#WorldMentalHealthDay: पैसेवाले भी नहीं उठा पा रहे हैं इलाज का खर्च, ग़रीब क्या करेंगे?
अगर अच्छा-ख़ासा कमाने वाले लोग मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी परेशानियों के इलाज में होने वाले खर्च को लेकर परेशान हैं तो ग़रीब और निम्न-मध्यम वर्ग के लिए यह कितना मुश्किल होगा?
''मैंने अपनी मेंटल हेल्थ का ख्याल रखने की कोशिश में अब तक 1,61,800 रुपये खर्च किए हैं.''
"मेंटल हेल्थ का ख्याल रखना बहुत ज़रूरी है और बहुत महँगा भी. क्यों? क्योंकि भारत की स्वास्थ्य सुविधाएँ घटिया हैं."
I HAVE SPENT Rs 1,61,800 SO FAR TRYING TO TAKE CARE OF MY MENTAL HEALTH.
TW: anxiety, depression
Now that I have your attention with all that clickbait and all caps yelling, read this #thread.
TL; DR: WE NEED A BETTER HEALTHCARE SYSTEM!
(1/n)
— Karnika (@KarnikaKohli) July 21, 2020
एक मीडिया संस्थान में काम करने वाली कर्णिका कोहली ने ये ट्वीट इस साल 21 जुलाई को किए थे.
देश की राजधानी दिल्ली में रहने वाली कर्णिका अच्छी-ख़ासी नौकरी करती हैं और उनकी ठीकठाक आमदनी है. इसके बावजूद उन्हें लगता है कि डिप्रेशन और एंग्ज़ायटी के इलाज में उनके बेतहाशा पैसे खर्च हुए हैं.
कुछ ऐसा ही मौलश्री कुलकर्णी को भी लगता है. उन्होंने भी काउंसलिंग और थेरेपी में अब तक 50-60 हज़ार रुपये खर्च किए हैं.
इलाज में पानी की तरह बहता पैसा
अब सवाल ये है कि अगर राजधानी में रहने वाले और अच्छा-ख़ासा कमाने वाले लोग मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी परेशानियों के इलाज में होने वाले खर्च को लेकर परेशान हैं तो ग़रीब और निम्न-मध्यम वर्ग के लिए यह कितना मुश्किल होगा?
मानसिक सेहत की अहमियत पर पिछले कुछ वर्षों में थोड़ी जागरूकता ज़रूर बढ़ी है.
आज ऐसे लोग मिल जाते हैं जो कहते हैं-साइकोलॉजिस्ट के पास जाओ या सायकाइट्रिस्ट के पास जाओ. लेकिन साइकोलॉजिस्ट और सायकाइट्रिस्ट की भारी-भरकम फ़ीस कहाँ से आएगी, ये अब भी चर्चा का विषय नहीं बन पाया है.
दिल्ली और मुंबई जैसे बड़े शहरों में काउंसलिंग के एक सेशन (40-45 मिनट) की फ़ीस औसतन 1,000-3,000 रुपये है.
मानसिक तकलीफ़ों के मामलों में ये काउंसलिंग काफ़ी लंबी चलती है. काउंसलिंग और थेरेपी के असर के लिए अमूमन 20-30 सेशन लगते हैं. ज़ाहिर है, पैसे भी पानी की तरह बहाने पड़ते हैं.
हेल्थ इंश्योरेंस भी नहीं
कर्णिका और मौलश्री, दोनों के ही हेल्थ इश्योरेंस में मेंटल हेल्थ को कवर नहीं किया गया है.
हालात कितने नाज़ुक हैं, इसका अंदाज़ा यूँ लगाया जा सकता है कि बॉलीवुड अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत मामले में जब मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी बहस में तेज़ी आई तब सुप्रीम कोर्ट को पूछना पड़ा कि आख़िर क्यों इंश्योरेंस कंपनियाँ मानसिक सेहत के इलाज के ख़र्च को मेडिकल इंश्योरेंस कवर के तहत नहीं रखती हैं?
