो स्क्वॉड, अवैध बूचड़खानों की तालाबंदी, शादी के लिए धर्म परिवर्तन पर क़ानून जैसी नीतियां हों या उनके भाषण, बयान, सब जगह धार्मिक और राजनीतिक सत्ता को एकाकार होते हुए देखा जा सकता है.
साल 2021 में एक जनसभा में उन्होंने कहा, "साल 2017 से पहले अब्बा जान कहने वाले राशन हजम कर जाते थे."
साल 2020 में उत्तर प्रदेश के जौनपुर उप-चुनाव की सभा में उन्होंने कहा, "लव-जिहाद वाले सुधरे नहीं तो राम नाम सत्य है की यात्रा निकलने वाली है."
उनके शासन में अंतरधार्मिक विवाहों का विरोध उग्र हुआ है. उसे 'लव-जिहाद' कहा जाने लगा है.
इस शब्द का इस्तेमाल उस कथित साज़िश की ओर इशारा करने के लिए किया जाता है जिसके तहत हिंदू औरतों को शादी के ज़रिए जबरन इस्लाम धर्म अपनाने के लिए मजबूर किया जा रहा है.
काशी विश्वनाथ मंदिर के विज्ञापन में नरेंद्र मोदी हैं, योगी क्यों नहीं?
जब नागरिकता क़ानून (सीएए) का विरोध हुआ तो योगी सरकार ने कुछ प्रदर्शनकारियों को 'सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुँचाने का दोषी' बताते हुए उनके नाम, पते और तस्वीरों के पोस्टर लखनऊ में लगवा दिए. इनमें से कई बुज़ुर्ग मानवाधिकार कार्यकर्ता और रिटायर्ड वरिष्ठ अधिकारी भी थे.
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इसे 'निजता का हनन' बताते हुए पोस्टर उतारने के निर्देश दिए, उसके बाद भी ये पोस्टर दोबारा लगाए गए.
मोदी और अमित शाह के बाद योगी ही वह नेता हैं जिन्होंने देश के लगभग हर हिस्से में बीजेपी के लिए चुनाव प्रचार किया, उन्होंने केरल जाकर अपने यूपी मॉडल की तारीफ़ की.
साल 2019 में लोकसभा और उससे पहले मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव प्रचार में उन्होंने कहा, "कमलनाथ जी, आपके लिए भले अली महत्वपूर्ण होंगे, लेकिन हमारे लिए तो बजरंग बली ही सब कुछ हैं."
साल 2018 में उन्होंने उत्तर प्रदेश विधानसभा में कहा, "मैं हिंदू हूं, इसलिए ईद नहीं मनाता, इसका मुझे गर्व है."
'शेड्स ऑफ़ सैफ़रन: फ़्रॉम वाजपेयी टू मोदी' लिखने वाली सबा नक़वी के मुताबिक आदित्यनाथ अपने शासन में केसरिया का ऐसा रंग लेकर आए हैं जो पहले कभी नहीं देखा गया.
सबा कहती हैं, "उन्होंने हिन्दुत्व की परिभाषा मुसलमानों से नफ़रत में तब्दील कर दी है. ये इतनी कारगर साबित हो रही है कि अन्य बीजेपी शासित राज्य, जैसे मध्य प्रदेश सरकार भी अपनी भाषा और नीतियों को वैसे ही ढाल रही है."
उत्तर प्रदेश में धर्म परिवर्तन के ख़िलाफ़ क़ानून आने के बाद पांच बीजेपी शासित राज्य भी योगी सरकार की तर्ज़ पर क़ानून लेकर आए हैं.
सबा नक़वी कहती हैं, "आदित्यनाथ को अपने हिंदुत्व में, ध्रुवीकरण की राजनीति के फ़ायदे में पूरा विश्वास है, वो सोच उनके ज़हन में बसी है. सांप्रदायिकता तो उत्तर प्रदेश में पहले से ही अंदर ही अंदर पनप रही थी पर अब उनकी देखा-देखी खुलकर सामने आने लगी है."
पत्रकार विजय त्रिवेदी के मुताबिक़ बदलते राजनीतिक परिदृश्य में लोगों को अब 'पोलिटिकली करेक्ट' नेता नहीं चाहिए.
वो कहते हैं, "योगी आदित्यनाथ का मक़सद अल्पसंख्यकों में डर पैदा करना नहीं, बल्कि उनके प्रति हिंदुओं में ख़ौफ़ पैदा करके उन्हें अपने पक्ष में गोलबंद करना है. लोग रचनात्मक उद्देश्य से वैसे एक साथ नहीं आते जैसे विनाशकारी मुद्दों पर. बाबरी मस्जिद विध्वंस ही याद कर लीजिए."
छात्र संघ से मंदिर और राजनीति का रास्ता
'यदा यदा हि योगी' नाम से योगी आदित्यनाथ की जीवनी लिखने वाले विजय त्रिवेदी के मुताबिक 1972 में गढ़वाल के एक गांव में जन्मे अजय मोहन बिष्ट का शुरुआत से ही राजनीति की ओर रुझान था.
जीवनी में वो लिखते हैं कि अजय बिष्ट को कॉलेज के दिनों में 'फ़ैशनेबल, चमकदार, टाइट कपड़े और आंखों पर काले गॉगल्स' पहनने का शौक़ था. 1994 में दीक्षा लेने के बाद वे आदित्यनाथ योगी बन गए.
बचपन में शाखा में जाने वाले बिष्ट, कॉलेज में छात्रसंघ का चुनाव लड़ना चाहते थे पर आरएसएस से जुड़े छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने उन्हें टिकट नहीं दिया. वे निर्दलीय लड़े, लेकिन हार गए.
अजय बिष्ट ने बीएससी की पढ़ाई गढ़वाल के श्रीनगर स्थित हेमवती नंदन बहुगुणा यूनिवर्सिटी से पूरी की है.
विजय त्रिवेदी लिखते हैं कि 'हार के कुछ महीनों बाद जनवरी 1992 में बिष्ट के कमरे में चोरी हो गई जिसमें एमएससी के दाख़िले के लिए ज़रूरी कई कागज़ात भी चले गए. दाख़िले के सिलसिले में मदद मांगने के लिए ही बिष्ट पहली बार महंत अवैद्यनाथ से मिले और दो वर्षों के भीतर ही उन्होंने न सिर्फ़ दीक्षा ली बल्कि उत्तराधिकारी भी बन गए.'
दीक्षा लेने के साथ नाम ही नहीं बदला जाता, पिछली दुनिया के साथ संबंध भी तोड़ा जाता है. आगे चलकर साल 2020 में बीमार पड़ने के बाद जब उनके पिता आनंद बिष्ट की मृत्यु हो गई तब मुख्यमंत्री बन चुके आदित्यनाथ ने एक बयान जारी कर कहा कि, "कोरोना महामारी को पछाड़ने की रणनीति के तहत और लॉकडाउन की सफलता के लिए मैं उनके कर्म कांड में शामिल नहीं हो सकूंगा."
दीक्षा के बाद से ही आदित्यनाथ योगी ने आधिकारिक दस्तावेज़ों में पिता के नाम के कॉलम में आनंद बिष्ट की जगह महंत अवैद्यनाथ का नाम लिखना शुरू कर दिया.
महंत अवैद्यनाथ तब राम मंदिर आंदोलन का प्रमुख चेहरा थे. वो गोरखपुर से चार बार सांसद रह चुके थे और गोरखनाथ मंदिर के महंत थे.
गोरखनाथ मंदिर और सत्ता का रिश्ता और पुराना है. महंत अवैद्यनाथ से पहले महंत दिग्विजय नाथ ने इसे राजनीति का अहम केंद्र बनाया. वो गोरखपुर से सांसद भी चुने गए.
1950 में महासभा के राष्ट्रीय महासचिव बनने पर उन्होंने कहा कि अगर उनकी पार्टी सत्ता में आई तो वो मुसलमानों से 5-10 वर्षों के लिए मताधिकार वापस ले लेंगे ताकि उस समय में वो समुदाय सरकार को आश्वस्त कर सके कि उसके इरादे भारत के हित में हैं.
नाथ संप्रदाय का सनातनीकरण
ऐतिहासिक तौर पर नाथ संप्रदाय में हिंदुओं और मुसलमानों में भेदभाव नहीं किया जाता और मूर्ति पूजा नहीं होती. एकेश्वरवादी नाथ संप्रदाय अद्वैत दर्शन में विश्वास रखता है जिसके मुताबिक़ ईश्वर एक ही है और उसी का अंश सभी जीवों में है, वे आत्मा और परमात्मा को अलग-अलग नहीं मानते.