जस्टिस नरीमन, जस्टिस नवीन सिन्हा और जस्टिस गवई ने जून में एक याचिका की सुनवाई करते हुए केंद्र सरकार और इरडा (इंश्योरेंस रेग्युलेटरी एंड रेग्युलेटरी अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया) को नोटिस जारी करते हुए इस बारे में स्पष्टीकरण देने को कहा था.
क्या असल में मानसिक बीमारियों का इलाज इतना ख़र्चीला है? और अगर हाँ तो इसकी क्या वजहे हैं?
दिल्ली स्थित इंस्टिट्यूट ऑफ़ ह्यूमन बिहेवियर ऐंड एलाइड साइंसेज़ (इबहास) में सीनियर सायकाइट्रिस्ट डॉक्टर ओम प्रकाश ने इस बारे में बीबीसी से विस्तार से बात की.
उन्होंने इस मसले में जिन प्रमुख बातों पर ध्यान दिलाया, वो कुछ इस तरह हैं:
- असली दिक़्कत ये नहीं है कि मानसिक बीमारियों का इलाज महँगा है. असली दिक्क़त ये नहीं है कि काउंसलिंग और थेरेपी महँगी है. असली दिक़्कत है देश के सरकारी अस्पतालों में मनोचिकित्सकों की भारी कमी. असली समस्या है, पहले से ही खस्ताहाल स्वास्थ्य सेवाओं के बीच मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं का और बुरा हाल.
- केंद्र और ज़्यादातर राज्य सरकारें मानसिक स्वास्थ्य को लेकर ज़रा भी सजग नहीं हैं और यही वजह है कि वो अस्पतालों में सायकाइट्रिस्ट और सायकोलॉजिस्ट्स की नियुक्ति ही नहीं करतीं. सरकारें अस्पतालों में मेंटल हेल्थ डिपार्टमेंट होने को ज़रूरी ही नहीं समझतीं.
- अगर सरकारी अस्पतालों में गिने-चुने मनोचिकित्सकों की नियुक्ति होती भी है तो उन्हें कॉन्ट्रैक्ट पर रखने पर ज़ोर दिया जाता है. डॉक्टरों के लिए सरकारी कॉन्ट्रैक्ट की नौकरी में न तो पर्याप्त पैसे हैं और न ही सुविधाएँ."
- इसके उलट प्राइवेट अस्पताल सायकोलॉजिस्ट और सायकाइट्रिस्ट, दोनों को ही बढ़िया वेतन भी देते हैं और बेहतर सुविधाएँ भी. ऐसे में कोई भी डॉक्टर कॉन्ट्रैक्ट की सरकारी नौकरी के बजाय प्राइवेट अस्पतालों में ही काम करना पसंद करेगा.
- चूँकि बहुत कम सरकारी अस्पतालों में मानिसक बीमारियों का इलाज संभव है और जहाँ ये सुविधा उपलब्ध है भी वहाँ डॉक्टरों की कमी है और मरीज़ों की भरमार. ऐसे में प्राइवेट प्रैक्टिस करने वाले डॉक्टरों की फ़ीस बढ़ना लाज़मी है.
एक लाख लोगों के लिए एक डॉक्टर भी नहीं
डॉक्टर ओम प्रकाश का मानना है कि सरकार ने अपनी स्वास्थ्य सुविधाओं को ख़राब करके निजी अस्पतालों को फलने-फूलने को पूरा मौका दिया है. इससे चंद कारोबारियों और कंपनियों का भला तो होता है लेकिन आम जनता का एक बड़ा हिस्सा ज़रूरी इलाज से वंचित रह जाता है.
भोपाल में सेवाएँ दे रहे सायकाइट्रिस्ट डॉक्टर सत्यकांत त्रिवेदी का मानना है कि प्राइवेट अस्पतालों में एक सायकाइट्रिस्ट की फ़ीस भी लगभग उतनी ही होती है जितनी किसी फ़िजीशियन या अन्य डॉक्टर की.