मुगल शासक जहांगीर के दौर में एक कवि की लिखी 'चित्रावली' में गोरखपुर का उल्लेख मिलता है. 16वीं सदी की इस रचना में गोरखपुर को योगियों का 'भला देश' बताया गया है.
मौजूदा गोरखनाथ मंदिर के बाहर एक सबद भी अंकित है- "हिंदू ध्यावे देहुरा, मुसलमान मसीत/ जोगी ध्यावे परम पद, जहां देहुरा ना मसीत."
इस सबद का अर्थ है कि हिंदू मंदिर का और मुसलमान मस्जिद का ध्यान करते हैं, पर योगी उस परमपद (परमब्रह्म, एकेश्वर) का ध्यान करते हैं, वे मंदिर या मस्जिद में उसे नहीं ढूंढते.
गोरखपुर के पत्रकार मनोज सिंह के मुताबिक महंत दिग्विजय नाथ के साथ ही इस पीठ का सनातनीकरण होने लगा, मूर्ति-पूजन शुरू हुआ और राजनीतिकरण भी.
धार्मिक किताबें छापने वाली गोरखपुर स्थित गीता प्रेस पर किताब 'गीता प्रेस एंड द मेकिंग ऑफ हिंदू इंडिया' में लेखक-पत्रकार अक्षय मुकुल, गोरखनाथ मंदिर के साथ उसके गहरे रिश्ते के बारे में लिखते हैं.
गीता प्रेस की प्रकाशित सामग्री में गौ-हत्या, हिंदी को राष्ट्रीय भाषा बनाना, हिंदू कोड बिल, संविधान के धर्म-निरपेक्ष होने वगैरह पर हिंदुओं की एक राय बनाने की कोशिश की गई जिसमें राजनीतिक प्रभाव रखने वाले मंदिर के महंतों ने भूमिका अदा की.
नवंबर 2019 में अयोध्या मंदिर-मस्जिद विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फ़ैसले के बाद योगी आदित्यनाथ ने अपने ट्विटर हैंडल से एक तस्वीर शेयर की थी जिसमें रामशिला के साथ गोरखनाथ मंदिर के पूर्व महंत दिग्विजयनाथ, अवैद्यनाथ और परमहंस रामचंद्र दास दिखाई दे रहे थे.
तस्वीर के साथ योगी आदित्यनाथ ने लिखा था, "गोरक्षपीठाधीश्वर युगपुरुष ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ जी महाराज, परम पूज्य गुरुदेव गोरक्षपीठाधीश्वर ब्रह्मलीन महंत अवैद्यनाथ जी महाराज एवं परमहंस रामचंद्र दास जी महाराज को भावपूर्ण श्रद्धांजलि."
साल 2020 में अयोध्या में राम मंदिर का शिलान्यास मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की देखरेख में ही हुआ.
गोरखपुर से मुख्यमंत्री की सीढ़ी
अजय बिष्ट के राजनीतिक सफर की सही मायने में शुरुआत तब हुई जब 1994 में उन्होंने महंत अवैद्यनाथ से दीक्षा लेकर योगी आदित्यनाथ की पहचान अपनाई. इसके बाद उनका अगला संसदीय चुनाव लड़ना लगभग तय था.
पांच साल बाद 26 साल की उम्र में वो गोरखपुर से सांसद चुने गए. हालांकि तब उन्हें सिर्फ़ छह हज़ार वोटों से जीत हासिल हुई थी.
मनोज सिंह बताते हैं, "इस वक्त उन्होंने तय किया कि उन्हें बीजेपी से अलग एक सपोर्ट बेस चाहिए और उन्होंने हिंदू युवा वाहिनी बनाई, जो कहने को एक सांस्कृतिक संगठन था, पर दरअसल उनकी अपनी सेना थी."
वे कहते हैं, "हिंदू युवा वाहिनी का कथित लक्ष्य था धर्म की रक्षा करना, सांप्रदायिक तनाव में इस संगठन की भूमिका रही है. इसी संगठन की अगुवाई करते हुए योगी आदित्यनाथ साल 2007 में गिरफ्तार हुए थे."
ग्यारह दिन जेल में रहने के बाद वो ज़मानत पर छूट गए. दस साल तक इस केस में किसी सरकार के तहत कोई कार्रवाई नहीं हुई. 2017 में जब आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बने तो उनके तहत आनेवाले गृह मंत्रालय ने सीबीसीआईडी को इस केस को चलाने की इजाज़त नहीं दी.
साल 2014 में जब आदित्यनाथ ने अपना आखिरी चुनाव लड़ा था, तब चुनाव आयोग में दाखिल ऐफिडेविट के मुताबिक उनके खिलाफ कई संगीन धाराओं के तहत मुकदमे दायर थे.
दिसंबर 2017 में उत्तर प्रदेश सरकार ने कानून में एक संशोधन किया जिससे राजनेताओं के खिलाफ 'राजनीति से प्रेरित' मामले वापस लिए जा सकें. कौनसे मामले 'राजनीति से प्रेरित' माने जाएंगे ये तय करने का अधिकार सरकार ने अपने पास रख लिया.
हिंदू युवा वाहिनी से सांसद आदित्यनाथ को बल मिला और नेता के तौर पर उनकी साख गोरखपुर से आगे फैली.
पूर्वी उत्तर प्रदेश में वो वाहिनी के लोगों को विधायक का टिकट दिलवाने के लिए अक्सर अड़ जाते और बीजेपी नहीं मानती तो उनके प्रत्याशी के सामने वाहिनी के उम्मीदवार खड़ा करने तक का कदम उठा लेते थे.
मुख्यमंत्री बनाए जाने के बाद भी वो पार्टी के सामने अपनी बात मनवाने से नहीं चूकते. सबा नकवी मानती हैं कि इसकी वजह हिंदुत्व की विचारधारा पर फली-फूली उनकी लोकप्रियता और समर्थकों की ताकत है.
वो कहती हैं, "ऐसी पार्टी जो मोदी-शाह के पूरे नियंत्रण में है, वहां आदित्यनाथ अपनी बात कह सकते हैं, वो किसी नेता के रहमो-करम पर नहीं हैं."
"कई राज्यों के मुख्यमंत्री आसानी से हटाए गए हैं पर उनके साथ पार्टी ऐसा नहीं कर पा रही, क्योंकि इतने अहम् राज्य में इन्हें हटाकर किसे खड़ा करेंगे?"
मुख्यमंत्री बनने के साथ ही कई बड़े फैसले लेने से उनकी छवि एक कड़े प्रशासक की बन गई. सिद्धार्थ कलहंस कहते हैं, "उन्हें हार्ड टास्क मास्टर माना जाने लगा, ब्यूरोक्रेसी को समझ में आ गया कि इनके हिसाब से काम करना होगा, वर्ना चलेगा नहीं."
विजय त्रिवेदी के मुताबिक, "फैसले लेना ही नहीं, अगली मीटिंग में उनके फॉलो-अप की जानकारी लेना और काम ना होने पर कदम उठाना मुख्यमंत्री की कार्यशैली है".
प्रधानमंत्री मोदी के उत्तराधिकारी?
अक्सर ये चर्चा चलती है कि क्या योगी इतने ताकतवर नेता बन गए हैं कि उन्हें आने वाले सालों में प्रधानमंत्री पद का दावेदार माना जाए?
सबा नक़वी ऐसा नहीं मानतीं. उनके मुताबिक, "एक नेता के तौर पर नरेंद्र मोदी के सामने आदित्यनाथ का कद बहुत छोटा है और उन्हें राजनीति में आगे बढ़ने के लिए आम सहमति बनाकर चलने और कॉरपोरेट जगत से मेल-जोल बनाने जैसे गुर भी नहीं आते."
वे कहती हैं, "जनता में समर्थक बना पाने के बावजूद, मुख्यमंत्री आदित्यनाथ की प्रशासनिक कार्यशैली लोकप्रिय नहीं है."
राज्य चलाने की ज़िम्मेदारी से पहले से ही वो गोरखनाथ मंदिर के तहत कई स्कूल, अस्पताल और अन्य संस्थाओं का नेतृत्व करते रहे हैं.