वो कहते हैं, "लेकिन चूँकि ज़्यादातर मानसिक बीमारियों जैसे डिप्रेशन, एंग्ज़ायटी, ओसीडी या बाइपोलर डिसऑर्डर का इलाज काफ़ी लंबा चलता है इसलिए मरीज़ को डॉक्टर से लगातार फ़ॉलो-अप करना पड़ता है. इस तरह इलाज का कुल ख़र्च ज़्यादा हो जाता है."
डॉक्टर सत्यकांत भी सरकारी अस्पतालों में मनोचिकित्सकों की कमी और अस्पतालों में मानसिक स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव को महँगे इलाज का प्रमुख कारण मानते हैं.
पिछले साल बीबीसी को दिए इंटरव्यू में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉक्टर हर्षवर्धन ने माना था कि देश में सायकायट्री अस्पतालों की संख्या और डॉक्टरों की कमी है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन के आँकड़ों के अनुसार साल 2014-16 तक भारत में एक लाख लोगों की आबादी के लिए 0.8 सायकाइट्रिस्ट थे यानी एक से भी कम. डब्ल्यूएचओ के मानकों के अनुसार यह संख्या तीन से अधिक होनी चाहिए.
मानसिक स्वास्थ्य पर बजट का 1% हिस्सा भी खर्च नहीं
इन गंभीर ख़ामियों के बावजूद सरकार मानसिक स्वास्थ्य के लिए निवेश करने को तैयार नज़र नहीं आती.
इंडियन जर्नल ऑफ़ सायकाइट्री की 2019 की रिपोर्ट के अनुसार देश के बजट का 1% से भी कम हिस्सा मानसिक स्वास्थ्य के खाते में आता है.
डॉक्टर ओम प्रकाश कहते हैं, "पब्लिक हेल्थ सेक्टर में सुधार के लिए दो क्षेत्रों में सुधार की ज़रूरत होगी-इंफ़्रास्ट्रक्चर और डॉक्टरों की संख्या. अफ़सोस की बात है कि हम दोनों ही मोर्चों पर काफ़ी पीछे हैं."
टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज़ की मेंटल हेल्थ प्रोफ़ेशनल और ग़रीब तबके में काउंसलिंग का अनुभव रखने वाली हिमानी का मानना है कि मानसिक स्वास्थ्य सुविधाओं का महँगा होना तो समस्या है ही लेकिन एक गंभीर समस्या ये भी है कि डॉक्टर की फ़ीस देने में सक्षम लोग भी कई बार सही डॉक्टर या अस्पताल तक नहीं पहुँच पाते.
वो कहती हैं, "मानसिक स्वास्थ्य को लेकर जानकारी इतनी कम है कि हमें उन चंद जगहों के बारे में भी पता नहीं चल पाता जहाँ आसानी से इलाज उपलब्ध है. मिसाल के तौर पर, अगर गाँव में रहने वाले किसी शख़्स की ठीकठाक आमदनी है तो वो सायकाइट्रिस्ट की फ़ीस चुका लेगा. लेकिन उसे सायकाइट्रिस्ट मिलेगा कहाँ, ये अपने-आप में बड़ी दिक्क़त है. ये एक्सेस की समस्या है."
मानसिक सेहत के बारे में जागरूकता के प्रसार के लिए हर साल 10 अक्टूबर को 'वर्ल्ड मेंटल हेल्थ डे' मनाया जाता है.
हर साल इस दिन की अलग-अलग थीम होती है और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस बार की थीम रखी है: मेंटल हेल्थ फ़ॉर ऑल: ग्रेटर एक्सेस, ग्रेटर इन्वेस्टमेंट. यानी मानसिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में ज़्यादा निवेश किया जाए और ये सेवाएं ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुँचाई जाएं.
इंश्योरेंस कवर का क्या मसला है?