मनोज सिंह कहते हैं, "मंदिर का नेतृत्व बहुत सामंतवादी तरीके से किया गया है, सारा नियंत्रण योगी आदित्यनाथ के हाथ में रहा है, और वो सरकार भी उसी तरीके से चला रहे हैं. विधायक तो दूर, मंत्री तक अपनी बात नहीं कह पाते."
विजय त्रिवेदी के मुताबिक योगी आदित्यनाथ ने प्रधानमंत्री के काम करने के तरीके से बहुत कुछ सीखने की कोशिश की है, "नीतियों का खूब प्रचार करना, अकेले सरकार चलाना, मीडिया पर नियंत्रण रखना वगैरह. लेकिन वो हिंदुत्व के साथ-साथ विकास के एजेंडा पर काम नहीं कर पाए हैं."
ये तब, जब उन्होंने मीडिया का एक बड़ा तंत्र खड़ा किया है. लखनऊ और गोरखपुर में दो अलग मीडिया टीमें काम करती हैं जिनमें सरकारी के साथ-साथ बाहर की एजेंसियों को भी काम पर लगाया गया है.
तीन मीडिया एडवाइज़र हैं. अखबार, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और सोशल मीडिया के लिए अलग संदेश तैयार होते हैं.
लखनऊ स्थित पत्रकार सिद्धार्थ कलहंस बताते हैं, "पहले से कहीं ज़्यादा तादाद में बड़े विज्ञापन छपने लगे हैं, चैनलों पर उपलब्धियों की डॉक्यूमेंटरी प्रसारित होती हैं."
योगी आदित्यनाथ की विरासत
तो उत्तर प्रदेश में पिछले साढ़े चार साल के कार्यकाल में क्या बदला मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने? गोरखपुर से सांसद के तौर पर योगी आदित्यनाथ ने संसद में पांच प्राइवेट मेंबर बिल पेश किए थे.
इनमें यूनीफॉर्म सिविल कोड, आधिकारिक तौर पर देश का नाम 'इंडिया' की जगह 'भारत' करने, गौ हत्या पर पाबंदी, धर्म परिवर्तन के खिलाफ कानून और इलाहाबाद हाई कोर्ट की गोरखपुर बेंच की स्थापना की मांग की गई थी.
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनाए जाने के बाद वो राज्य में गौ हत्या के खिलाफ कानून को और सख़्त बना चुके हैं, और धर्म परिवर्तन पर पाबंदी के लिए नया कानून ला चुके हैं.
मनोज सिंह के मुताबिक, "इस कार्यकाल में ये तय हो गया है कि एक महंत भी शासन कर सकता है और अपने कट्टर विचारों को विधानसभा में और अपनी नीतियों में आवाज़ दे सकता है."
उत्तर प्रदेश में पुलिस हमेशा से ताकतवर रही है पर इस कार्यकाल में उसे और छूट मिली है. सरकार अपने विज्ञापनों में एनकाउंटर करने को उप्लब्धि के तौर पर गिनाती है और मुख्यमंत्री की कड़े प्रशासक होने की छवि को आगे ले जाती है.
विजय त्रिवेदी मानते हैं कि प्रशासनिक कार्यप्रणाली बेहतर और कानून व्यवस्था सख्त हुई है, पर वो एक सामाजिक गुट के खिलाफ भी हुई है.
वो कहते हैं, "योगी की नीतियों से एक गुट में नाराज़गी बढ़ी है तो दूसरी में लोकप्रियता. लेकिन लोकतंत्र में तो चुनावी नतीजे ही असली मानक हैं, 30 प्रतिशत की पसंद 70 प्रतिशत को माननी पड़ती है, अगर हमें वो पसंद नहीं तो अपना सिस्टम बदलना होगा."
राज्य में सरकारी संदेश का बहुत प्रभावी तरीके से प्रसार हो रहा है. सबा नकवी के मुताबिक उससे इतर लिखने की कोशिश करने वाले "स्थानीय पत्रकारों पर कड़े प्रावधानों के तहत मुकदमे दायर करना और उन्हें जेल में डालना आम हो गया है."
सिद्धार्थ कलहंस के मुताबिक अब राज्य में विरोध पहले जैसे सार्वजनिक तरीके से नहीं दिखता जैसे हुआ करता था, जो ध्रुवीकरण राजनीति से इत्तफाक़ नहीं रखते, वो चुप ही रहते हैं.
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