मेंटल हेल्थकेयर एक्ट, 2017 के तहत सरकार का दायित्व है कि वो भारत के हर नागरिक को सस्ती और सुलभ मानसिक स्वास्थ्य सेवाएँ उपलब्ध कराए.
इस क़ानून के प्रावधान साफ़ कहते हैं कि इंश्योरेंस कंपनियों को दूसरी बीमारियों की तरह ही मानसिक बीमारियों को भी कवर करना अनिवार्य होगा.
यह एक्ट आने के बाद इंश्योरेंस रेग्युलेटरी एंड डेवलपमेंट अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया (IRDAI) ने अपने दिशा-निर्देशों में स्पष्ट किया कि बीमा कंपनियों के लिए मानसिक बीमारियों को कवर करना अनिवार्य होगा.
सारी समस्याओं का एक ही हल
मगर इन सबके बावजूद, आज भी गिनी-चुनी इंश्योरेंस कंपनियाँ ही मानसिक बीमारियों को कवर करती हैं. जो करती भी हैं, वो ओपीडी सेवाओं को कवर नहीं करतीं.
डॉक्टर सत्यकांत कहते हैं, "चूँकि बहुत कम मानसिक बीमारियाँ ऐसी होती हैं जिनमें मरीज़ को भर्ती होने की ज़रूरत पड़ती है. ज़्यादातर मरीज़ों के लिए ओपीडी सेवाएं काफ़ी होती हैं. इसलिए ओपीडी सेवाओं के बीमा के दायरे से बाहर होने के कारण बड़ी संख्या में लोग इंश्योरेंस के फ़ायदे से दूर रह जाते हैं."
मैक्स बूपा हेल्थ इंश्योरेंस के प्रतिनिधि अशोक गोयल ने बीबीसी को बताया कि ओपीडी सेवाएं कवर करने वाली पॉलिसी बेहद महँगी होती है, जिसका खर्च आर्थिक रूप से बहुत मज़बूत लोग ही उठा सकते हैं.
गोयल ने कहा, "हमारी पॉलिसी मानसिक बीमारियाँ कवर ज़रूर करती है लेकिन ओपीडी सेवाएं इसका हिस्सा नहीं है. मानसिक बीमारियों का इलाज बहुत लंबे वक़्त तक चलता है. ऐसे में ओपीडी सेवाओं को बीमा के दायरे में शामिल करना हमारे लिए आसान नहीं है."
हालाँकि डॉक्टर ओम प्रकाश का मानना है कि मानसिक स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए बीमा कंपनियों पर निर्भरता से प्राइवेट सेक्टर को ही फ़ायदा होगा.
वो कहते हैं, "अगर ये इंश्योरेंस कवर में आ भी जाए तो ग़रीबों को इससे कितना फ़ायदा होगा? और बीमा कंपनियों पर निर्भर होने का मतलब फिर घूम-फिरकर हम हेल्थ सेक्टर को प्राइवेट कंपनियों में हाथों में थमा रहे हैं. इससे देश की बड़ी आबादी का भला नहीं होगा."
यानी मौजूदा तथ्यों और स्वास्थ्य विशेषज्ञों की राय को ध्यान में रखें तो इन मसलों का एक ही हल है: सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं को बेहतर बनाया जाना.
क्योंकि मेंटल हेल्थकेयर क़ानून तो तीन साल पहले बन चुका है लेकिन उस क़ानून को ज़मीन पर उतारने के लिए ज़मीनी सुधारों की ही ज़रूरत होगी.
नोट: मानसिक बीमारियों का इलाज संभव है. किसी भी तरह की परेशानी होने पर योग्य मनोचिकित्सक से संपर्क करें. कुछ ऐसे भी सायकोलॉजिस्टऔर सायकाइट्रिस्ट हैं जो ज़रूरतमंद लोगों को बहुत कम फ़ीस या मुफ़्त में सेवाएं देते हैं. इन डॉक्टरों की लिस्ट देखने के लिए यहां क्लिक करें.